अध्याय 61. आलस्यहीनता
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601
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जब तम से आलस्य के, आच्छादित
हो जाय ।
अक्षय दीप कुटुंब का, मंद मंद
बुझ जाय ॥
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602
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जो चाहें निज वंश का, बना रहे
उत्कर्ष ।
नाश करें आलस्य का, करते उसका
धर्ष ॥
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603
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गोद लिये आलस्य को, जो जड़
करे विलास ।
होगा उसके पूर्व ही, जात-वंश का
नाश ॥
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604
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जो सुस्ती में मग्न हों, यत्न बिना
सुविशेष ।
तो उनका कुल नष्ट हो, बढ़ें दोष
निःशेष ॥
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605
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दीर्घसूत्रता, विस्मरण, सुस्ती, निद्रा-चाव ।
जो जन चाहें डूबना, चारों हैं प्रिय नाव ॥ |
606
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सार्वभौम की श्री स्वयं, चाहे आवे
पास ।
तो भी जो हैं आलसी, पावें नहिं फल ख़ास ॥ |
607
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सुस्ती-प्रिय बन, यत्न सुठि, करते नहिं
जो लोग ।
डांट तथा उपहास भी, सुनते हैं वे लोग ॥ |
608
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घर कर ले आलस्य यदि, रह कुलीन
के पास ।
उसके रिपु के वश उसे, बनायगा वह दास ॥ |
609
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सुस्ती-पालन बान का, कर देगा
यदि अंत ।
वंश और पुरुषार्थ में, लगे दोष हों अंत ॥ |
610
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क़दम बढ़ा कर विष्णु ने, जिसे किया
था व्याप्त ।
वह सब आलसहीन नृप, करे एकदम प्राप्त ॥ |
अध्याय 62. उद्यमशीलता
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611
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दुष्कर यह यों समझकर, होना नहीं
निरास ।
जानो योग्य महानता, देगा सतत
प्रयास ॥
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612
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ढीला पड़ना यत्न में, कर दो
बिलकुल त्याग ।
त्यागेंगे जो यत्न को, उन्हें
करे जग त्याग ॥
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613
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यत्नशीलता जो रही, उत्तम
गुणस्वरूप ।
उसपर स्थित है श्रेष्ठता, परोपकार
स्वरूप ॥
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614
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यों है उद्यमरहित का, करना परोपकार
।
कोई कायर व्यर्थ ज्यों, चला रहा
तलवार ॥
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615
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जिसे न सुख की चाह है, कर्म-पूर्ति
है चाह ।
स्तंभ बने वह थामता, मिटा बन्धुजन-आह ॥
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616
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बढ़ती धन-संपत्ति की, कर देता
है यत्न ।
दारिद्रय को घुसेड़ कर, देता रहे
अयत्न ॥
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617
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करती है आलस्य में, काली ज्येष्ठा
वास ।
यत्नशील के यत्न में, कमला का
है वास ॥
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618
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यदि विधि नहिं अनुकूल है, तो न किसी
का दोष ।
खूब जान ज्ञातव्य को, यत्न न
करना दोष ॥
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619
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यद्यपि मिले न दैववश, इच्छित
फल जो भोग्य ।
श्रम देगा पारिश्रमिक, निज देह-श्रम-योग्य
॥
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620
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विधि पर भी पाते विजय, जो हैं
उद्यमशील ।
सतत यत्न करते हुए, बिना किये
कुछ ढील ॥
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अध्याय 63. संकट में अनाकुलता
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621
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जब दुख-संकट आ पड़े, तब करना
उल्लास ।
तत्सम कोई ना करे, भिड़ कर
उसका नाश ॥
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622
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जो आवेगा बाढ़ सा, बुद्धिमान
को कष्ट ।
मनोधैर्य से सोचते, हो जावे
वह नष्ट ॥
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623
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दुख-संकट जब आ पड़े, दुखी न
हो जो लोग ।
दुख-संकट को दुख में, डालेंगे
वे लोग ॥
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624
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ऊबट में भी खींचते, बैल सदृष
जो जाय ।
उसपर जो दुख आ पड़े, उस दुख
पर दुख आय ॥
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625
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दुख निरंतर हो रहा, फिर भी
धैर्य न जाय ।
ऐसों को यदि दुख हुआ, उस दुख
पर दुख आय ॥
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626
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धन पा कर, आग्रह सहित, जो नहिं
करते लोभ ।
धन खो कर क्या खिन्न हो, कभी करेंगे
क्षोभ ॥
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627
