अध्याय 81. चिर-मैत्री
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801
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जो कुछ भी अधिकार से, करते हैं
जन इष्ट ।
तिरस्कार बिन मानना, मैत्री
कहो धनिष्ठ ॥
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802
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हक्र से करना कार्य है, मैत्री
का ही अंग ।
फ़र्ज़ समझ सज्जन उसे, मानें
सहित उमंग ॥
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803
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निज कृत सम जो मित्र का, साधिकार
कृत काम ।
यदि स्वीकृत होता नहीं, चिर-मैत्री
क्या काम ॥
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804
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पूछे बिन हक मान कर, मित्र
करे यदि कार्य ।
वांछनीय गुण के लिये, मानें
वह स्वीकार्य ॥
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805
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दुःखजनक यदि कार्य हैं, करते मित्र
सुजान ।
अति हक़ या अज्ञान से, यों करते
हैं जान ॥
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806
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चिरपरिचित घन मित्र से, यद्यपि
हुआ अनिष्ट ।
मर्यादी छोडें नहीं, वह मित्रता
धनिष्ठ ॥
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807
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स्नेही स्नेह-परंपरा, जो करते
निर्वाह ।
मित्र करे यदि हानि भी, तज़ें न
उसकी चाह ॥
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808
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मित्र-दोष को ना सुनें, ऐसे मित्र
धनिष्ठ ।
मानें उस दिन को सफल, दोष करें
जब इष्ट ॥
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809
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अविच्छिन्न चिर-मित्रता, जो रखते
हैं यार ।
उनका स्नेह तजें न जो, उन्हें
करे जग प्यार ॥
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810
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मैत्री का गुण पालते, चिरपरिचित
का स्नेह ।
जो न तजें उस सुजन से, करें शत्रु
भी स्नेह ॥
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अध्याय 82. बुरी मैत्री
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811
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यद्यपि अतिशय मित्र सम, दिखते
हैं गुणहीन ।
बढ़ने से वह मित्रता, अच्छा
यदि हो क्षीण ॥
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812
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पा या खो कर क्या हुआ, अयोग्य
का सौहार्द ।
जो मैत्री कर स्वार्थवश, तज दे
जब नहिं स्वार्थ ॥
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813
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मित्र बने जो गणन कर, स्वार्थ-लाभ का
मान ।
धन-गाहक गणिका तथा, चोर एक
सा जान ॥
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814
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अनभ्यस्त हय युद्ध में, पटक चले
ज्यों भाग ।
ऐसों के सौहार्द से, एकाकी
बड़भाग ॥
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815
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तुच्छ मित्रता विपद में, जो देती
न सहाय ।
ना होने में है भला, होने से
भी, हाय ॥
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816
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अति धनिष्ठ बन मूर्ख का, हो जाने
से इष्ट ।
समझदार की शत्रुता, लाखों
गुणा वरिष्ठ ॥
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817
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हास्य-रसिक की मित्रता, करने से
भी प्राप्त ।
भले बनें दस कोटि गुण, रिपु से
जो हों प्राप्त ॥
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818
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यों असाध्य कह साध्य को, जो करता
न सहाय ।
चुपके से उस ढोंग की, मैत्री
छोड़ी जाय ॥
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819
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कहना कुछ करना अलग, जिनकी
है यह बान ।
उनकी मैत्री खायगी, सपने में
भी जान ॥
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820
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घर पर मैत्री पालते, सभा-मध्य धिक्कार
।
जो करते वे तनिक भी, निकट न
आवें, यार ॥
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अध्याय 83. कपट-मैत्री
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821
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अंतरंग मैत्री नहीं, पर केवल
बहिरंग ।
अवसर पा वह पीटती, पकड़ निहाई
ढ़ंग ।
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822
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बन्धु सदृश पर बन्धु नहिं, उनकी मैत्री-बान ।
है परिवर्तनशील ही, नारी-चित्त
समान ॥
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823
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सद्ग्रंथों का अध्ययन, यद्यपि
किया अनेक ।
शत्रु कभी होंगे नहीं, स्नेह-मना सविवेक
॥
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824
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मुख पर मधुर हँसी सहित, हृदय वैर
से पूर ।
ऐसे लोगों से डरो, ये हैं
वंचक कूर ॥
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825
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जिससे मन मिलता नहीं, उसका सुन
वच मात्र ।
