Monday, 20 June 2005

अध्याय 61 से 70



अध्याय 61. आलस्यहीनता


601
जब तम से आलस्य के, आच्छादित हो जाय ।
अक्षय दीप कुटुंब का, मंद मंद बुझ जाय ॥


602
जो चाहें निज वंश का, बना रहे उत्कर्ष ।
नाश करें आलस्य का, करते उसका धर्ष ॥


603
गोद लिये आलस्य को, जो जड़ करे विलास ।
होगा उसके पूर्व ही, जात-वंश का नाश ॥


604
जो सुस्ती में मग्न हों, यत्न बिना सुविशेष ।
तो उनका कुल नष्ट हो, बढ़ें दोष निःशेष ॥


605
दीर्घसूत्रता, विस्मरण, सुस्ती, निद्रा-चाव ।
जो जन चाहें डूबना, चारों हैं प्रिय नाव ॥


606
सार्वभौम की श्री स्वयं, चाहे आवे पास ।
तो भी जो हैं आलसी, पावें नहिं फल ख़ास ॥


607
सुस्ती-प्रिय बन, यत्न सुठि, करते नहिं जो लोग ।
डांट तथा उपहास भी, सुनते हैं वे लोग ॥


608
घर कर ले आलस्य यदि, रह कुलीन के पास ।
उसके रिपु के वश उसे, बनायगा वह दास ॥


        609
सुस्ती-पालन बान का, कर देगा यदि अंत ।
वंश और पुरुषार्थ में, लगे दोष हों अंत ॥


        610
क़दम बढ़ा कर विष्णु ने, जिसे किया था व्याप्त ।
वह सब आलसहीन नृप, करे एकदम प्राप्त ॥

अध्याय 62. उद्यमशीलता


611
दुष्कर यह यों समझकर, होना नहीं निरास ।
जानो योग्य महानता, देगा सतत प्रयास ॥


612
ढीला पड़ना यत्न में, कर दो बिलकुल त्याग ।
त्यागेंगे जो यत्न को, उन्हें करे जग त्याग ॥


613
यत्नशीलता जो रही, उत्तम गुणस्वरूप ।
उसपर स्थित है श्रेष्ठता, परोपकार स्वरूप ॥


614
यों है उद्यमरहित का, करना परोपकार ।
कोई कायर व्यर्थ ज्यों, चला रहा तलवार ॥


615
जिसे न सुख की चाह है, कर्म-पूर्ति है चाह ।
स्तंभ बने वह थामता, मिटा बन्धुजन-आह ॥


616
बढ़ती धन-संपत्ति की, कर देता है यत्न ।
दारिद्रय को घुसेड़ कर, देता रहे अयत्न ॥


617
करती है आलस्य में, काली ज्येष्ठा वास ।
यत्नशील के यत्न में, कमला का है वास ॥


618
यदि विधि नहिं अनुकूल है, तो न किसी का दोष ।
खूब जान ज्ञातव्य को, यत्न न करना दोष ॥


        619
यद्यपि मिले न दैववश, इच्छित फल जो भोग्य ।
श्रम देगा पारिश्रमिक, निज देह-श्रम-योग्य ॥


        620
विधि पर भी पाते विजय, जो हैं उद्यमशील ।
सतत यत्न करते हुए, बिना किये कुछ ढील ॥

अध्याय 63. संकट में अनाकुलता


621
जब दुख-संकट आ पड़े, तब करना उल्लास ।
तत्सम कोई ना करे, भिड़ कर उसका नाश ॥


622
जो आवेगा बाढ़ सा, बुद्धिमान को कष्ट ।
मनोधैर्य से सोचते, हो जावे वह नष्ट ॥


623
दुख-संकट जब आ पड़े, दुखी न हो जो लोग ।
दुख-संकट को दुख में, डालेंगे वे लोग ॥


624
ऊबट में भी खींचते, बैल सदृष जो जाय ।
उसपर जो दुख आ पड़े, उस दुख पर दुख आय ॥


625
दुख निरंतर हो रहा, फिर भी धैर्य न जाय ।
ऐसों को यदि दुख हुआ, उस दुख पर दुख आय ॥


