भाग–३: काम- कांड
अध्याय 109. सौन्दर्य की पीड़ा
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1081
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क्या यह है देवांगना, या सुविशेष
मयूर ।
या नारी कुंड़ल-सजी, मन है
भ्रम में चूर ॥
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1082
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दृष्टि मिलाना सुतनु का, होते दृष्टि-निपान
।
हो कर खुद चँडी यथा, चढ़ आये
दल साथ ॥
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1083
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पहले देखा है नहीं, अब देखा
यम कौन ।
लडते विशाल नेत्रयुत, वह है
स्त्री-गुण-भौन ॥
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1084
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मुग्धा इस स्त्री-रत्न के, दिखी दृगों
की रीत ।
खाते दर्शक-प्राण हैं, यों है
गुण विपरीत ॥
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1085
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क्या यम है, या आँख है, या है
मृगी सुरंग ।
इस मुग्धा की दृष्टि में, है तीनों
का ढंग ॥
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1086
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ऋजु हो टेढ़ी भृकुटियाँ, मना करें
दे छाँह ।
तो इसकी आँखें मुझे, हिला, न लेंगी
आह ॥
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1087
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अनत कुचों पर नारि के, पड़ा रहा
जो पाट ।
मद-गज के दृग ढ़ांकता, मुख-पट सम
वह ठाट ॥
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1088
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उज्जवल माथे से अहो, गयी शक्ति
वह रीत ।
भिड़े बिना रण-भूमि में, जिससे
रिपु हों भीत ॥
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1089
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सरल दृष्टि हरिणी सदृश, औ’ रखती जो
लाज ।
उसके हित गहने बना, पहनाना
क्या काज ॥
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1090
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हर्षक है केवल उसे, जो करता
है पान ।
दर्शक को हर्षक नहीं, मधु तो
काम समान ॥
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अध्याय 110. संकेत समझना
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1091
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इसके कजरारे नयन, रखते हैं
दो दृष्टि ।
रोग एक, उस रोग की, दवा दूसरी
दृष्टि ॥
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1092
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आंख बचा कर देखना, तनिक मुझे
क्षण काल ।
अर्द्ध नहीं, संयोग का, उससे अधिक
रसाल ॥
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1093
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देखा, उसने देख कर, झुका लिया जो सीस ।
वह क्यारी में प्रेम की, देना था
जल सींच ॥
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1094
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मैं देखूँ तो डालती, दृष्टि
भूमि की ओर ।
ना देखूँ तो देख खुद, मन में
रही हिलोर ॥
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1095
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सीधे वह नहीं देखती, यद्यपि
मेरी ओर ।
सुकुचाती सी एक दृग, मन में
रही हिलोर ॥
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1096
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यदुअपि वह अनभिज्ञ सी, करती है
कटु बात ।
बात नहीं है क्रुद्ध की, झट होती
यह ज्ञात ॥
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1097
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रुष्ट दृष्टि है शत्रु सम, कटुक वचन
सप्रीति ।
दिखना मानों अन्य जन, प्रेमी
जन की रीति ॥
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1098
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मैं देखूँ तो, स्निग्ध
हो, करे मंद वह हास ।
सुकुमारी में उस समय, एक रही
छवी ख़ास ॥
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1099
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उदासीन हो देखना, मानों
हो अनजान ।
प्रेमी जन के पास ही, रहती ऐसी
बान ॥
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1100
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नयन नयन मिल देखते, यदि होता
है योग ।
वचनों का मूँह से कहे, है नहिं
कुछ उपयोग ॥
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अध्याय 111. संयोग का आनन्द
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1101
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पंचेन्द्रिय सुख, रूप औ’, स्पर्श
गंध रस शब्द ।
उज्ज्वल चूड़ी से सजी, इसमें
सब उपलब्ध ॥