किसी विषय में मत समझ, उसे भरोसा
पात्र ॥
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826
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यद्यपि बोलें मित्र सम, हितकर
वचन गढ़ंत ।
शत्रु-वचन की व्यर्थता, होती प्रकट
तुरंत ॥
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827
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सूचक है आपत्ति का, धनुष नमन
की बान ।
सो रिपु-वचन-विनम्रता, निज हितकर
मत जान ॥
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828
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जुड़े हाथ में शत्रु के, छिप रहता
हथियार ।
वैसी ही रिपु की रही, रुदन-अश्रु-जल-धार ॥
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829
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जो अति मैत्री प्रकट कर, मन में
करता हास ।
खुश कर मैत्री भाव से, करना उसका
नाश ॥
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830
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शत्रु, मित्र जैसा बने, जब आवे
यह काल ।
मुख पर मैत्री प्रकट कर, मन से
उसे निकाल ॥
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अध्याय 84. मूढ़ता
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831
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किसको कहना मूढ़ता, जो है
दारुण दाग ।
हानिप्रद को ग्रहण कर, लाभप्रद
का त्याग ॥
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832
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परम मूढ़ता मूढ़ में, जानो उसे
प्रसिद्ध ।
उन सब में आसक्ति हो, जो हैं
कर्म निषिद्ध ॥
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833
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निर्दयता, निर्लज्जता, निर्विचार
का भाव ।
पोषण भी नहिं पोष्य का, ये हैं
मूढ़ स्वभाव ॥
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834
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शास्त्रों का कर अध्यपन, अर्थ जानते
गूढ़ ।
शिक्षक भी, पर नहिं वशी, उनसे बडा
न मूढ़ ॥
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835
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सात जन्म जो यातना, मिले नरक
के गर्त्त ।
मूढ़ एक ही में बना, लेने में
सुसमर्थ ॥
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836
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प्रविधि-ज्ञान बिन मूढ़ यदि, शुरू करेगा
काम ।
वह पहनेगा हथकड़ी, बिगड़ेगा
ही काम ॥
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837
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जम जाये तो प्रचुर धन, अगर मूढ़
के पास ।
भोग करेंगे अन्य जन, परिजन
तो उपवास ॥
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838
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लगना है संपत्ति का, एक मूढ़
के हस्त ।
पागल का होना यथा, ताड़ी पी
कर मस्त ॥
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839
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पीड़ा तो देती नहीं, जब होती
है भंग ।
सो मूढ़ों की मित्रता, है अति
मधुर प्रसंग ॥
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840
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सुधी-सभा में मूढ़ का, घुसना
है यों, ख़ैर ।
ज्यों रखना धोये बिना, स्वच्छ
सेज पर पैर ॥
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अध्याय 85. अहम्मन्य-मूढ़ता
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841
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सबसे बुरा अभाव है, सद्बुद्धि
का अभाव ।
दुनिया अन्य अभाव को, नहिं मानती
अभाव ॥
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842
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बुद्धिहीन नर हृदय से, करता है
यदि दान ।
प्रातिग्राही का सुकृत वह, और नहीं
कुछ जान ॥
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843
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जितनी पीड़ा मूढ़ नर, निज को
देता आप ।
रिपु को भी संभव नहीं, देना उतना
ताप ॥
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844
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हीन-बुद्धि किसको कहें, यदि पूछोगे
बात ।
स्वयं मान ‘हम हैं सुधी’, भ्रम में
पड़ना ज्ञात ॥
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845
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अपठित में ज्यों पठित का, व्यंजित
करना भाव ।
सुपठित में भी दोष बिन, जनमे संशय-भाध ॥
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846
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मिटा न कर निज दोष को, गोपन कर
अज्ञान ।
ढकना पट से गुहय को, अल्प बुद्धि
की बान ॥
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847
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प्रकट करे मतिहीन जो, अति सहस्य
की बात ।
अपने पर खुद ही बड़ा, कर लेगा
आघात ॥
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848
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समझाने पर ना करे, और न समझे
आप ।
मरण समय तक जीव वह, रहा रोग-अभिशाप
॥
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849
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समझाते नासमझ को, रहे नासमझ
आप ।
समझदार सा नासमझ, स्वयं
दिखेगा आप ॥
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850
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जग जिसके अस्तित्व को, ‘है’ कह लेता
मान ।
जो न मानता वह रहा, जग में