626
धन पा कर, आग्रह सहित, जो नहिं करते लोभ ।
धन खो कर क्या खिन्न हो, कभी करेंगे क्षोभ ॥


627
देह दुख का लक्ष्य तो, होती है यों जान ।
क्षुब्ध न होते दुख से, जो हैं पुरुष महान ॥


628
विधिवश होता दुख है, यों जिसको है ज्ञान ।
तथा न सुख की चाह भी, दुखी न हो वह प्राण ॥


        629
सुख में सुख की चाह से, जो न करेगा भोग ।
दुःखी होकर दुःख में, वह न करेगा शोक ॥


        630
दुख को भी सुख सदृश ही, यदि ले कोई मान ।
तो उसको उपलब्ध हो, रिपु से मानित मान ॥

अध्याय 64. अमात्य


631
साधन, काल, उपाय औ’, कार्यसिद्धि दुस्साध्य ।
इनका श्रेष्ठ विधान जो, करता वही अमात्य ॥


632
दृढ़ता, कुल-रक्षण तथा, यत्न, सुशिक्षा, ज्ञान ।
पाँच गुणों से युक्त जो, वही अमात्य सुजान ॥


633
फूट डालना शत्रु में, पालन मैत्री-भाव ।
लेना बिछुड़ों को मिलायोग्य आमात्य-स्वभाव ॥


634
विश्लेषण करता तथा, परख कार्य को साध्य ।
दृढ़ता पूर्वक मंत्रणा, देता योग्य अमात्य ॥


635
धर्म जान, संयम सहित, ज्ञानपूर्ण कर बात ।
सदा समझता शक्ति को, साथी है वह ख्यात ॥


636
शास्त्र जानते जो रहा, सूक्ष्म बुद्धि का भौन ।
उसका करते सामना, सूक्ष्म प्रश्न अति कौन ॥


637
यद्यपि विधियों का रहा, शास्त्र रीति से ज्ञान ।
फिर भी करना चाहिये, लोकरीति को जान ॥


638
हत्या कर उपदेश की, खुद हो अज्ञ नरेश ।
फिर भी धर्म अमात्य का, देना दृढ़ उपदेश ॥


        639
हानि विचारे निकट रह, यदि दुर्मंत्री एक ।
उससे सत्तर कोटि रिपु, मानों बढ़ कर नेक ॥


       640
यद्यपि क्रम से सोच कर, शुरू करे सब कर्म ।
जिनमें दृढ़ क्षमता नहीं, करें अधूरा कर्म ॥


अध्याय 65. वाक्‌- पटुत्व


641
वाक्‌- शक्ति की संपदा, है मंत्री को श्रेष्ठ ।
उनके अन्तर्गत नहीं, जो गुण अन्य यथेष्ट ॥


642
अपनी वाणी ही रही, लाभ- हानि का मूल ।
इससे रहना सजग़ हो, न हो बोलते भूल ॥


643
जो सुनते वश में पडे, भाषण वही समर्थ ।
वे भी जो सुनते नहीं, चाहें गुण के अर्थ ॥


644
शक्ति समझ कर चाहिये, करना शब्द प्रयोग ।
इससे बढ़ कर है नहीं, धर्म अर्थ का योग ॥


645
बात बताना जान यह, अन्य न कोई बात ।
ऐसी जो उस बात को, कर सकती है मात ॥


646
सारग्रहण पर-वचन का, स्वयं करे प्रिय बात ।
निर्मल गुणयुत सचिव में, है यह गुण विख्यात ॥


647
भाषण-पटु, निर्भय तथा, रहता जो अश्रान्त ।
उसपर जय प्रतिवाद में, पाना कठिन नितान्त ॥


648
भाषण- पटु जो ढंग से, करता मीठी बात ।
यदि पाये तो जगत झट, माने उसकी बात ॥


        649
थोडे बचन दोष रहित, कहने में असमर्थ ।
निश्चय वे हैं चाहते, बहुत बोलना व्यर्थ ॥


       650
पठित ग्रन्थ व्याख्या सहित, प्रवचन में असमर्थ ।
खिला किन्तु खुशबू रहित, पुष्य-गुच्छ सम व्यर्थ ॥

