Monday 20 June 2005

अध्याय 81 से 90



अध्याय 81. चिर-मैत्री


801
जो कुछ भी अधिकार से, करते हैं जन इष्ट ।
तिरस्कार बिन मानना, मैत्री कहो धनिष्ठ ॥


802
हक्र से करना कार्य है, मैत्री का ही अंग ।
फ़र्ज़ समझ सज्जन उसे, मानें सहित उमंग ॥


803
निज कृत सम जो मित्र का, साधिकार कृत काम ।
यदि स्वीकृत होता नहीं, चिर-मैत्री क्या काम ॥


804
पूछे बिन हक मान कर, मित्र करे यदि कार्य ।
वांछनीय गुण के लिये, मानें वह स्वीकार्य ॥


805
दुःखजनक यदि कार्य हैं, करते मित्र सुजान ।
अति हक़ या अज्ञान से, यों करते हैं जान ॥


806
चिरपरिचित घन मित्र से, यद्यपि हुआ अनिष्ट ।
मर्यादी छोडें नहीं, वह मित्रता धनिष्ठ ॥


807
स्नेही स्नेह-परंपरा, जो करते निर्वाह ।
मित्र करे यदि हानि भी, तज़ें न उसकी चाह ॥


808
मित्र-दोष को ना सुनें, ऐसे मित्र धनिष्ठ ।
मानें उस दिन को सफल, दोष करें जब इष्ट ॥


        809
अविच्छिन्न चिर-मित्रता, जो रखते हैं यार ।
उनका स्नेह तजें न जो, उन्हें करे जग प्यार ॥


        810
मैत्री का गुण पालते, चिरपरिचित का स्नेह ।
जो न तजें उस सुजन से, करें शत्रु भी स्नेह ॥

अध्याय 82. बुरी मैत्री


811
यद्यपि अतिशय मित्र सम, दिखते हैं गुणहीन ।
बढ़ने से वह मित्रता, अच्छा यदि हो क्षीण ॥


812
पा या खो कर क्या हुआ, अयोग्य का सौहार्द ।
जो मैत्री कर स्वार्थवश, तज दे जब नहिं स्वार्थ ॥


813
मित्र बने जो गणन कर, स्वार्थ-लाभ का मान ।
धन-गाहक गणिका तथा, चोर एक सा जान ॥


814
अनभ्यस्त हय युद्ध में, पटक चले ज्यों भाग ।
ऐसों के सौहार्द से, एकाकी बड़भाग ॥


815
तुच्छ मित्रता विपद में, जो देती न सहाय ।
ना होने में है भला, होने से भी, हाय ॥


816
अति धनिष्ठ बन मूर्ख का, हो जाने से इष्ट ।
समझदार की शत्रुता, लाखों गुणा वरिष्ठ ॥


817
हास्य-रसिक की मित्रता, करने से भी प्राप्त ।
भले बनें दस कोटि गुण, रिपु से जो हों प्राप्त ॥


818
यों असाध्य कह साध्य को, जो करता न सहाय ।
चुपके से उस ढोंग की, मैत्री छोड़ी जाय ॥


        819
कहना कुछ करना अलग, जिनकी है यह बान ।
उनकी मैत्री खायगी, सपने में भी जान ॥


        820
घर पर मैत्री पालते, सभा-मध्य धिक्कार ।
जो करते वे तनिक भी, निकट न आवें, यार ॥

अध्याय 83. कपट-मैत्री


821
अंतरंग मैत्री नहीं, पर केवल बहिरंग ।
अवसर पा वह पीटती, पकड़ निहाई ढ़ंग ।


822
बन्धु सदृश पर बन्धु नहिं, उनकी मैत्री-बान ।
है परिवर्तनशील ही, नारी-चित्त समान ॥


823
सद्ग्रंथों का अध्ययन, यद्यपि किया अनेक ।
शत्रु कभी होंगे नहीं, स्नेह-मना सविवेक ॥


