Thirukkural in Konkani |
पुस्तक
एक: धनापासून
अद्याय ७१. विज्ञानाचे छित्र |
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701 |
तो
कोण मन
परीक्षण करचे ना
संगूचान्तु,
। |
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702 |
कोण व्यर्थजाव्नत्तिले,
मनुष्यागेले मन
सूक्ष्म परीक्षण करचे,
। |
||
703 |
कोण,
छित्रा थकून,
असा कसले जाणजव्चे मनान्तु असचे,
। |
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704 |
कोण,
संगूनत्तिले भावनेन,
जाव्यात वसूचे मन,
। |
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705 |
मोल्लादिक दोळे असून उपयोग ना,
। |
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706 |
एक
स्पटिक प्रतिबिंबित जता कसले असा समीप,
अमि दिकता;
। |
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707 |
अमगेले इष्ट अनी अप्रिति असा तोंडान दकोव्चे; । |
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708 |
दुसरांगेले विचार,
कोणाक असा शक्ति सोदून कडचाक जाव्न,
। |
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709 |
विद्वेष अथवा मित्रत्व,
दोळे निश्चित दकैता, । |
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710 |
मनुष्य तीक्ष्ण दीर्ग दृष्टि असचे मन अपर्ण करताति ते, । |
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अद्याय ७२. समाज विज्ञान |
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711 |
शुद्ध मनुष्य कोणाक असा शक्ति उत्तराची अनवेषण करचे, । |
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712 |
मनुष्य कोणाक जता चांग वाक्
चातूर्याधिपत्य असचे जाव्न,
। |
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713 |
शिकूनत्तिले सभेन्तु अनी उपयोग उलोव्चे,
। |
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714 |
विज्ञानागेले मुकारि,
जता प्रकाशित उज्ज्वल दीपा मण्कि,
। |
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715 |
चांग विषया मधे,
उत्तम असा विनीत अनुकंपित जाव्न,
। |
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716 |
व्होडले उणेचि जाव्न असिले शिकिल्या मुकारि पराजित जव्चे,
। |
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717 |
विज्ञान विद्वांसांगेले प्रकाशित जता दीवो जाव्न,
। |
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718 |
उलोव्चाक,
खयि शिकिल्याक अनुभव लभ्य जता सत्याचे,
। |
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719 |
चांग मनुष्यामधे,
उलैयता चांग विषय शक्तियुक्त जाव्न कोण,
। |
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720 |
उत्तरं उलोव्चे एक
अन्यदेशान्तुले जनसमूहाक असा कळेले,
। |
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अद्याय ७३. समाजाचेरि निर्भय |
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721 |
शुद्ध मनुष्य
कोणाक असा शक्तियुक्त उत्तरां संगचाक जता,
। |
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722 |
विद्वासांगेले मुकारि,
कोणाक जाव्यात उलोव्चे अनुकंपेन,
। |
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723 |
अनेक अभिमुख कर्ता मरणाक शत्रू थकून महत्
जाव्न थैर्यान,
। |
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724 |
शिकिल्या मुकआरि,
करताति उज्ज्वल जाव्न उलोव्चे,
। |
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725 |
तर्क शास्त्रा नियम तू
जाव्का कण्टस्थ शिकूक,
। |
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726 |
कसले उपयोग असा खंडयाचे मनुष्याक कोणाक असा अभाव धैराचे,
। |
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727 |
प्रकाशित खण्डया मण्कि युद्धान्तु,
एक
कुंचुकि धारण करता,
। |
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728 |
मनुष्याक,
व्होडले शिकवणे प्रयोजन ना
असाति,
। |
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729 |
कोण भिता एक
संमेळनाक चांग मनुष्यांगेले,
जरी पठनकेलेले चांगजाव्न,
। |
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730 |
कोण भिता संमेळना मण्डपाक, असा जल्यारियि व्होडले पठनकेले, । |
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अद्याय ७४. राज्य |
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731 |
खयि सस्य नाशजाव्नत्तिले वर्धित,
जता खयि एक
समूक असा । |
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732 |
एक
भूमि असा ती
खचि तिजे संपत्ति खतीरि अन्वेषण केल्या असा,
। |
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733 |
एक
भूमि असा खंचे धारण करता केन्ना भारू कर्ता समर्धन,
। |
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734 |
एक
भूमि असा कसली ती
विमुक्त कर्ता वर्धित भुके थकून;
। |