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देह दुख का लक्ष्य तो, होती है
यों जान ।
क्षुब्ध न होते दुख से, जो हैं
पुरुष महान ॥
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628
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विधिवश होता दुख है, यों जिसको
है ज्ञान ।
तथा न सुख की चाह भी, दुखी न
हो वह प्राण ॥
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629
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सुख में सुख की चाह से, जो न करेगा
भोग ।
दुःखी होकर दुःख में, वह न करेगा
शोक ॥
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630
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दुख को भी सुख सदृश ही, यदि ले
कोई मान ।
तो उसको उपलब्ध हो, रिपु से
मानित मान ॥
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अध्याय 64. अमात्य
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631
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साधन, काल, उपाय औ’, कार्यसिद्धि दुस्साध्य ।
इनका श्रेष्ठ विधान जो, करता वही
अमात्य ॥
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632
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दृढ़ता, कुल-रक्षण
तथा, यत्न, सुशिक्षा,
ज्ञान ।
पाँच गुणों से युक्त जो, वही अमात्य
सुजान ॥
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633
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फूट डालना शत्रु में, पालन मैत्री-भाव ।
लेना बिछुड़ों को मिला, योग्य आमात्य-स्वभाव ॥
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634
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विश्लेषण करता तथा, परख कार्य
को साध्य ।
दृढ़ता पूर्वक मंत्रणा, देता योग्य
अमात्य ॥
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635
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धर्म जान, संयम सहित, ज्ञानपूर्ण
कर बात ।
सदा समझता शक्ति को, साथी है
वह ख्यात ॥
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636
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शास्त्र जानते जो रहा, सूक्ष्म
बुद्धि का भौन ।
उसका करते सामना, सूक्ष्म
प्रश्न अति कौन ॥
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637
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यद्यपि विधियों का रहा, शास्त्र
रीति से ज्ञान ।
फिर भी करना चाहिये, लोकरीति
को जान ॥
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638
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हत्या कर उपदेश की, खुद हो
अज्ञ नरेश ।
फिर भी धर्म अमात्य का, देना दृढ़
उपदेश ॥
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639
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हानि विचारे निकट रह, यदि दुर्मंत्री
एक ।
उससे सत्तर कोटि रिपु, मानों
बढ़ कर नेक ॥
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640
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यद्यपि क्रम से सोच कर, शुरू करे
सब कर्म ।
जिनमें दृढ़ क्षमता नहीं, करें अधूरा
कर्म ॥
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अध्याय 65. वाक्-
पटुत्व
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641
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वाक्-
शक्ति की
संपदा, है
मंत्री को
श्रेष्ठ ।
उनके अन्तर्गत नहीं, जो गुण अन्य यथेष्ट ॥ |
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642
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अपनी वाणी
ही रही, लाभ- हानि
का मूल ।
इससे रहना सजग़ हो, न हो बोलते भूल ॥ |
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643
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जो सुनते
वश में पडे, भाषण
वही समर्थ ।
वे भी जो सुनते नहीं, चाहें गुण के अर्थ ॥ |
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644
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शक्ति समझ
कर चाहिये, करना
शब्द प्रयोग ।
इससे बढ़ कर है नहीं, धर्म अर्थ का योग ॥ |
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645
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बात
बताना जान यह,
अन्य न कोई
बात ।
ऐसी जो उस बात को, कर सकती है मात ॥ |
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646
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सारग्रहण
पर-वचन का,
स्वयं करे
प्रिय बात ।
निर्मल गुणयुत सचिव में, है यह गुण विख्यात ॥ |
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647
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भाषण-पटु,
निर्भय तथा,
रहता जो
अश्रान्त ।
उसपर जय प्रतिवाद में, पाना कठिन नितान्त ॥ |
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648
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भाषण-
पटु जो ढंग से,
करता मीठी
बात ।
यदि पाये तो जगत झट, माने उसकी बात ॥ |
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649
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थोडे
बचन दोष रहित,
कहने में
असमर्थ ।
निश्चय वे हैं चाहते, बहुत बोलना व्यर्थ ॥ |
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650
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पठित ग्रन्थ
व्याख्या
सहित, प्रवचन
में असमर्थ ।
खिला किन्तु खुशबू रहित, पुष्य-गुच्छ सम व्यर्थ ॥ |
अध्याय 66. कर्म-शुद्धि
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651
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साथी की परिशुद्धता, दे देती
