Monday 20 June 2005

अध्याय 109 से 120



भाग: काम- कांड

अध्याय 109. सौन्दर्य की पीड़ा


1081
क्या यह है देवांगना, या सुविशेष मयूर ।
या नारी कुंड़ल-सजी, मन है भ्रम में चूर ॥


1082
दृष्टि मिलाना सुतनु का, होते दृष्टि-निपान ।
हो कर खुद चँडी यथा, चढ़ आये दल साथ ॥


1083
पहले देखा है नहीं, अब देखा यम कौन ।
लडते विशाल नेत्रयुत, वह है स्त्री-गुण-भौन ॥


1084
मुग्धा इस स्त्री-रत्न के, दिखी दृगों की रीत ।
खाते दर्शक-प्राण हैं, यों है गुण विपरीत ॥


1085
क्या यम है, या आँख है, या है मृगी सुरंग ।
इस मुग्धा की दृष्टि में, है तीनों का ढंग ॥


1086
ऋजु हो टेढ़ी भृकुटियाँ, मना करें दे छाँह ।
तो इसकी आँखें मुझे, हिला, न लेंगी आह ॥


1087
अनत कुचों पर नारि के, पड़ा रहा जो पाट ।
मद-गज के दृग ढ़ांकता, मुख-पट सम वह ठाट ॥


1088
उज्जवल माथे से अहो, गयी शक्ति वह रीत ।
भिड़े बिना रण-भूमि में, जिससे रिपु हों भीत ॥


         1089
सरल दृष्टि हरिणी सदृश, रखती जो लाज ।
उसके हित गहने बना, पहनाना क्या काज ॥


         1090
हर्षक है केवल उसे, जो करता है पान ।
दर्शक को हर्षक नहीं, मधु तो काम समान ॥

अध्याय 110. संकेत समझना


1091
इसके कजरारे नयन, रखते हैं दो दृष्टि ।
रोग एक, उस रोग की, दवा दूसरी दृष्टि ॥


1092
आंख बचा कर देखना, तनिक मुझे क्षण काल ।
अर्द्ध नहीं, संयोग का, उससे अधिक रसाल ॥


1093
देखा, उसने देख कर, झुका लिया जो सीस ।
वह क्यारी में प्रेम की, देना था जल सींच ॥


1094
मैं देखूँ तो डालती, दृष्टि भूमि की ओर ।
ना देखूँ तो देख खुद, मन में रही हिलोर ॥


1095
सीधे वह नहीं देखती, यद्यपि मेरी ओर ।
सुकुचाती सी एक दृग, मन में रही हिलोर ॥


1096
यदुअपि वह अनभिज्ञ सी, करती है कटु बात ।
बात नहीं है क्रुद्ध की, झट होती यह ज्ञात ॥


1097
रुष्ट दृष्टि है शत्रु सम, कटुक वचन सप्रीति ।
दिखना मानों अन्य जन, प्रेमी जन की रीति ॥


1098
मैं देखूँ तो, स्निग्ध हो, करे मंद वह हास ।
सुकुमारी में उस समय, एक रही छवी ख़ास ॥


         1099
उदासीन हो देखना, मानों हो अनजान ।
प्रेमी जन के पास ही, रहती ऐसी बान ॥


         1100
नयन नयन मिल देखते, यदि होता है योग ।
वचनों का मूँह से कहे, है नहिं कुछ उपयोग ॥

अध्याय 111. संयोग का आनन्द


1101
पंचेन्द्रिय सुख, रूप औ’, स्पर्श गंध रस शब्द ।
उज्ज्वल चूड़ी से सजी, इसमें सब उपलब्ध ॥


1102
रोगों की तो है दवा, उनसे अलग पदार्थ ।
जो सुतनू का रोग है, दवा वही रोगार्थ ॥


1103
निज दयिता मृदु स्कंध पर, सोते जो आराम ।
उससे क्या रमणीय है, कमल-नयन का धाम ॥