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1102
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रोगों की तो है दवा, उनसे अलग
पदार्थ ।
जो सुतनू का रोग है, दवा वही
रोगार्थ ॥
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1103
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निज दयिता मृदु स्कंध पर, सोते जो
आराम ।
उससे क्या रमणीय है, कमल-नयन का
धाम ॥
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1104
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हटने पर देती जला, निकट गया
तो शीत ।
आग कहाँ से पा गयी, बाला यह
विपरीत ॥
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1105
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इच्छित ज्यों इच्छित समय, आकर दें
आनन्द ।
पुष्पालंकृत केशयुत, हैं बाला
के स्कंध ॥
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1106
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लगने से हर बार है, नवजीवन
का स्पंद ।
बने हुए हैं अमृत के, इस मुग्धा
के स्कंध ॥
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1107
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स्वगृह में स्वपादर्थ का, यथा बाँट
कर भोग ।
रहा गेहुँए रंग की, बाला से
संयोग ॥
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1108
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आलिंगन जो यों रहा, बीच हवा-गति बंद
।
दोनों को, प्रिय औ’ प्रिया, देता है
आनन्द ॥
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1109
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मान मनावन मिलनसुख, ये जो
हैं फल-भोग ।
प्रेम-पाश में जो पड़े, उनको है
यह भोग ॥
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1110
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होते होते ज्ञान के, यथा ज्ञात
अज्ञान ।
मिलते मिलते सुतनु से, होता प्रणय-ज्ञान
॥
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अध्याय 112. सौन्दर्य वर्णन
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1111
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रे अनिच्च तू धन्य है, तू है
कोमल प्राण ।
मेरी जो है प्रियतमा, तुझसे
मृदुतर जान ॥
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1112
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बहु-जन-दृष्ट सुमन सदृश, इसके दृग
को मान ।
रे मन यदि देखो सुमन, तुम हो
भ्रमित अजान ॥
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1113
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पल्लव तन, मोती रदन, प्राकृत
गंध सुगंध ।
भाला कजरारा नयन, जिसके
बाँस-स्कंध ॥
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1114
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कुवलय दल यदि देखता, सोच झुका
कर सीस ।
इसके दृग सम हम नहीं, होती उसको
खीस ॥
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1115
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धारण किया अनिच्च को, बिना निकाले
वृन्त ।
इसकी कटि हिन ना बजे, मंगल बाजा-वृन्द
॥
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1116
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महिला मुख औ’ चन्द्र में, उड्डगण
भेद न जान ।
निज कक्षा से छूट कर, होते चलायमान
॥
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1117
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क्षय पाकर फिर पूर्ण हो, शोभित
रहा मयंक ।
इस नारी के वदन पर, रहता कहाँ
कलंक ॥
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1118
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इस नारी के वदन सम, चमक सके
तो चाँद ।
प्रेम-पात्र मेरा बने, चिरजीवी
रह चाँद ॥
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1119
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सुमन-नयन युत वदन सम, यदि होने
की चाह ।
सबके सम्मुख चन्द्र तू चमक न बेपरवाह ॥
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1120
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मृदु अनिच्च का फूल औ’, हंसी का
मृदु तूल ।
बाला के मृदु पाद हित, रहे गोखरू
शूल ॥
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अध्याय 113. प्रेम-प्रशंसा
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1121
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मधुर भाषिणी सुतुनु का, सित रद
निःसृत नीर ।
यों लगता है मधुर वह, ज्यों
मधु-मिश्रित क्षीर ॥
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1122
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जैसा देही देह का, होता है
सम्बन्ध ।
वैसा मेरे, नारि के, बीच रहा
सम्बन्ध ॥
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1123
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पुतली में पुतली अरी, हट जाओ
