Tuesday, 21 June 2005

अध्याय 21 से 30



अध्याय 21. पाप-भीरुता


201
पाप-कर्म के मोह से, डरें न पापी लोग ।
उससे डरते हैं वही, पुण्य-पुरुष जो लोग ॥


202
पाप- कर्म दुखजनक हैं, यह है उनकी रीत ।
पावक से भीषण समझ, सो होना भयभीत ॥


203
श्रेष्ठ बुद्धिमत्ता कहें, करके सुधी विचार ।
अपने रिपु का भी कभी, नहिं करना अपकार ॥


204
विस्मृति से भी नर नहीं, सोचे पर की हानि ।
यदि सोचे तो धर्म भी, सोचे उसकी हानि ॥


205
निर्धन हूँ मैं’, यों समझ, करे न कोई पाप ।
अगर किया तो फिर मिले, निर्धनता-अभिशाप ॥


206
दुख से यदि दुष्कर्म के, बचने की है राय ।
अन्यों के प्रति दुष्टता, कभी नहीं की जाय ॥


207
अति भयकारी शत्रु से, संभव है बच जाय ।
पाप-कर्म की शत्रुता, पीछा किये सताय ॥


208
दुष्ट- कर्म जो भी करे, यों पायेगा नाश ।
छोड़े बिन पौरों तले, छाँह करे ज्यों वास ॥


209
कोई अपने आपको, यदि करता है प्यार ।
करे नहीं अत्यल्प भी, अन्यों का अपचार ॥


210
नाशरहित उसको समझ, जो तजकर सन्मार्ग ।
पाप-कर्म हो नहिं करे, पकड़े नहीं कुमार्ग ॥

अध्याय 22. लोकोपकारिता


211
उपकारी नहिं चाहते, पाना प्रत्युपकार ।
बादल को बदला भला, क्या देता संसार ॥


212
बहु प्रयत्न से जो जुड़ा, योग्य व्यक्ति के पास ।
लोगों के उपकार हित, है वह सब धन-रास ॥


213
किया भाव निष्काम से, जनोपकार समान ।
स्वर्ग तथा भू लोक में दुष्कर जान ॥


214
ज्ञाता शिष्टाचार का, है मनुष्य सप्राण ॥
मृत लोगों में अन्य की, गिनती होती जान ॥


215
पानी भरा तड़ाग ज्यों, आवे जग का काम ।
महा सुधी की संपदा, है जन-मन-सुख धाम ॥


216
शिष्ट जनों के पास यदि, आश्रित हो संपत्ति ।
ग्राम-मध्य ज्यों वृक्षवर, पावे फल-संपत्ति ॥


217
चूके बिन ज्यों वृक्ष का, दवा बने हर अंग ।
त्यों धन हो यदि वह रहे, उपकारी के संग ॥


218
सामाजिक कर्तव्य का, जिन सज्जन को ज्ञान ।
उपकृति से नहिं चूकते, दारिदवश भी जान ॥


219
उपकारी को है नहीं, दरिद्रता की सोच ।
मैं कृतकृत्य नहीं हुआउसे यही संकोच ॥


220
लोकोपकारिता किये, यदि होगा ही नाश ।
अपने को भी बेच कर, क्रय-लायक वह नाश ॥

अध्याय 23. दान


221
देना दान गरीब को, है यथार्थ में दान ।
प्रत्याशा प्रतिदान की, है अन्य में निदान ॥


222
मोक्ष-मार्ग ही क्यों न हो, दान- ग्रहण अश्रेय ।
यद्यपि मोक्ष नहीं मिले, दान-धर्म ही श्रेय ॥


223
दीन-हीन हूँना कहे, करता है यों दान ।
केवल प्राप्य कुलीन में, ऐसी उत्तम बान ॥


224
याचित होने की दशा, तब तक रहे विषण्ण ।
जब तक याचक का वदन, होगा नहीं प्रसन्न ॥


225
क्षुधा-नियन्त्रण जो रहा, तपोनिष्ठ की शक्ति ।
क्षुधा-निवारक शक्ति के, पीछे ही वह शक्ति ॥