824
मुख पर मधुर हँसी सहित, हृदय वैर से पूर ।
ऐसे लोगों से डरो, ये हैं वंचक कूर ॥


825
जिससे मन मिलता नहीं, उसका सुन वच मात्र ।
किसी विषय में मत समझ, उसे भरोसा पात्र ॥


826
यद्यपि बोलें मित्र सम, हितकर वचन गढ़ंत ।
शत्रु-वचन की व्यर्थता, होती प्रकट तुरंत ॥


827
सूचक है आपत्ति का, धनुष नमन की बान ।
सो रिपु-वचन-विनम्रता, निज हितकर मत जान ॥


828
जुड़े हाथ में शत्रु के, छिप रहता हथियार ।
वैसी ही रिपु की रही, रुदन-अश्रु-जल-धार ॥


        829
जो अति मैत्री प्रकट कर, मन में करता हास ।
खुश कर मैत्री भाव से, करना उसका नाश ॥


        830
शत्रु, मित्र जैसा बने, जब आवे यह काल ।
मुख पर मैत्री प्रकट कर, मन से उसे निकाल ॥

अध्याय 84. मूढ़ता


831
किसको कहना मूढ़ता, जो है दारुण दाग ।
हानिप्रद को ग्रहण कर, लाभप्रद का त्याग ॥


832
परम मूढ़ता मूढ़ में, जानो उसे प्रसिद्ध ।
उन सब में आसक्ति हो, जो हैं कर्म निषिद्ध ॥


833
निर्दयता, निर्लज्जता, निर्विचार का भाव ।
पोषण भी नहिं पोष्य का, ये हैं मूढ़ स्वभाव ॥


834
शास्त्रों का कर अध्यपन, अर्थ जानते गूढ़ ।
शिक्षक भी, पर नहिं वशी, उनसे बडा न मूढ़ ॥


835
सात जन्म जो यातना, मिले नरक के गर्त्त ।
मूढ़ एक ही में बना, लेने में सुसमर्थ ॥


836
प्रविधि-ज्ञान बिन मूढ़ यदि, शुरू करेगा काम ।
वह पहनेगा हथकड़ी, बिगड़ेगा ही काम ॥


837
जम जाये तो प्रचुर धन, अगर मूढ़ के पास ।
भोग करेंगे अन्य जन, परिजन तो उपवास ॥


838
लगना है संपत्ति का, एक मूढ़ के हस्त ।
पागल का होना यथा, ताड़ी पी कर मस्त ॥


        839
पीड़ा तो देती नहीं, जब होती है भंग ।
सो मूढ़ों की मित्रता, है अति मधुर प्रसंग ॥


        840
सुधी-सभा में मूढ़ का, घुसना है यों, ख़ैर ।
ज्यों रखना धोये बिना, स्वच्छ सेज पर पैर ॥

अध्याय 85. अहम्मन्य-मूढ़ता


841
सबसे बुरा अभाव है, सद्बुद्धि का अभाव ।
दुनिया अन्य अभाव को, नहिं मानती अभाव ॥


842
बुद्धिहीन नर हृदय से, करता है यदि दान ।
प्रातिग्राही का सुकृत वह, और नहीं कुछ जान ॥


843
जितनी पीड़ा मूढ़ नर, निज को देता आप ।
रिपु को भी संभव नहीं, देना उतना ताप ॥


844
हीन-बुद्धि किसको कहें, यदि पूछोगे बात ।
स्वयं मान हम हैं सुधी’, भ्रम में पड़ना ज्ञात ॥


845
अपठित में ज्यों पठित का, व्यंजित करना भाव ।
सुपठित में भी दोष बिन, जनमे संशय-भाध ॥


846
मिटा न कर निज दोष को, गोपन कर अज्ञान ।
ढकना पट से गुहय को, अल्प बुद्धि की बान ॥


847
प्रकट करे मतिहीन जो, अति सहस्य की बात ।
अपने पर खुद ही बड़ा, कर लेगा आघात ॥


848
समझाने पर ना करे, और न समझे आप ।
मरण समय तक जीव वह, रहा रोग-अभिशाप ॥


        849
समझाते नासमझ को, रहे नासमझ आप ।
समझदार सा नासमझ, स्वयं दिखेगा आप ॥


        850
जग जिसके अस्तित्व को, ‘हैकह लेता मान ।
जो न मानता वह रहा, जग में प्रेत समान ॥