1104
हटने पर देती जला, निकट गया तो शीत ।
आग कहाँ से पा गयी, बाला यह विपरीत ॥


1105
इच्छित ज्यों इच्छित समय, आकर दें आनन्द ।
पुष्पालंकृत केशयुत, हैं बाला के स्कंध ॥


1106
लगने से हर बार है, नवजीवन का स्पंद ।
बने हुए हैं अमृत के, इस मुग्धा के स्कंध ॥


1107
स्वगृह में स्वपादर्थ का, यथा बाँट कर भोग ।
रहा गेहुँए रंग की, बाला से संयोग ॥


1108
आलिंगन जो यों रहा, बीच हवा-गति बंद ।
दोनों को, प्रिय औप्रिया, देता है आनन्द ॥


         1109
मान मनावन मिलनसुख, ये जो हैं फल-भोग ।
प्रेम-पाश में जो पड़े, उनको है यह भोग ॥


         1110
होते होते ज्ञान के, यथा ज्ञात अज्ञान ।
मिलते मिलते सुतनु से, होता प्रणय-ज्ञान ॥

अध्याय 112. सौन्दर्य वर्णन


1111
रे अनिच्च तू धन्य है, तू है कोमल प्राण ।
मेरी जो है प्रियतमा, तुझसे मृदुतर जान ॥


1112
बहु-जन-दृष्ट सुमन सदृश, इसके दृग को मान ।
रे मन यदि देखो सुमन, तुम हो भ्रमित अजान ॥


1113
पल्लव तन, मोती रदन, प्राकृत गंध सुगंध ।
भाला कजरारा नयन, जिसके बाँस-स्कंध ॥


1114
कुवलय दल यदि देखता, सोच झुका कर सीस ।
इसके दृग सम हम नहीं, होती उसको खीस ॥


1115
धारण किया अनिच्च को, बिना निकाले वृन्त ।
इसकी कटि हिन ना बजे, मंगल बाजा-वृन्द ॥


1116
महिला मुख औचन्द्र में, उड्डगण भेद न जान ।
निज कक्षा से छूट कर, होते चलायमान ॥


1117
क्षय पाकर फिर पूर्ण हो, शोभित रहा मयंक ।
इस नारी के वदन पर, रहता कहाँ कलंक ॥


1118
इस नारी के वदन सम, चमक सके तो चाँद ।
प्रेम-पात्र मेरा बने, चिरजीवी रह चाँद ॥


      1119
सुमन-नयन युत वदन सम, यदि होने की चाह ।
सबके सम्मुख चन्द्र तू चमक न बेपरवाह ॥


      1120
मृदु अनिच्च का फूल औ’, हंसी का मृदु तूल ।
बाला के मृदु पाद हित, रहे गोखरू शूल ॥

अध्याय 113. प्रेम-प्रशंसा


1121
मधुर भाषिणी सुतुनु का, सित रद निःसृत नीर ।
यों लगता है मधुर वह, ज्यों मधु-मिश्रित क्षीर ॥


1122
जैसा देही देह का, होता है सम्बन्ध ।
वैसा मेरे, नारि के, बीच रहा सम्बन्ध ॥


1123
पुतली में पुतली अरी, हट जाओ यह जान ।
मेरी ललित ललाटयुत, प्यारी को नहिं स्थान ॥


1124
जीना सम है प्राण हित, बाला, जब संयोग ।
मरना सम उसके लिये, होता अगर वियोग ॥


1125
लड़ते दृग युत बाल के, गुण यदि जाऊँ भूल ।
तब तो कर सकता स्मरण, पर जाता नहिं भूल ॥


1126
दृग में से निकलें नहीं, मेरे सुभग सुजान ।
झपकी लूँ तो हो न दुख, वे हैं सूक्ष्म प्राण ॥


1127
यों विचार कर नयन में, करते वास सुजान ।
नहीं आंजतीं हम नयन, छिप जायेंगे जान ॥