226
नाशक-भूक दरिद्र की, कर मिटा कर दूर ।
वह धनिकों को चयन हित, बनता कोष ज़रूर ॥


227
भोजन को जो बाँट कर, किया करेगा भोग ।
उसे नहीं पीड़ित करे, क्षुधा भयंकर रोग ॥


228
धन-संग्रह कर खो रहा, जो निर्दय धनवान ।
दे कर होते हर्ष का, क्या उसको नहिं ज्ञान ॥


229
स्वयं अकेले जीमना, पूर्ति के हेतु ।
याचन करने से अधिक, निश्चय दुख का हेतु ॥


230
मरने से बढ़ कर नहीं, दुख देने के अर्थ ।
सुखद वही जब दान में, देने को असमर्थ ॥

अध्याय 24. कीर्ति


231
देना दान गरिब को, जीना कर यश-लाभ ।
इससे बढ़ कर जीव को, और नहीं है लाभ ॥


232
करता है संसार तो, उसका ही गुण-गान ।
याचक को जो दान में, कुछ भी करें प्रदान ॥


233
टिकती है संसार में, अनुपम कीर्ति महान ।
अविनाशी केवल वही, और न कोई जान ॥


234
यदि कोई भूलोक में, पाये कीर्ति महान ।
देवलोक तो ना करें, ज्ञानी का गुण-गान ॥


235
ह्रास बने यशवृद्धिकर, मृत्यु बने अमरत्व ।
ज्ञानवान बिन और में, संभव न यह महत्व ॥


236
जन्मा तो यों जन्म हो, जिसमें होवे नाम ।
जन्म न होना है भला, यदि न कमाया नाम ॥


237
कीर्तिमान बन ना जिया, कुढ़ता स्वयं न आप ।
निन्दक पर कुढ़ते हुए, क्यों होता है ताप ॥


238
यदि नहिं मिली परंपरा, जिसका है यश नाम ।
तो जग में सब के लिये, वही रहा अपनाम ॥


239
कीर्तिहीन की देह का, भू जब ढोती भार ।
पावन प्रभूत उपज का, क्षय होता निर्धार ॥


240
निन्दा बिन जो जी रहा, जीवित वही सुजान ।
कीर्ति बिना जो जी रहा, उसे मरा ही जान ॥

अध्याय 25. दयालुता


241
सर्व धनों में श्रेष्ठ है, दयारूप संपत्ति ।
नीच जनों के पास भी, है भौतिक संपत्ति ॥


242
सत्-पथ पर चल परख कर, दयाव्रती बन जाय ।
धर्म-विवेचन सकल कर, पाया वही सहाय ॥


243
अन्धकारमय नरक है, जहाँ न सुख लवलेश ।
दयापूर्ण का तो वहाँ, होता नहीं प्रवेश ॥


244
सब जीवों को पालते, दयाव्रती जो लोग ।
प्राण-भयंकर पाप का, उन्हें न होगा योग ॥


245
दुःख- दर्द उनको नहीं, जो है दयानिधान ।
पवन संचरित उर्वरा, महान भूमि प्रमाण ॥


246
जो निर्दय हैं पापरत, यों कहते धीमान ।
तज कर वे पुरुषार्थ को, भूले दुःख महान ॥


247
प्राप्य नहीं धनरहित को, ज्यों इहलौकिक भोग ।
प्राप्य नहीं परलोक का, दयारहित को योग ॥


248
निर्धन भी फूले-फले, स्यात् धनी बन जाय ।
निर्दय है निर्धन सदा, काया पलट न जाय ॥


249
निर्दय-जन-कृत सुकृत पर, अगर विचारा जाय ।
तत्व-दर्श ज्यों अज्ञ का, वह तो जाना जाय ॥


250
रोब जमाते निबल पर, निर्दय करे विचार ।
अपने से भी प्रभल के, सम्मुख खुद लाचार ॥