है प्रेय ।
कर्मों की परिशुद्धता, देती है
सब श्रेय ॥
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652
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सदा त्यागना चाहिये, जो हैं
ऐसे कर्म ।
कीर्ति-लाभ के साथ जो, देते हैं
नहिं धर्म ॥
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653
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‘उन्नति करनी चाहिये’, यों जिनको हो राग ।
निज गौरव को हानिकर, करें कर्म
वे त्याग ॥
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654
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यद्यपि संकट-ग्रस्त हों, जिनका
निश्चल ज्ञान ।
निंद्य कर्म फिर भी सुधी, नहीं करेंगे
जान ॥
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655
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जिससे पश्चात्ताप हो, करो न
ऐसा कार्य ।
अगर किया तो फिर भला, ना कर
ऐसा कार्य ॥
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656
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जननी को भूखी सही, यद्यपि
देखा जाय ।
सज्जन-निन्दित कार्य को, तो भी
किया न जाय ॥
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657
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दोष वहन कर प्राप्त जो, सज्जन
को ऐश्वर्य ।
उससे अति दारिद्रय ही, सहना उसको
वर्य ॥
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658
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वर्ज किये बिन वर्ज्य सब, जो करता
दुष्कर्म ।
कार्य-पूर्ति ही क्यों न हो, पीड़ा दें
वे कर्म ॥
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659
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रुला अन्य को प्राप्त सब, रुला उसे
वह जाय ।
खो कर भी सत्संपदा, पीछे फल
दे जाय ॥
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660
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छल से धन को जोड़ कर, रखने की
तदबीर ।
कच्चे मिट्टी कलश में, भर रखना
ज्यों नीर ॥
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अध्याय 67. कर्म में दृढ़ता
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661
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दृढ़ रहना ही कर्म में, मन की
दृढ़ता जान ।
दृढ़ता कहलाती नहीं, जो है
दृढ़ता आन ॥
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662
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दुष्ट न करना, यदि हुआ, तो फिर
न हो अधीर ।
मत यह है नीतिज्ञ का, दो पथ
मानें मीर ॥
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663
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प्रकट किया कर्मान्त में, तो है
योग्य सुधीर ।
प्रकट किया यदि बीच में, देगा अनन्त
पीर ॥
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664
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कहना तो सब के लिये, रहता है
आसान ।
करना जो जैसा कहे, है दुस्साध्य
निदान ॥
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665
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कीर्ति दिला कर सचित को, कर्म-निष्ठता-बान ।
नृप पर डाल प्रभाव वह, पावेगी
सम्मान ॥
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666
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संकल्पित सब वस्तुएँ, यथा किया
संकल्प ।
संकल्पक का जायगा, यदि वह
दृढ़-संकल्प ॥
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667
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तिरस्कार करना नहीं, छोटा क़द
अवलोक ।
चलते भारी यान में, अक्ष-आणि सम
लोग ॥
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668
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सोच समझ निश्चय किया, करने का
जो कर्म ।
हिचके बिन अविलम्ब ही, कर देना
वह कर्म ॥
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669
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यद्यपि होगा बहुत दुख, दृढ़ता
से काम ।
सुख-फल दायक ही रहा, जिसका
शुभ परिणाम ॥
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670
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अन्य विषय में सदृढ़ता, रखते सचिव
सुजान ।
यदि दृढ़ता नहिं कर्म की, जग न करेगा
मान ॥
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अध्याय 68. कर्म करने की रीति
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671
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निश्चय कर लेना रहा, विचार
का परिणाम ।
हानि करेगा देर से, रुकना
निश्चित काम ॥
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672
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जो विलम्ब के योग्य है, करो उसे
सविलम्ब ।
जो होना अविलम्ब ही, करो उसे
अविलम्ब ॥
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673
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जहाँ जहाँ वश चल सके, भलाकार्य
हो जाय ।
वश न चले तो कीजिये, संभव देख
उपाय ॥
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674
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कर्म-शेष रखना तथा, शत्रु
जनों में शेष ।
अग्नि-शेष सम ही करें, दोनों
हानि विशेष ॥
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675
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धन साधन अवसर तथा, स्थान
व निश्चित कर्म ।
पाँचों पर भ्रम के बिना, विचार
कर कर कर्म ॥
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676