1128
यों विचार कर हृदय में, करते वास सुजान ।
खाने से डर है गरम, जल जायेंगे जान ॥


      1129
झपकी लूँ तो ज्ञात है, होंगे नाथ विलीन ।
पर इससे पुरजन उन्हें, कहते प्रेम विहीन ॥


      1130
यद्यपि दिल में प्रिय सदा, रहे मज़े में लीन ।
पुरजन कहते तज चले, कहते प्रेम विहीन ॥

अध्याय 114. लज्जा-त्याग-कथन


1131
जो चखने पर प्रेम रस, सहें वेदना हाय ।
मडल’-सुरक्षा के बिना, उन्हें न सबल सहाय ॥


1132
आत्मा और शरीर भी, सह न सके जो आग ।
चढ़े मडलपर धैर्य से, करके लज्जा त्याग ॥


1133
पहले मेरे पास थीं, सुधीरता और लाज ।
कामी जन जिसपर चढ़ें, वही मडलहै आज ॥


1134
मेरी थी लज्जा तथा, सुधीरता की नाव ।
उसे बहा कर ले गया, भीषण काम-बहाव ॥


1135
माला सम चूड़ी सजे, जिस बाला के हाथ ।
उसने संध्या-विरह-दुख, दिया मडलके साथ ॥


1136
कटती मुग्धा की वजह, आँखों में ही रात ।
अर्द्ध-रात्रि में भी मडल’, आता ही है याद ॥


1137
काम-वेदना जलधि में, रहती मग्न यथेष्ट ।
फिर भी मडलन जो चढे, उस स्त्री से नहिं श्रेष्ठ ॥


1138
संयम से रहती तथा, दया-पात्र अति वाम ।
यह न सोच कर छिप न रह, प्रकट हुआ है काम ॥


      1139
मेरा काम यही समझ, सबको वह नहिं ज्ञात ।
नगर-वीथि में घूमता, है मस्ती के साथ ॥


      1140
रहे भुक्त-भोगी नहीं, यथा चुकी हूँ भोग ।
हँसते मेरे देखते, बुद्धि हीन जो लोग ॥

अध्याय 115. प्रवाद-जताना


1141
प्रचलन हुआ प्रवाद का, सो टिकता प्रिय प्राण ।
इसका मेरे भाग्य से, लोगों को नहिं ज्ञान ॥


1142
सुमन-नयन-युत बाल की, दुर्लभता नहिं जान ।
इस पुर ने अफवाह तो, की है मुझे प्रदान ॥


1143
क्या मेरे लायक नहीं, पुरजन-ज्ञात प्रवाह ।
प्राप्त किये बिन मिलन तो, हुई प्राप्त सी बात ॥


1144
पुरजन के अपवाद से, बढ़ जाता है काम ।
घट जायेगा अन्यथा, खो कर निज गुण-नाम ॥


1145
होते होते मस्त ज्यों, प्रिय लगता मधु-पान ।
हो हो प्रकट प्रवाद से, मधुर काम की बान ॥


1146
प्रिय से केवल एक दिन, हुई मिलन की बात ।
लेकिन चन्द्रग्रहण सम, व्यापक हुआ प्रवाद ॥


1147
पुरजन-निंदा खाद है, माँ का कटु वच नीर ।
इनसे पोषित रोग यह, बढ़ता रहा अधीर ॥


1148
काम-शमन की सोचना, कर अपवाद प्रचार ।
अग्नि-शमन घी डाल कर, करना सदृश विचार ॥


      1149
अपवादें से क्यों डरूँ, जब कर अभय प्रदान ।
सब को लज्जित कर गये, छोड़ मुझे प्रिय प्राण ॥


      1150
निज वांछित अपवाद का, पुर कर रहा प्रचार ।
चाहूँ तो प्रिय नाथ भी, कर देंगे उपकार ॥

अध्याय 116. विरह-वेदना


1151
अगर बिछुड़ जाते नहीं, मुझे जताओ नाथ ।
जो जियें उनसे कहो, झट फिरने की बात ॥


1152
पहले उनकी दृष्टि तो, देती थी सुख-भोग ।
विरह-भीति से दुखद है, अब उनका संयोग ॥