अध्याय 26. माँस- वर्जन


251
माँस-वृद्धि अपनी समझ, जो खाता पर माँस ।
कैसे दयार्द्रता-सुगुण, रहता उसके पास ॥


252
धन का भोग उन्हें नहीं, जो न करेंगे क्षेम ।
माँसाहारी को नहीं, दयालुता का नेम ॥


253
ज्यों सशस्त्र का मन कभी, होता नहीं दयाल ।
रुच रुच खावे माँस जो, उसके मन का हाल ॥


254
निर्दयता है जीववध. दया अहिंसा धर्म ।
करना माँसाहार है, धर्म हीन दुष्कर्म ॥


255
रक्षण है सब जीव का, वर्जन करना माँस ।
बचे नरक से वह नहीं, जो खाता है माँस ॥


256
वध न करेंगे लोग यदि, करने को आहार ।
आमिष लावेगा नहीं, कोई विक्रयकार ॥


257
आमिष तो इक जन्तु का, व्रण है यों सुविचार ।
यदि होगा तो चाहिए, तजना माँसाहार ॥


258
जीव-हनन से छिन्न जो, मृत शरीर है माँस ।
दोषरहित तत्वज्ञ तो, खायेंगे नहिं माँस ॥


259
यज्ञ हज़रों क्या किया, दे दे हवन यथेष्ट ।
किसी जीव को हनन कर, माँस न खाना श्रेष्ठ ॥


        260
जो न करेगा जीव-वध, और न माँसाहार ।
हाथ जोड़ सारा जगत, करता उसे जुहार ॥

अध्याय 27. तप


261
तप नियमों को पालते, सहना कष्ट महान ।
जीव-हानि-वर्जन तथा, तप का यही निशान ॥


262
तप भी बस उनका रहा, जिनको है वह प्राप्त ।
यत्न वृथा उसके लिये, यदि हो वह अप्राप्त ॥


263
भोजनादि उपचार से, तपसी सेवा-धर्म ।
करने हित क्या अन्य सब, भूल गये तप-कर्म ॥


264
दुखदायी रिपु का दमन, प्रिय जन क उत्थान ।
स्मरण मात्र से हो सके, तप के बल अम्लान ॥


265
तप से सब कुछ प्राप्य हैं, जो चाहे जिस काल ।
इससे तप-साधन यहाँ, करना है तत्काल ॥


266
वही पुरुष कृतकृत्य है, जो करता तप-कर्म ।
करें कामवश अन्य सब, स्वहानिकारक कर्म ॥


267
तप तप कर ज्यों स्वर्ण की, होती निर्मल कान्ति ।
तपन ताप से ही तपी, चमक उठें उस भाँति ॥


268
आत्म-बोध जिनको हुआ, करके वश निज जीव ।
उनको करते वंदना, शेष जगत के जीव ॥


269
जिस तपसी को प्राप्त है, तप की शक्ति महान ।
यम पर भी उसकी विजय, संभव है तू जान ॥


        270
निर्धन जन-गणना अधिक, इसका कौन निदान ।
तप नहिं करते बहुत जन, कम हैं तपोनिधान ॥

अध्याय 28. मिथ्याचार


271
वंचक के आचार को, मिथ्यापूर्ण विलोक ।
पाँचों भूत शरीरगत, हँस दे मन में रोक ॥


272
उच्च गगन सम वेष तो, क्या आवेगा काम ।
समझ- बूंझ यदि मन करे, जो है दूषित काम ॥


273
महा साधु का वेष धर, दमन-शक्ति नहिं, हाय ।
व्याघ्र-चर्म आढे हुए, खेत चरे ज्यों गाय ॥


274
रहते तापस भेस में, करना पापाचार ।
झाड़-आड़ चिड़िहार ज्यों, पंछी पकड़े मार ॥


275
हूँ विरक्तकह जो मनुज, करता मिथ्याचार ।
कष्ट अनेकों हों उसे, स्वयं करे धिक्कार ॥