अध्याय 66. कर्म-शुद्धि


651
साथी की परिशुद्धता, दे देती है प्रेय ।
कर्मों की परिशुद्धता, देती है सब श्रेय ॥


652
सदा त्यागना चाहिये, जो हैं ऐसे कर्म ।
कीर्ति-लाभ के साथ जो, देते हैं नहिं धर्म ॥


653
उन्नति करनी चाहिये’, यों जिनको हो राग ।
निज गौरव को हानिकर, करें कर्म वे त्याग ॥


654
यद्यपि संकट-ग्रस्त हों, जिनका निश्चल ज्ञान ।
निंद्य कर्म फिर भी सुधी, नहीं करेंगे जान ॥


655
जिससे पश्चात्ताप हो, करो न ऐसा कार्य ।
अगर किया तो फिर भला, ना कर ऐसा कार्य ॥


656
जननी को भूखी सही, यद्यपि देखा जाय ।
सज्जन-निन्दित कार्य को, तो भी किया न जाय ॥


657
दोष वहन कर प्राप्त जो, सज्जन को ऐश्वर्य ।
उससे अति दारिद्रय ही, सहना उसको वर्य ॥


658
वर्ज किये बिन वर्ज्य सब, जो करता दुष्कर्म ।
कार्य-पूर्ति ही क्यों न हो, पीड़ा दें वे कर्म ॥


      659
रुला अन्य को प्राप्त सब, रुला उसे वह जाय ।
खो कर भी सत्संपदा, पीछे फल दे जाय ॥


       660
छल से धन को जोड़ कर, रखने की तदबीर ।
कच्चे मिट्टी कलश में, भर रखना ज्यों नीर ॥

अध्याय 67. कर्म में दृढ़ता


661
दृढ़ रहना ही कर्म में, मन की दृढ़ता जान ।
दृढ़ता कहलाती नहीं, जो है दृढ़ता आन ॥


662
दुष्ट न करना, यदि हुआ, तो फिर न हो अधीर ।
मत यह है नीतिज्ञ का, दो पथ मानें मीर ॥


663
प्रकट किया कर्मान्त में, तो है योग्य सुधीर ।
प्रकट किया यदि बीच में, देगा अनन्त पीर ॥


664
कहना तो सब के लिये, रहता है आसान ।
करना जो जैसा कहे, है दुस्साध्य निदान ॥


665
कीर्ति दिला कर सचित को, कर्म-निष्ठता-बान ।
नृप पर डाल प्रभाव वह, पावेगी सम्मान ॥


666
संकल्पित सब वस्तुएँ, यथा किया संकल्प ।
संकल्पक का जायगा, यदि वह दृढ़-संकल्प ॥


667
तिरस्कार करना नहीं, छोटा क़द अवलोक ।
चलते भारी यान में, अक्ष-आणि सम लोग ॥


668
सोच समझ निश्चय किया, करने का जो कर्म ।
हिचके बिन अविलम्ब ही, कर देना वह कर्म ॥


       669
यद्यपि होगा बहुत दुख, दृढ़ता से काम ।
सुख-फल दायक ही रहा, जिसका शुभ परिणाम ॥


       670
अन्य विषय में सदृढ़ता, रखते सचिव सुजान ।
यदि दृढ़ता नहिं कर्म की, जग न करेगा मान ॥

अध्याय 68. कर्म करने की रीति


671
निश्चय कर लेना रहा, विचार का परिणाम ।
हानि करेगा देर से, रुकना निश्चित काम ॥


672
जो विलम्ब के योग्य है, करो उसे सविलम्ब ।
जो होना अविलम्ब ही, करो उसे अविलम्ब ॥


673
जहाँ जहाँ वश चल सके, भलाकार्य हो जाय ।
वश न चले तो कीजिये, संभव देख उपाय ॥


674
कर्म-शेष रखना तथा, शत्रु जनों में शेष ।
अग्नि-शेष सम ही करें, दोनों हानि विशेष ॥