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साधन में श्रम, विघ्न
भी, पूरा हो जब कर्म ।
प्राप लाभ कितना बड़ा, देख इन्हें
कर कर्म ॥
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677
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विधि है कर्मी को यही, जब करता
है कर्म ।
उसके अति मर्मज्ञ से, ग्रहण
करे वह मर्म ॥
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678
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एक कर्म करते हुए, और कर्म
हो जाय ।
मद गज से मद-मत्त गज, जैसे पकड़ा
जाय ॥
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679
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करने से हित कार्य भी, मित्रों
के उपयुक्त ।
शत्रु जनों को शीघ्र ही, मित्र
बनाना युक्त ॥
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680
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भीति समझकर स्वजन की, मंत्री
जो कमज़ोर ।
संधि करेंगे नमन कर, रिपु यदि
है बरज़ोर ॥
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अध्याय 69. दूत
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681
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स्नेहशीलता उच्चकुल, नृप-इच्छित
आचार ।
राज-दूत में चाहिये, यह उत्तम
संस्कार ॥
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682
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प्रेम बुद्धिमानी तथा, वाक्शक्ति
सविवेक ।
ये तीनों अनिवार्य हैं, राजदूत
को एक ॥
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683
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रिपु-नृप से जा जो करे, निज नृप
की जय-बात ।
लक्षण उसका वह रहे, विज्ञों
में विख्यात ॥
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684
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दूत कार्य हित वह चले, जिसके
रहें अधीन ।
शिक्षा अनुसंधानयुत, बुद्धि, रूप ये
तीन ॥
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685
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पुरुष वचन को त्याग कर, करे समन्वित
बात ।
लाभ करे प्रिय बोल कर, वही दूत
है ज्ञात ॥
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686
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नीति सीख हर, हो निडर, कर प्रभावकर
बात ।
समयोचित जो जान ले, वही दूत
है ज्ञात ॥
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687
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स्थान समय कर्तव्य भी, इनका कर
सुविचार ।
बात करे जो सोच कर, उत्तम
दूत निहार ॥
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688
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शुद्ध आचरण संग-बल, तथा धैर्य
ये तीन ।
इनके ऊपर सत्यता, लक्षण
दूत प्रवीण ॥
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689
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नृप को जो संदेशवह, यों हो
वह गुण-सिद्ध ।
भूल चूक भी निंद्य वच, कहे न
वह दृढ़-चित्त ॥
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690
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चाहे हो प्राणान्त भी, निज नृप
का गुण-गान ।
करता जो भय के बिना, दूत उसी
को जान ॥
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अध्याय 70. राजा से योग्य व्यवहार
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691
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दूर न पास न रह यथा, तापों
उसी प्रकार ।
भाव-बदलते भूप से, करना है
व्यवहार ॥
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692
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राजा को जो प्रिय रहें, उनकी हो
नहिं चाह ।
उससे स्थायी संपदा, दिलायगा
नरनाह ॥
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693
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यदि बचना है तो बचो, दोषों
से विकराल ।
समाधान सभव नहीं, शक करते
नरपाल ॥
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694
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कानाफूसी साथ ही, हँसी अन्य
के साथ ।
महाराज के साथ में, छोड़ो इनका
साथ ॥
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695
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छिपे सुनो मत भेद को, पूछो मत 'क्या बात' ।
प्रकट करे यदि नृप स्वयं, तो सुन
लो वह बात ॥
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696
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भाव समझ समयज्ञ हो, छोड़ घृणित
सब बात ।
नृप-मनचाहा ढंग से, कह आवश्यक
बात ॥
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697
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नृप से वांछित बात कह, मगर निरर्थक
बात ।
पूछें तो भी बिन कहे, सदा त्याग
वह बात ॥
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698
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‘छोटे हैं,
ये बन्धु हैं’, यों नहिं कर अपमान ।
किया जाय नरपाल का, देव तुल्य
सम्मान ॥
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699
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‘नृप के प्रिय हम बन गये’, ऐसा कर सुविचार ।
जो हैं निश्चल बुद्धि के, करें न
अप्रिय कार ॥
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700
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‘चिरपरिचित हैं’,
यों समझ, नृप से दुर्व्यवहार ।
करने का अधिकार तो, करता हानि
अपार ॥
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