1153
विज्ञ नाथ का भी कभी, संभव रहा प्रवास ।
सो करना संभव नहीं, इनपर भी विश्वास ॥


1154
छोड़ चलेंगे यदि सदय, कर निर्भय का घोष ।
जो दृढ़-वच विश्वासिनी, उसका है क्या दोष ॥


1155
बचा सके तो यों बचा, जिससे चलें न नाथ ।
फिर मिलना संभव नहीं, छोड़ गये यदि साथ ॥


1156
विरह बताने तक हुए, इतने निठुर समर्थ ।
प्रेम करेंगे लौट कर, यह आशा है व्यर्थ ॥


1157
नायक ने जो छोड़ कर, गमन किया, वह बात ।
वलय कलाई से पतित, क्या न करें विख्यात ॥


1158
उस पुर में रहना दुखद, जहाँ न साथिन लोग ।
उससे भी बढ़ कर दुखद, प्रिय से रहा वियोग ॥


      1159
छूने पर ही तो जला, सकती है, बस आग ।
काम-ज्वर सम वह जला, सकती क्या, कर त्याग ॥


      1160
दुखद विरह को मानती, चिन्ता; व्याधि न नेक ।
विरह-वेदना सहन कर, जीवित रहीं अनेक ॥

अध्याय 117. विरह-क्षमा की व्यथा


1161
यथा उलीचे सोत का, बढ़ता रहे बहाव ।
बढ़ता है यह रोग भी, यदि मैं करूँ छिपाव ॥


1162
गोपन भी इस रोग का, है नहिं वश की बात ।
कहना भी लज्जाजनक, रोगकार से बात ॥


1163
मेरी दुबली देह में, प्राणरूप जो डांड ।
लटके उसके छोर में, काम व लज्जा कांड ॥


1164
काम-रोग का तो रहा, पारावार अपार ।
पर रक्षक बेड़ा नहीं, उसको करने पार ॥


1165
जो देते हैं वेदना, रह कर प्रिय जन, खैर ।
क्या कर बैठेंगे अहो, यदि रखते हैं वैर ॥


1166
जो है, बस, यह काम तो, सुख का पारावार ।
पीडा दे तो दुःख है, उससे बड़ा अपार ॥


1167
पार न पाती पैर कर, काम-समुद्र महान ।
अर्द्ध रात्रि में भी निविड़, रही अकेली जान ॥


1168
सुला जीव सब को रही, दया-पात्र यह रात ।
इसको मुझको छोड़ कर, और न कोई साथ ॥


      1169
ये रातें जो आजकल, लम्बी हुई अथोर ।
निष्ठुर के नैष्ठुर्य से, हैं खुद अधिक कठोर ॥


      1170
चल सकते हैं प्रिय के यहाँ, यदि झट हृदय समान ।
नहीं तैरते बाढ़ में, यों मेरे दृग, जान ॥

अध्याय 118. नेत्रों का आतुरता से क्षय


1171
अब राते हैं क्यों नयन, स्वयं दिखा आराध्य ।
मुझे हुआ यह रोग है, जो बन गया असाध्य ॥


1172
सोचे समझे बिन नयन, प्रिय को उस दिन देख ।
अब क्यों होते हैं व्यक्ति, रखते कुछ न विवेक ॥


1173
नयनों ने देखा स्वयं, आतुरता के साथ ।
अब जो रोते हैं स्वयं, है हास्यास्पद बात ॥


1174
मुझमें रुज उत्पन्न कर, असाध्य औअनिवार्य ।
सूख गये, ना कर सके, दृग रोने का कार्य ॥


1175
काम-रोग उत्पन्न कर, सागर से विस्तार ।
नींद न पा मेरे नयन, सहते दुःख अपार ॥


1176
ओहो यह अति सुखद है, मुझको दुख में डाल ।
अब ये दृग सहते स्वयं, यह दुख, हो बेहाल ॥