276
मोह-मुक्त मन तो नहीं, है निर्मम की बान ।
मिथ्याचारी के सदृश, निष्ठुर नहीं महान ॥


277
बाहर से है लालिमा, हैं घुंघची समान ।
उसका काला अग्र सम, अन्दर है अज्ञान ॥


278
नहा तीर्थ में ठाट से, रखते तापस भेस ।
मित्थ्याचारी हैं बहुत, हृदय शुद्ध नहिं लेश ॥


279
टेढ़ी वीणा है मधुर, सीधा तीर कठोर ।
वैसे ही कृति से परख, किसी साधु की कोर ॥


280
साधक ने यदि तज दिया, जग-निन्दित सब काम ।
उसको मुंडा या जटिल, बनना है बेकाम ॥

अध्याय 29. अस्तेय


281
निन्दित जीवन से अगर, इच्छा है बच जाय ।
चोरी से पर-वस्तु की, हृदय बचाया जाय ॥


282
चोरी से पर-संपदा, पाने का कुविचार ।
लाना भी मन में बुरा, है यह पापाचार ॥


283
चोरी-कृत धन में रहे, बढ़्ने का आभास ।
पर उसका सीमारहित, होता ही है नाश ॥


284
चोरी के प्रति लालसा, जो होती अत्यन्त ।
फल पोने के समय पर, देती दुःख अनन्त ॥


285
है गफलत की ताक में, पर-धन की है चाह ।
दयाशीलता प्रेम की, लोभ न पकड़े राह ॥


286
चौर्य-कर्म प्रति हैं जिन्हें, रहती अति आसक्ति ।
मर्यादा पर टिक उन्हें, चलने को नहिं शक्ति ॥


287
मर्यादा को पालते, जो रहते सज्ञान ।
उनमें होता है नहीं, चोरी का अज्ञान ॥


288
ज्यों मर्यादा-पाल के, मन में स्थिर है धर्म ।
त्यों प्रवंचना-पाल के, मन में वंचक कर्म ॥


289
जिन्हें चौर्य को छोड़ कर, न किसी का ज्ञान ।
मर्यादा बिन कर्म कर, मिटते तभी अजान ॥


        290
चिरों को निज देह भी, ढकेल कर दे छोड़ ।
पालक को अस्तेय व्रत, स्वर्ग न देगा छोड़ ॥

अध्याय 30. सत्य


291
परिभाषा है सत्य की, वचन विनिर्गत हानि ।
सत्य-कथन से अल्प भी न हो किसी को ग्लानि ॥


292
मिथ्या-भाषण यदि करे, दोषरहित कल्याण ।
तो यह मिथ्या-कथन भी, मानो सत्य समान ॥


293
निज मन समझे जब स्वयं, झूठ न बोलें आप ।
बोलें तो फिर आप को, निज मन दे संताप ॥


294
मन से सत्याचरण का, जो करता अभ्यास ।
जग के सब के हृदय में, करता है वह वास ॥


295
दान-पुण्य तप-कर्म भी, करते हैं जो लोग ।
उनसे बढ़ हैं, हृदय से, सच बोलें जो लोग ॥


296
मिथ्या-भाषण त्याग सम, रहा न कीर्ति-विकास ।
उससे सारा धर्म-फल, पाये बिना प्रयास ॥


297
सत्य-धर्म का आचरण, सत्य-धर्म ही मान ।
अन्य धर्म सब त्यागना, अच्छा ही है जान ॥


298
बाह्-शुद्धता देह को, देता ही है तोय ।
अन्तः करण-विशुद्धता, प्रकट सत्य से जोंय ॥


299
दीपक सब दीपक नहीं, जिनसे हो तम-नाश ।
सत्य-दीप ही दीप है, पावें साधु प्रकाश ॥


        300
हमने अनुसन्धान से, जितने पाये तत्व ।
उनमें कोई सत्य सम, पाता नहीं महत्व ॥

No comments:

Post a Comment