प्रेत समान ॥
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अध्याय 86. विभेद
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851
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सब जीवों में फूट ही, कहते हैं
बुध लोग ।
अनमिल-भाव-अनर्थ
का, पोषण करता रोग ॥
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852
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कोई अनमिल भाव से, कर्म करे
यदि पोच ।
अहित न करना है भला, भेद-भाव को
सोच ॥
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853
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रहता है दुःखद बड़ा, भेद-भाव का
रोग ।
उसके वर्जन से मिले, अमर कीर्तिका
भोग ॥
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854
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दुःखों में सबसे बड़ा, है विभेद
का दुःख ।
जब होता है नष्ट वह, होता सुख
ही सुक्ख ॥
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855
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उठते देख विभेद को, हट कर
रहे समर्थ ।
उसपर कौन समर्थ जो, सोचे जय
के अर्थ ॥
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856
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भेद-वृद्धि से मानता, मिलता
है आनन्द ।
जीवन उसका चूक कर, होगा नष्ट
तुरन्त ॥
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857
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करते जो दुर्बुद्धि हैं, भेद-भाव से
प्रति ।
तत्व-दर्श उनको नहीं, जो देता
है जीत ॥
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858
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हट कर रहना भेद से, देता है
संपत्ति ।
उससे अड़ कर जीतना, लाता पास
विपत्ति ॥
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859
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भेद-भाव नहिं देखता, तो होती
संपत्ति ।
अधिक देखना है उसे, पाना है
आपत्ति ॥
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860
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होती हैं सब हानियाँ, भेद-भाव से
प्राप्त ।
मैत्री से शुभ नीति का, उत्तम
धन है प्राप्त ॥
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अध्याय 87. शत्रुता-उत्कर्ष
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861
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बलवानों से मत भिड़ो, करके उनसे
वैर ।
कमज़ोरों की शत्रुता, सदा चाहना
ख़ैर ॥
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862
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प्रेम रहित निज बल रहित, सबल सहाय
न पास ।
कर सकता है किस तरह, शत्रु
शक्ति का नाश ॥
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863
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अनमिल है कंजूस है, कायर और
अजान ।
उसपर जय पाना रहा, रिपु को
अति आसान ॥
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864
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क्रोधी हो फिर हृदय से, जो दे
भेद निकाल ।
उसपर जय सबको सुलभ, सब थल
में, सब काल ॥
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865
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नीतिशास्त्र जो ना पढे, विधिवत्
करे न काम ।
दुर्जन निंदा-भय-रहित, रिपु हित
है सुख-धाम ॥
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866
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जो रहता क्रोधान्ध है, कामी भी
अत्यन्त ।
है उसका शत्रुत्व तो, वांछनीय
सानन्द ॥
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867
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करके कार्यारम्भ जो, करता फिर
प्रतिकूल ।
निश्चय उसकी शत्रुता, करना दे
भी मूल ॥
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868
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गुणविहीन रहते हुए, यदि हैं
भी बहुदोष ।
तो है वह साथी रहित, रिपु को
है संतोष ॥
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869
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यदि वैरी कायर तथा, नीतिशास्त्र
अज्ञात ।
उनसे भिड़ते, उच्च सुख, छोड़ेंगे
नहिं साथ ॥
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870
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अनपढ़ की कर शत्रुता, लघुता
से जय-लाभ ।
पाने में असमर्थ जो, उसे नहीं
यश-लाभ ॥
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अध्याय 88. सत्रु-शक्ति का ज्ञान
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871
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रिपुता नामक है वही, असभ्यता-अवगाह
।
हँसी-मज़े में भी मनुज, उसकी करे
न चाह ॥
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872
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धनु-हल-धारी कृषक से, करो भले
ही वैर ।
वाणी-हल-धर कृषक से, करना छोड़ो वैर ॥
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873
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एकाकी रह जो करे, बहुत जनों
से वैर ।
पागल से बढ़ कर रहा, बुद्धिहीन
वह, खैर ॥
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874
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मित्र बना कर शत्रु को, जो करता
व्यवहार ।
महिमा पर उस सभ्य की, टिकता
है संसार ॥
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875
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अपना तो साथी नहीं, रिपु हैं
दो, खुद एक ।
तो उनमें से ले बना, उचित सहायक