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735 |
पक्षाभेद अनी नाशाचे विवाद थकून विमुक्त जाव्न,
। |
||
736 |
उत्तम जाव्न सर्वै भूमिन्तु असा ते
कसले ना
वायिट कळचे,
। |
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737 |
पाव्सु अनी उदका झरियो अनी पर्वत असा हथाचे समीप ते,
। |
||
738 |
एक
राज्याचे आभरण असा यें,
क्षीणित जाव्नत्तिले आरोग्य । |
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739 |
ती असा एक भूमि ते उत्पति वर्धित कर्ता प्रयत्न करनत्तिले । |
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740 |
एक भूमि, तरि अनुग्रहीत जली अनेक विवथ दानान, । |
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अद्याय ७५ कोटे बंधूचे |
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741 |
एक
दुर्ग अस
चांग तांका कोणाक जुजता विजया खतीरि,
। |
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742 |
एक
दुर्ग असा ते
कित्याक असा स्त्रोतस्
स्पटिका मण्कि स्वच्छ जाव्न,
। |
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743 |
दिगायि,
विस्तार अनी शक्ति अनी कठिन पव्चे,
। |
||
744 |
एक
दुर्ग जाव्का आवश्य जाव्न जल्यारि अल्पमात्र परिक्षा,
जल्यारि निशब्दित,
। |
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745 |
एक
दुर्ग यथेष्ट आहारयुक्त
असा विजय मळचाक कठिन । |
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746 |
एक
दुर्ग असा ते
यथेष्ट आहार संभरित वितरण केलेले । |
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747 |
एक
दुर्ग मण्चे ते
किते असा तारणकरच्याक कठिन । |
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748 |
शत्रुंनि परिवेष्टितजलेले
असा जल्यारियि जाव्यात प्रयत्नकडचे विजयाक जाव्न, । |
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749 |
केन्ना युद्ध आरंभता,
एक
दुर्ग जाव्का शत्रूक पराजित करचाक,
। |
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750 |
कशि जाल्यारीयि कीर्ति पावले एक दुर्ग जाव्यात वयिरि येव्चे, । |
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अद्याय ७६ धन संग्रह करचे |
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751 |
कायिना असप्
जल्यारि ते
जाव्यात धनान जाव्न,
। |
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752 |
तांका कोणाक कयिना,
सर्वै कर्ता अवज्ञित,
। |
||
753 |
नाश जाव्नत्तिले धनाचे दीवो वता सर्वै दिकारि,
। |
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754 |
धन
ते
येता निर्दोषका वटेन अनी सामर्थ्यान । |
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755 |
धन
ते
मेळेले कसले स्नेह नत्तलि अथवा औदार्यान । |
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756 |
धन
अनधिकृत अनी ते
करंमाथकून,
। |
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757 |
अनुकंपा चेरडा स्नेहामण्कि जलेले असा;
। |
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758 |
पोळोव्चाक एक
हस्थीचे जुज तू
रबता ऊंच्छ एक
पर्वताचे;
। |
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759 |
संग्रह केलेले तुजे धन!
तुजे शत्रूले अंहकार समचि करचे,
। |
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760 |
कोण कठिन प्ररुतीन तागेले भाग्य प्राप्तकेले असा, । |
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अद्याय ७७ सैन्याचि शक्ति |
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761 |
एक
शक्ति विविध आयुध युक्त अनी भय
नत्तिले अनी विज्ञात असचे । |
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762 |
अभिमुख करचे एक
शत्रूक पराजयान्तु अभीत,
। |
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763 |
विन्दूर
जुजून
असचे
समुद्रा
मण्कि
गरजन
करताति; । |
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764 |
ना
पराजय अनी ना
सोडून रबप कळचे,
। |
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765 |
ती
एक
असा शक्ति कंची ताजे स्वकीय स्थानारि एकडे करता,
। |
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766 |
धैर्य,
अभिमान,
संप्रदाय अनी विश्वस्तता रायाले,
। |
|
767 |
एक
सैन्य चांग शिक्षण मेळेले युद्धाचे कलेन्तु,
। |
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768 |
ताजे वैदग्ध्य आक्रमणान्तु अथवा रक्षेक जाव्यात संशचाचेरि असून,
। |
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769 |
तरि हन्तु थकून दौर्बल्य,
भय
अनी दरिद्रता,
। |
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770 |
एक
विभाग सैनिकांगेले,
एक
सैन्य जाव्यात अधीन,
। |
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अद्याय ७८ सैनिक वीर्य |
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771 |
तू
शत्रु!