675
धन साधन अवसर तथा, स्थान व निश्चित कर्म ।
पाँचों पर भ्रम के बिना, विचार कर कर कर्म ॥


676
साधन में श्रम, विघ्न भी, पूरा हो जब कर्म ।
प्राप लाभ कितना बड़ा, देख इन्हें कर कर्म ॥


677
विधि है कर्मी को यही, जब करता है कर्म ।
उसके अति मर्मज्ञ से, ग्रहण करे वह मर्म ॥


678
एक कर्म करते हुए, और कर्म हो जाय ।
मद गज से मद-मत्त गज, जैसे पकड़ा जाय ॥


        679
करने से हित कार्य भी, मित्रों के उपयुक्त ।
शत्रु जनों को शीघ्र ही, मित्र बनाना युक्त ॥


        680
भीति समझकर स्वजन की, मंत्री जो कमज़ोर ।
संधि करेंगे नमन कर, रिपु यदि है बरज़ोर ॥

अध्याय 69. दूत


681
स्नेहशीलता उच्चकुल, नृप-इच्छित आचार ।
राज-दूत में चाहिये, यह उत्तम संस्कार ॥


682
प्रेम बुद्धिमानी तथा, वाक्शक्ति सविवेक ।
ये तीनों अनिवार्य हैं, राजदूत को एक ॥


683
रिपु-नृप से जा जो करे, निज नृप की जय-बात ।
लक्षण उसका वह रहे, विज्ञों में विख्यात ॥


684
दूत कार्य हित वह चले, जिसके रहें अधीन ।
शिक्षा अनुसंधानयुत, बुद्धि, रूप ये तीन ॥


685
पुरुष वचन को त्याग कर, करे समन्वित बात ।
लाभ करे प्रिय बोल कर, वही दूत है ज्ञात ॥


686
नीति सीख हर, हो निडर, कर प्रभावकर बात ।
समयोचित जो जान ले, वही दूत है ज्ञात ॥


687
स्थान समय कर्तव्य भी, इनका कर सुविचार ।
बात करे जो सोच कर, उत्तम दूत निहार ॥


688
शुद्ध आचरण संग-बल, तथा धैर्य ये तीन ।
इनके ऊपर सत्यता, लक्षण दूत प्रवीण ॥


        689
नृप को जो संदेशवह, यों हो वह गुण-सिद्ध ।
भूल चूक भी निंद्य वच, कहे न वह दृढ़-चित्त ॥


        690
चाहे हो प्राणान्त भी, निज नृप का गुण-गान ।
करता जो भय के बिना, दूत उसी को जान ॥

अध्याय 70. राजा से योग्य व्यवहार


691
दूर न पास न रह यथा, तापों उसी प्रकार ।
भाव-बदलते भूप से, करना है व्यवहार ॥


692
राजा को जो प्रिय रहें, उनकी हो नहिं चाह ।
उससे स्थायी संपदा, दिलायगा नरनाह ॥


693
यदि बचना है तो बचो, दोषों से विकराल ।
समाधान सभव नहीं, शक करते नरपाल ॥


694
कानाफूसी साथ ही, हँसी अन्य के साथ ।
महाराज के साथ में, छोड़ो इनका साथ ॥


695
छिपे सुनो मत भेद को, पूछो मत 'क्या बात'
प्रकट करे यदि नृप स्वयं, तो सुन लो वह बात ॥


696
भाव समझ समयज्ञ हो, छोड़ घृणित सब बात ।
नृप-मनचाहा ढंग से, कह आवश्यक बात ॥


697
नृप से वांछित बात कह, मगर निरर्थक बात ।
पूछें तो भी बिन कहे, सदा त्याग वह बात ॥


698
छोटे हैं, ये बन्धु हैं’, यों नहिं कर अपमान ।
किया जाय नरपाल का, देव तुल्य सम्मान ॥


        699
नृप के प्रिय हम बन गये’, ऐसा कर सुविचार ।
जो हैं निश्चल बुद्धि के, करें न अप्रिय कार ॥


        700
चिरपरिचित हैं’, यों समझ, नृप से दुर्व्यवहार ।
करने का अधिकार तो, करता हानि अपार ॥

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