1177
दिल पसीज, थे देखते, सदा उन्हें दृग सक्त ।
सूख जाय दृग-स्रोत अब, सह सह पीड़ा सख्त ॥


1178
वचन मात्र से प्रेम कर, दिल से किया न प्रेम ।
उस जन को देखे बिना, नेत्रों को नहिं क्षेम ॥


      1179
ना आवें तो नींद नहिं, आवें, नींद न आय ।
दोनों हालों में नयन, सहते हैं अति हाय ॥


      1180
मेरे सम जिनके नयन, पिटते ढोल समान ।
उससे पुरजन को नहीं, कठिन भेद का ज्ञान ॥

अध्याय 119. पीलापन-जनित पीड़ा


1181
प्रिय को जाने के लिये, सम्मति दी उस काल ।
अब जा कर किससे कहूँ, निज पीलापन-हाल ॥


1182
पीलापन यह गर्व कर, ‘मैं हूँ उनसे प्राप्त
चढ़ कर मेरी देह में, हो जाता है व्याप्त ॥


1183
पीलापन औरोग का, करके वे प्रतिदान ।
मेरी छवि औलाज का, ले कर चले सुदान ॥


1184
उनके गुण का स्मरण कर, करती हूँ गुण-गान ।
फिर भी पीलापन चढ़ा, तो क्या यह धोखा न ॥


1185
वह देखो, जाते बिछुड़, मेरे प्रियतम आप्त ।
यह देखो, इस देह पर, पीलापन है व्याप्त ॥


1186
दीपक बुझने की यथा, तम की जो है ताक ।
प्रिय-आलिंगन ढील पर, पैलापन की ताक ॥


1187
आलिंगन करके रही, करवट बदली थोर ।
उस क्षण जम कर छा गया, पीलापन यह घोर ॥


1188
यह है पीली पड़ गयी’, यों करते हैं बात ।
इसे त्याग कर वे गये, यों करते नहिं बात ॥


      1189
मुझे मना कर तो गये, यदि सकुशल हों नाथ ।
तो मेरा तन भी रहे, पीलापन के साथ ॥


      1190
अच्छा है पाना स्वयं, पीलापन का नाम ।
प्रिय का तजना बन्धुजन, यदि न करें बदनाम ॥

अध्याय 120. विरह-वेदनातिरेक


1191
जिससे अपना प्यार है, यदि पाती वह प्यार ।
बीज रहित फल प्रेम का, पाती है निर्धार ॥


1192
जीवों का करता जलद, ज्यों जल दे कर क्षेम ।
प्राण-पियारे का रहा, प्राण-प्रिया से प्रेम ॥


1193
जिस नारी को प्राप्त है, प्राण-नाथ का प्यार ।
जीऊँगीयों गर्व का, उसको है अधिकार ॥


1194
उसकी प्रिया बनी नहीं, जो उसका है प्रेय ।
तो बहुमान्या नारि भी, पुण्यवति नहिं ज्ञेय ॥


1195
प्यार किया मैंने जिन्हें, यदि खुद किया न प्यार ।
तो उनसे क्या हो सके, मेरा कुछ उपकार ॥


1196
प्रेम एक-तरफ़ा रहे, तो है दुखद अपार ।
दोय तरफ़ हो तो सुखद, ज्यों डंडी पर भार ॥


1197
जम कर सक्रिय एक में, रहा मदन बेदर्द ।
क्या वह समझेगा नहीं, मेरा दुःख व दर्द ॥


1198
प्रियतम से पाये बिना, उसका मधुमय बैन ।
जग में जीती स्त्री सदृश, कोई निष्ठुर है न ॥


      1199
प्रेम रहित प्रियतम रहे, यद्यपि है यह ज्ञात ।
कर्ण मधुर ही जो मिले, उनकी कोई बात ॥


      1200
प्रेम हीन से कठिन रुज, कहने को तैयार ।
रे दिल ! तू चिरजीव रह ! सुखा समुद्र अपार ॥

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