यह जान ।
मेरी ललित ललाटयुत, प्यारी
को नहिं स्थान ॥
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1124
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जीना सम है प्राण हित, बाला, जब संयोग
।
मरना सम उसके लिये, होता अगर
वियोग ॥
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1125
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लड़ते दृग युत बाल के, गुण यदि
जाऊँ भूल ।
तब तो कर सकता स्मरण, पर जाता
नहिं भूल ॥
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1126
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दृग में से निकलें नहीं, मेरे सुभग
सुजान ।
झपकी लूँ तो हो न दुख, वे हैं
सूक्ष्म प्राण ॥
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1127
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यों विचार कर नयन में, करते वास
सुजान ।
नहीं आंजतीं हम नयन, छिप जायेंगे
जान ॥
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1128
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यों विचार कर हृदय में, करते वास
सुजान ।
खाने से डर है गरम, जल जायेंगे
जान ॥
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1129
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झपकी लूँ तो ज्ञात है, होंगे
नाथ विलीन ।
पर इससे पुरजन उन्हें, कहते प्रेम
विहीन ॥
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1130
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यद्यपि दिल में प्रिय सदा, रहे मज़े
में लीन ।
पुरजन कहते तज चले, कहते प्रेम
विहीन ॥
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अध्याय 114. लज्जा-त्याग-कथन
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1131
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जो चखने पर प्रेम रस, सहें वेदना
हाय ।
‘मडल’-सुरक्षा के बिना, उन्हें न सबल सहाय ॥
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1132
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आत्मा और शरीर भी, सह न सके
जो आग ।
चढ़े ‘मडल’ पर धैर्य से, करके लज्जा त्याग ॥
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1133
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पहले मेरे पास थीं, सुधीरता
और लाज ।
कामी जन जिसपर चढ़ें, वही ‘मडल’ है आज
॥
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1134
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मेरी थी लज्जा तथा, सुधीरता
की नाव ।
उसे बहा कर ले गया, भीषण काम-बहाव ॥
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1135
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माला सम चूड़ी सजे, जिस बाला
के हाथ ।
उसने संध्या-विरह-दुख, दिया ‘मडल’ के साथ
॥
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1136
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कटती मुग्धा की वजह, आँखों
में ही रात ।
अर्द्ध-रात्रि में भी ‘मडल’, आता ही
है याद ॥
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1137
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काम-वेदना जलधि में, रहती मग्न
यथेष्ट ।
फिर भी ‘मडल’ न जो चढे, उस स्त्री
से नहिं श्रेष्ठ ॥
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1138
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संयम से रहती तथा, दया-पात्र
अति वाम ।
यह न सोच कर छिप न रह, प्रकट
हुआ है काम ॥
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1139
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मेरा काम यही समझ, सबको वह
नहिं ज्ञात ।
नगर-वीथि में घूमता, है मस्ती
के साथ ॥
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1140
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रहे भुक्त-भोगी नहीं, यथा चुकी
हूँ भोग ।
हँसते मेरे देखते, बुद्धि
हीन जो लोग ॥
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अध्याय 115. प्रवाद-जताना
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1141
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प्रचलन हुआ प्रवाद का, सो टिकता
प्रिय प्राण ।
इसका मेरे भाग्य से, लोगों
को नहिं ज्ञान ॥
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1142
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सुमन-नयन-युत बाल की, दुर्लभता नहिं जान ।
इस पुर ने अफवाह तो, की है
मुझे प्रदान ॥
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1143
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क्या मेरे लायक नहीं, पुरजन-ज्ञात
प्रवाह ।
प्राप्त किये बिन मिलन तो, हुई प्राप्त
सी बात ॥
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1144
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पुरजन के अपवाद से, बढ़ जाता
है काम ।
घट जायेगा अन्यथा, खो कर
निज गुण-नाम ॥