रबूनका मिजे धन्याले मुकारि!
तसले वैरि जाव्न!
। |
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772 |
भलो तो
चुकिलो एक
हस्तीक,
अदीक चांग करचे धारण । |
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773 |
युद्धान्तु,
धीरता दकेयता निश्चय शूरत्वाचे, । |
|
774 |
हस्तिचे मस्तकाचेरि ताजे शूल,
बलप्रयोग करता आयुदजाव्न । |
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775 |
निमीलन करचे ताजे कोळे केन्ना शत्रु मनुष्यु एक
कुंतं विक्षेपण करचे । |
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776 |
घाय तरि जाव्नत्तिले, तो कर्ता वास, । |
|
777 |
केन्नायि रबचि
कीर्ति
ते निमगिताति, निरपेक्षित तांगेले कर्ता जीविताचे, । |
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778 |
रायु कर्ता नियन्त्रण,
जल्यारि ते
तत्पर जाव्न असा विरोधान्तु,
। |
|
779 |
कोणाक जाव्यात तिरस्कार करचाक कोडवाणि येव्चे अवज्ञतेक,
। |
|
780 |
ताजे द्वंसन केलेल्याक तरि एक
रायान दोळ्या बाष्प सोडचे,
। |
|
अद्याय ७९ मित्रत्व |
||
781 |
कसले असा अतीव कठिन मित्रत्व मेळचाक जाव्न?
। |
|
782 |
चांग मनुष्याले मित्रत्व वडता अर्धचन्द्रकला मण्कि,
। |
|
783 |
अगाध
शिकवणेन, परमसुख मेळता, । |
|
784 |
खरे मित्रत्व संगचाक असचे नयि लघु हास्या खतीरि,
। |
|
785 |
नित्य संमिलनान मित्राभितरि,
ना
थयि आवश्य जाव्न, । |
|
786 |
तोंण्डाचे मंदहास,
खरे मित्रत्व जायना दकोव्चे,
। |
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787 |
नाशा थकून संरक्षण करचे,
सद्गुणाचे वटेन रकता, । |
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788 |
हाथ तशि ते
येता रक्षणाक केन्ना एकलाले अंगावेले वस्त्र पडता निसरुन,
। |
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789 |
खयि असा मित्रत्वाचो जागो?
ते
मन
असा । |
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790 |
तरि मनुष्य वांकाणसूचे असा परसपर,
ते
असा दिकचे । |
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अद्याय ८० मित्रांक वेंचून काडचे |
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791 |
असचे एक
क्षीणित जाव्नत्तिले मित्रु हडता नाश शीग्र जाव्न,
। |
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792 |
मित्रत्व केलेले स्नेह नत्तिले,
लभ्य जता,
। |
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793 |
स्वभाव,
जनन,
तागेली चूकि अनी सर्वै बांधव ताजे,
। |
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794 |
कुलीन जन्मालो,
लज्ज पाविलो आक्षेपाक अथवा दुराचारित
, । |
|
795 |
ते
जाव्यात तुजे वेंचून कडिले मित्र कोण चूकि अधिक्षेप करचे,
। |
|
796 |
दुरभाग्याकयि ताजे जाव्नु स्वकीय बहुमति असा,
। |
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797 |
मित्रत्व विढीगेलें असा व्यर्थ जाव्न,
। |
|
798 |
नका कडचे विचार ते
सान करता मनाक;
तरि ना
कडचे । |
|
799 |
कष्टाचे समयारि, मित्रं कोण सोडता, । |
|
800 |
मित्रत्व परिशुद्ध जाव्न असिले तुवे जाव्का आलिंगन करचे,
। |
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