अध्याय 86. विभेद


851
सब जीवों में फूट ही, कहते हैं बुध लोग ।
अनमिल-भाव-अनर्थ का, पोषण करता रोग ॥


852
कोई अनमिल भाव से, कर्म करे यदि पोच ।
अहित न करना है भला, भेद-भाव को सोच ॥


853
रहता है दुःखद बड़ा, भेद-भाव का रोग ।
उसके वर्जन से मिले, अमर कीर्तिका भोग ॥


854
दुःखों में सबसे बड़ा, है विभेद का दुःख ।
जब होता है नष्ट वह, होता सुख ही सुक्ख ॥


855
उठते देख विभेद को, हट कर रहे समर्थ ।
उसपर कौन समर्थ जो, सोचे जय के अर्थ ॥


856
भेद-वृद्धि से मानता, मिलता है आनन्द ।
जीवन उसका चूक कर, होगा नष्ट तुरन्त ॥


857
करते जो दुर्बुद्धि हैं, भेद-भाव से प्रति ।
तत्व-दर्श उनको नहीं, जो देता है जीत ॥


858
हट कर रहना भेद से, देता है संपत्ति ।
उससे अड़ कर जीतना, लाता पास विपत्ति ॥


        859
भेद-भाव नहिं देखता, तो होती संपत्ति ।
अधिक देखना है उसे, पाना है आपत्ति ॥


        860
होती हैं सब हानियाँ, भेद-भाव से प्राप्त ।
मैत्री से शुभ नीति का, उत्तम धन है प्राप्त ॥

अध्याय 87. शत्रुता-उत्कर्ष


861
बलवानों से मत भिड़ो, करके उनसे वैर ।
कमज़ोरों की शत्रुता, सदा चाहना ख़ैर ॥


862
प्रेम रहित निज बल रहित, सबल सहाय न पास ।
कर सकता है किस तरह, शत्रु शक्ति का नाश ॥


863
अनमिल है कंजूस है, कायर और अजान ।
उसपर जय पाना रहा, रिपु को अति आसान ॥


864
क्रोधी हो फिर हृदय से, जो दे भेद निकाल ।
उसपर जय सबको सुलभ, सब थल में, सब काल ॥


865
नीतिशास्त्र जो ना पढे, विधिवत् करे न काम ।
दुर्जन निंदा-भय-रहित, रिपु हित है सुख-धाम ॥


866
जो रहता क्रोधान्ध है, कामी भी अत्यन्त ।
है उसका शत्रुत्व तो, वांछनीय सानन्द ॥


867
करके कार्यारम्भ जो, करता फिर प्रतिकूल ।
निश्चय उसकी शत्रुता, करना दे भी मूल ॥


868
गुणविहीन रहते हुए, यदि हैं भी बहुदोष ।
तो है वह साथी रहित, रिपु को है संतोष ॥


        869
यदि वैरी कायर तथा, नीतिशास्त्र अज्ञात ।
उनसे भिड़ते, उच्च सुख, छोड़ेंगे नहिं साथ ॥


        870
अनपढ़ की कर शत्रुता, लघुता से जय-लाभ ।
पाने में असमर्थ जो, उसे नहीं यश-लाभ ॥

अध्याय 88. सत्रु-शक्ति का ज्ञान


871
रिपुता नामक है वही, असभ्यता-अवगाह ।
हँसी-मज़े में भी मनुज, उसकी करे न चाह ॥


872
धनु-हल-धारी कृषक से, करो भले ही वैर ।
वाणी-हल-धर कृषक से, करना छोड़ो वैर ॥


873
एकाकी रह जो करे, बहुत जनों से वैर ।
पागल से बढ़ कर रहा, बुद्धिहीन वह, खैर ॥


874
मित्र बना कर शत्रु को, जो करता व्यवहार ।
महिमा पर उस सभ्य की, टिकता है संसार ॥