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1145
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होते होते मस्त ज्यों, प्रिय
लगता मधु-पान ।
हो हो प्रकट प्रवाद से, मधुर काम
की बान ॥
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1146
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प्रिय से केवल एक दिन, हुई मिलन
की बात ।
लेकिन चन्द्रग्रहण सम, व्यापक
हुआ प्रवाद ॥
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1147
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पुरजन-निंदा खाद है, माँ का
कटु वच नीर ।
इनसे पोषित रोग यह, बढ़ता रहा
अधीर ॥
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1148
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काम-शमन की सोचना, कर अपवाद
प्रचार ।
अग्नि-शमन घी डाल कर, करना सदृश
विचार ॥
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1149
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अपवादें से क्यों डरूँ, जब कर
अभय प्रदान ।
सब को लज्जित कर गये, छोड़ मुझे
प्रिय प्राण ॥
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1150
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निज वांछित अपवाद का, पुर कर
रहा प्रचार ।
चाहूँ तो प्रिय नाथ भी, कर देंगे
उपकार ॥
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अध्याय 116. विरह-वेदना
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1151
|
अगर बिछुड़ जाते नहीं, मुझे जताओ
नाथ ।
जो जियें उनसे कहो, झट फिरने
की बात ॥
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1152
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पहले उनकी दृष्टि तो, देती थी
सुख-भोग ।
विरह-भीति से दुखद है, अब उनका
संयोग ॥
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1153
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विज्ञ नाथ का भी कभी, संभव रहा
प्रवास ।
सो करना संभव नहीं, इनपर भी
विश्वास ॥
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1154
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छोड़ चलेंगे यदि सदय, कर निर्भय
का घोष ।
जो दृढ़-वच विश्वासिनी, उसका है
क्या दोष ॥
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1155
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बचा सके तो यों बचा, जिससे
चलें न नाथ ।
फिर मिलना संभव नहीं, छोड़ गये
यदि साथ ॥
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1156
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विरह बताने तक हुए, इतने निठुर
समर्थ ।
प्रेम करेंगे लौट कर, यह आशा
है व्यर्थ ॥
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1157
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नायक ने जो छोड़ कर, गमन किया, वह बात
।
वलय कलाई से पतित, क्या न
करें विख्यात ॥
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1158
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उस पुर में रहना दुखद, जहाँ न
साथिन लोग ।
उससे भी बढ़ कर दुखद, प्रिय
से रहा वियोग ॥
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1159
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छूने पर ही तो जला, सकती है, बस आग
।
काम-ज्वर सम वह जला, सकती क्या, कर त्याग
॥
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1160
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दुखद विरह को मानती, चिन्ता; व्याधि
न नेक ।
विरह-वेदना सहन कर, जीवित
रहीं अनेक ॥
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अध्याय 117. विरह-क्षमा की व्यथा
|
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1161
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यथा उलीचे सोत का, बढ़ता रहे
बहाव ।
बढ़ता है यह रोग भी, यदि मैं
करूँ छिपाव ॥
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1162
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गोपन भी इस रोग का, है नहिं
वश की बात ।
कहना भी लज्जाजनक, रोगकार
से बात ॥
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1163
|
मेरी दुबली देह में, प्राणरूप
जो डांड ।
लटके उसके छोर में, काम व
लज्जा कांड ॥
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1164
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काम-रोग का तो रहा, पारावार
अपार ।
पर रक्षक बेड़ा नहीं, उसको करने
पार ॥
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1165
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जो देते हैं वेदना, रह कर
प्रिय जन, खैर ।
क्या कर बैठेंगे अहो, यदि रखते
हैं वैर ॥
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1166
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जो है, बस, यह काम
तो, सुख का पारावार ।
पीडा दे तो दुःख है, उससे बड़ा
अपार ॥
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1167