एक ॥
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876
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पूर्व-ज्ञात हो परख कर, अथवा हा
अज्ञात् ।
नाश-काल में छोड़ दो, शत्रु-मित्रता
बात ॥
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877
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दुःख न कह उस मित्र से, यदि खुद
उसे न ज्ञात ।
प्रकट न करना शत्रु से, कमज़ोरी
की बात ॥
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878
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ढ़ंग समझ कर कर्म का, निज बल
को कर चंड ।
अपनी रक्षा यदि करे, रिपु का
मिटे घमंड ॥
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879
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जब पौधा है काटना, जो तरु
कांटेदार ।
बढ़ने पर घायल करे, छेदक का
कर दार ॥
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880
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जो रिपुओं के दर्प का, कर सकते
नहिं नाश ।
निश्चय रिपु के फूँकते, होता उनका
नाश ॥
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अध्याय 89. अन्तवैंर
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881
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छाया, जल भी हैं बुरे, जब करते
हैं हानि ।
स्वजन-भाव भी हैं बुरे, यदि देते
हैं ग्लानि ॥
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882
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डरना मत उस शत्रु से, जो है
खड्ग समान ।
डर उस रिपु के मेल से, जो है
मित्र समान ॥
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883
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बचना अन्त: शत्रु से, उनके खा
कर त्रास ।
मिट्टी-छेदक ज्यों करें, थका देख
वे नाश ॥
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884
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मन में बिना लगाव के, यदि हो
अन्तवैंर ।
बन्धु-भेद-कारक कई, करता है
वह गैर ॥
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885
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यदि होता बन्धुत्व में, कोई अन्तवैंर
।
मृत्युजनक जो सो कई, करता है
वह गैर ॥
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886
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आश्रित लोगों से निजी, यदि होता
है वैर ।
सदा असंभव तो रहा, बचना नाश-बगैर ॥
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887
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डब्बा-ढक्कन योग सम, रहने पर
भी मेल ।
गृह में अन्तवैंर हो, तो होगा
नहिं मेल ॥
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888
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रेती से घिस कर यथा, लोहा होता
क्षीण ।
गृह भी अन्तवैंर से, होता है
बलहीन ॥
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889
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अति छोटा ही क्यों न हो, तिल में
यथा दरार ।
फिर भी अन्तवैंर तो, है ही
विनाशकार ॥
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890
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जिनसे मन मिलता नहीं, जीवन उनके
संग ।
एक झोंपड़ी में यथा, रहना सहित
भुजंग ॥
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अध्याय 90. बड़ों का उपचार न करना
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891
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सक्षम की करना नहीं, क्षमता
का अपमान ।
रक्षा हित जो कार्य हैं, उनमें
यही महान ॥
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892
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आदर न कर महान का, करे अगर
व्यवहार ।
होगा उसे महान से, दारुण
दुःख अपार ॥
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893
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करने की सामर्थ्य है, जब चाहें
तब नाश ।
उनका अपचारी बनो, यदि चाहो
निज नाश ॥
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894
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करना जो असमर्थ का, समर्थ
का नुक़सान ।
है वह यम को हाथ से, करना ज्यों
आह्वान ॥
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895
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जो पराक्रमी भूप के, बना कोप
का पात्र ।
बच कर रह सकता कहाँ, कहीं न
रक्षा मात्र ॥
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896
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जल जाने पर आग से, बचना संभव
जान ।
बचता नहीं महान का, जो करता
अपमान ॥
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897
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तप:श्रेष्ठ हैं जो महा, यदि करते
हैं कोप ।
क्या हो धन संपत्ति की, और विभव
की ओप ॥
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898
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जो महान हैं अचल सम, करते अगर
विचार ।
जग में शाश्वत सम धनी, मिटता
सह परिवार ॥
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899
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उत्तम व्रतधारी अगर, होते हैं
नाराज ।
मिट जायेगा इन्द्र भी, गँवा बीच
में राज ॥
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900
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तप:श्रेष्ठ यदि क्रुद्ध हों, रखते बडा
प्रभाव ।
रखते बड़े सहाय भी, होता नहीं
बचाव ॥
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