875
अपना तो साथी नहीं, रिपु हैं दो, खुद एक ।
तो उनमें से ले बना, उचित सहायक एक ॥


876
पूर्व-ज्ञात हो परख कर, अथवा हा अज्ञात् ।
नाश-काल में छोड़ दो, शत्रु-मित्रता बात ॥


877
दुःख न कह उस मित्र से, यदि खुद उसे न ज्ञात ।
प्रकट न करना शत्रु से, कमज़ोरी की बात ॥


878
ढ़ंग समझ कर कर्म का, निज बल को कर चंड ।
अपनी रक्षा यदि करे, रिपु का मिटे घमंड ॥


        879
जब पौधा है काटना, जो तरु कांटेदार ।
बढ़ने पर घायल करे, छेदक का कर दार ॥


        880
जो रिपुओं के दर्प का, कर सकते नहिं नाश ।
निश्चय रिपु के फूँकते, होता उनका नाश ॥

अध्याय 89. अन्तवैंर


881
छाया, जल भी हैं बुरे, जब करते हैं हानि ।
स्वजन-भाव भी हैं बुरे, यदि देते हैं ग्लानि ॥


882
डरना मत उस शत्रु से, जो है खड्ग समान ।
डर उस रिपु के मेल से, जो है मित्र समान ॥


883
बचना अन्त: शत्रु से, उनके खा कर त्रास ।
मिट्टी-छेदक ज्यों करें, थका देख वे नाश ॥


884
मन में बिना लगाव के, यदि हो अन्तवैंर ।
बन्धु-भेद-कारक कई, करता है वह गैर ॥


885
यदि होता बन्धुत्व में, कोई अन्तवैंर ।
मृत्युजनक जो सो कई, करता है वह गैर ॥


886
आश्रित लोगों से निजी, यदि होता है वैर ।
सदा असंभव तो रहा, बचना नाश-बगैर ॥


887
डब्बा-ढक्कन योग सम, रहने पर भी मेल ।
गृह में अन्तवैंर हो, तो होगा नहिं मेल ॥


888
रेती से घिस कर यथा, लोहा होता क्षीण ।
गृह भी अन्तवैंर से, होता है बलहीन ॥


        889
अति छोटा ही क्यों न हो, तिल में यथा दरार ।
फिर भी अन्तवैंर तो, है ही विनाशकार ॥


        890
जिनसे मन मिलता नहीं, जीवन उनके संग ।
एक झोंपड़ी में यथा, रहना सहित भुजंग ॥

अध्याय 90. बड़ों का उपचार करना


891
सक्षम की करना नहीं, क्षमता का अपमान ।
रक्षा हित जो कार्य हैं, उनमें यही महान ॥


892
आदर न कर महान का, करे अगर व्यवहार ।
होगा उसे महान से, दारुण दुःख अपार ॥


893
करने की सामर्थ्य है, जब चाहें तब नाश ।
उनका अपचारी बनो, यदि चाहो निज नाश ॥


894
करना जो असमर्थ का, समर्थ का नुक़सान ।
है वह यम को हाथ से, करना ज्यों आह्वान ॥


895
जो पराक्रमी भूप के, बना कोप का पात्र ।
बच कर रह सकता कहाँ, कहीं न रक्षा मात्र ॥


896
जल जाने पर आग से, बचना संभव जान ।
बचता नहीं महान का, जो करता अपमान ॥


897
तप:श्रेष्ठ हैं जो महा, यदि करते हैं कोप ।
क्या हो धन संपत्ति की, और विभव की ओप ॥


898
जो महान हैं  अचल सम, करते अगर विचार ।
जग में शाश्वत सम धनी, मिटता सह परिवार ॥


        899
उत्तम व्रतधारी अगर, होते हैं नाराज ।
मिट जायेगा इन्द्र भी, गँवा बीच में राज ॥


        900
तप:श्रेष्ठ यदि क्रुद्ध हों, रखते बडा प्रभाव ।
रखते बड़े सहाय भी, होता नहीं बचाव ॥

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