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पार न पाती पैर कर, काम-समुद्र
महान ।
अर्द्ध रात्रि में भी निविड़, रही अकेली
जान ॥
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1168
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सुला जीव सब को रही, दया-पात्र
यह रात ।
इसको मुझको छोड़ कर, और न कोई
साथ ॥
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1169
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ये रातें जो आजकल, लम्बी
हुई अथोर ।
निष्ठुर के नैष्ठुर्य से, हैं खुद
अधिक कठोर ॥
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1170
|
चल सकते हैं प्रिय के यहाँ, यदि झट
हृदय समान ।
नहीं तैरते बाढ़ में, यों मेरे
दृग, जान ॥
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अध्याय 118. नेत्रों का आतुरता से क्षय
|
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1171
|
अब राते हैं क्यों नयन, स्वयं
दिखा आराध्य ।
मुझे हुआ यह रोग है, जो बन
गया असाध्य ॥
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1172
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सोचे समझे बिन नयन, प्रिय
को उस दिन देख ।
अब क्यों होते हैं व्यक्ति, रखते कुछ
न विवेक ॥
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1173
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नयनों ने देखा स्वयं, आतुरता
के साथ ।
अब जो रोते हैं स्वयं, है हास्यास्पद
बात ॥
|
1174
|
मुझमें रुज उत्पन्न कर, असाध्य
औ’ अनिवार्य ।
सूख गये, ना कर सके, दृग रोने
का कार्य ॥
|
1175
|
काम-रोग उत्पन्न कर, सागर से
विस्तार ।
नींद न पा मेरे नयन, सहते दुःख
अपार ॥
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1176
|
ओहो यह अति सुखद है, मुझको
दुख में डाल ।
अब ये दृग सहते स्वयं, यह दुख, हो बेहाल
॥
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1177
|
दिल पसीज, थे देखते, सदा उन्हें
दृग सक्त ।
सूख जाय दृग-स्रोत अब, सह सह
पीड़ा सख्त ॥
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1178
|
वचन मात्र से प्रेम कर, दिल से
किया न प्रेम ।
उस जन को देखे बिना, नेत्रों
को नहिं क्षेम ॥
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1179
|
ना आवें तो नींद नहिं, आवें, नींद न
आय ।
दोनों हालों में नयन, सहते हैं
अति हाय ॥
|
1180
|
मेरे सम जिनके नयन, पिटते
ढोल समान ।
उससे पुरजन को नहीं, कठिन भेद
का ज्ञान ॥
|
अध्याय 119. पीलापन-जनित पीड़ा
|
|
1181
|
प्रिय को जाने के लिये, सम्मति
दी उस काल ।
अब जा कर किससे कहूँ, निज पीलापन-हाल ॥
|
1182
|
पीलापन यह गर्व कर, ‘मैं हूँ
उनसे प्राप्त’
।
चढ़ कर मेरी देह में, हो जाता
है व्याप्त ॥
|
1183
|
पीलापन औ’ रोग का, करके वे
प्रतिदान ।
मेरी छवि औ’ लाज का, ले कर
चले सुदान ॥
|
1184
|
उनके गुण का स्मरण कर, करती हूँ
गुण-गान ।
फिर भी पीलापन चढ़ा, तो क्या
यह धोखा न ॥
|
1185
|
वह देखो, जाते बिछुड़, मेरे प्रियतम
आप्त ।
यह देखो, इस देह पर, पीलापन
है व्याप्त ॥
|
1186
|
दीपक बुझने की यथा, तम की
जो है ताक ।
प्रिय-आलिंगन ढील पर, पैलापन
की ताक ॥
|
1187
|
आलिंगन करके रही, करवट बदली
थोर ।
उस क्षण जम कर छा गया, पीलापन
यह घोर ॥
|
1188
|
‘यह है पीली पड़ गयी’, यों करते हैं बात ।
इसे त्याग कर वे गये, यों करते
नहिं बात ॥
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1189
|
मुझे मना कर तो गये, यदि सकुशल
हों नाथ ।
तो मेरा तन भी रहे, पीलापन
के साथ ॥
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1190
|
अच्छा है पाना स्वयं, पीलापन
का नाम ।
प्रिय का तजना बन्धुजन, यदि न
करें बदनाम ॥
|
अध्याय 120. विरह-वेदनातिरेक
|
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1191
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जिससे अपना प्यार है, यदि पाती
वह प्यार ।
बीज रहित फल प्रेम का, पाती है
निर्धार ॥
|
1192
|
जीवों का करता जलद, ज्यों
जल दे कर क्षेम ।
प्राण-पियारे का रहा, प्राण-प्रिया
से प्रेम ॥
|
1193
|
जिस नारी को प्राप्त है, प्राण-नाथ का
प्यार ।
‘जीऊँगी’ यों गर्व का,
उसको है अधिकार ॥
|
1194
|
उसकी प्रिया बनी नहीं, जो उसका
है प्रेय ।
तो बहुमान्या नारि भी, पुण्यवति
नहिं ज्ञेय ॥
|
1195
|
प्यार किया मैंने जिन्हें, यदि खुद
किया न प्यार ।
तो उनसे क्या हो सके, मेरा कुछ
उपकार ॥
|
1196
|
प्रेम एक-तरफ़ा रहे, तो है
दुखद अपार ।
दोय तरफ़ हो तो सुखद, ज्यों
डंडी पर भार ॥
|
1197
|
जम कर सक्रिय एक में, रहा मदन
बेदर्द ।
क्या वह समझेगा नहीं, मेरा दुःख
व दर्द ॥
|
1198
|
प्रियतम से पाये बिना, उसका मधुमय
बैन ।
जग में जीती स्त्री सदृश, कोई निष्ठुर
है न ॥
|
1199
|
प्रेम रहित प्रियतम रहे, यद्यपि
है यह ज्ञात ।
कर्ण मधुर ही जो मिले, उनकी कोई
बात ॥
|
1200
|
प्रेम हीन से कठिन रुज, कहने को
तैयार ।
रे दिल ! तू चिरजीव रह ! सुखा समुद्र
अपार ॥
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