अध्याय 71. भावज्ञता
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701
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बिना कहे जो जान ले, मुख-मुद्रा
से भाव ।
सदा रहा वह भूमि का, भूषण महानुभाव
॥
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702
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बिना किसी संदेह के, हृदयस्थित
सब बात ।
जो जाने मानो उसे, देव तुल्य
साक्षात ॥
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703
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मनोभाव मुख-भाव से, जो जानता
निहार ।
अंगों में कुछ भी दिला, करो उसे
स्वीकार ॥
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704
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बिना कहे भावज्ञ हैं, उनके सम
भी लोग ।
आकृति में तो हैं मगर, रहें भिन्न
वे लोग ॥
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705
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यदि नहिं जाना भाव को, मुख-मुद्रा
अवलोक ।
अंगों में से आँख का, क्या होगा
उपयोग ॥
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706
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बिम्बित करता स्फटिक ज्यों, निकट वस्तु
का रंग ।
मन के अतिशय भाव को, मुख करता
बहिरंग ॥
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707
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मुख से बढ़ कर बोधयुत, है क्या
वस्तु विशेष ।
पहले वह बिम्बित करे, प्रसन्नता
या द्वेष ॥
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708
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बीती समझे देखकर, यदि ऐसा
नर प्राप्त ।
अभिमुख उसके हो खड़े, रहना है
पर्याप्त ॥
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709
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बतलायेंगे नेत्र ही, शत्रु-मित्र
का भाव ।
अगर मिलें जो जानते, दृग का
भिन्न स्वभाव ॥
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710
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जो कहते हैं, ‘हम रहे’, सूक्ष्म
बुद्धि से धन्य ।
मान-दण्ड उनका रहा, केवल नेत्र, न अन्य
॥
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अध्याय 72. सभा-ज्ञान
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711
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शब्द-शक्ति के ज्ञानयुत, जो हैं
पावन लोग ।
समझ सभा को, सोच कर, करना शब्द-प्रयोग
॥
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712
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शब्दों की शैली समझ, जिनको
है अधिकार ।
सभासदों का देख रुख़, बोलें
स्पष्ट प्रकार ॥
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713
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उद्यत हो जो बोलने, सभा-प्रकृति
से अज्ञ ।
भाषण में असमर्थ वे, शब्द-रीति से
अज्ञ ॥
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714
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प्राज्ञों के सम्मुख रहो, तुम भी
प्राज्ञ सुजान ।
मूर्खों के सम्मुख बनो, चून सफेद
समान ॥
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715
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भले गुणों में है भला, ज्ञानी
गुरुजन मध्य ।
आगे बढ़ बोलें नहीं, ऐसा संयम
पथ्य ॥
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716
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विद्वानों के सामने, जिनका
विस्तृत ज्ञान ।
जो पा गया कलंक, वह, योग-भ्रष्ट
समान ॥
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717
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निपुण पारखी शब्द के, जो हैं, उनके पास
।
विद्वत्ता शास्त्रज्ञ की, पाती खूब
प्रकाश ॥
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718
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बुद्धिमान के सामने, जो बोलता
सुजान ।
क्यारी बढ़ती फसल की, यथा सींचना
जान ॥
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719
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सज्जन-मण्डल में करें, जो प्रभावकर
बात ।
मूर्ख-सभा में भूल भी, करें न
कोई बात ॥
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720
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यथा उँडेला अमृत है, आंगन में
अपवित्र ।
भाषण देना है वहाँ, जहाँ न
गण हैं मित्र ॥
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अध्याय 73. सभा में निर्भीकता
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721
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शब्द शक्ति के ज्ञानयुत, जो जन
हैं निर्दोष ।
प्राज्ञ-सभा में ढब समझ, करें न
शब्द सदोष ॥
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722
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जो प्रभावकर ढ़ंग से, आर्जित
शास्त्र-ज्ञान ।
प्रगटे विज्ञ-समझ, वह, विज्ञों
में विद्वान ॥
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723
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शत्रु-मध्य मरते निडर, मिलते
सुलभ अनेक ।
सभा-मध्य भाषण निडर, करते दुर्लभ
एक ॥
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724
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विज्ञ-मध्य स्वज्ञान की, कर प्रभावकर
बात ।
अपने से भी विज्ञ से, सीखो विशेष
बात ॥
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725
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सभा-मध्य निर्भीक हो, उत्तर
देने ठीक ।
शब्द-शास्त्र, फिर ध्यान से, तर्क-शास्त्र
भी सीख ॥
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726
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निडर नहीं हैं जो उन्हें, खाँडे
से क्या काम ।
सभा-भीरु जो हैं उन्हें, पोथी से
क्या काम ॥
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727
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सभा-भीरु को प्राप्त है, जो भी
शास्त्र-ज्ञान ।
कायर-कर रण-भूमि में, तीक्षण
खड्ग समान ॥
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728
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रह कर भी बहु शास्त्रविद, है ही
नहिं उपयोग ।
विज्ञ-सभा पर असर कर, कह न सके
जो लोग ॥
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729
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जो होते भयभीत हैं, विज्ञ-सभा के
बीच ।
रखते शास्त्रज्ञान भी, अनपढ़ से
हैं नीच ॥
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730
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जो प्रभावकर ढ़ंग से, कह न सका
निज ज्ञान ।
सभा-भीरु वह मृतक सम, यद्यपि
है सप्राण ॥
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अध्याय 74. राष्ट्र
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731
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अक्षय उपज सुयोग्य जन, ह्रासहीन
धनवान ।
मिल कर रहते हैं जहाँ, है वह
राष्ट्र महान ॥
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732
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अति धन से कमनीय बन, नाशहीनता
युक्त ।
प्रचुर उपज होती जहाँ, राष्ट्र
वही है उक्त ॥
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733
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एक साथ जब आ पड़ें, तब भी
सह सब भार ।
देता जो राजस्व सब, है वह
राष्ट्र अपार ॥
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734
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भूख अपार न है जहाँ, रोग निरंतर
है न ।
और न नाशक शत्रु भी, श्रेष्ठ
राष्ट्र की सैन ॥
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735
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होते नहीं, विभिन्न दल, नाशक अंतर-वैर ।
नृप-कंटक खूनी नहीं, वही राष्ट्र
है, ख़ैर ॥
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736
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नाश न होता, यदि हुआ, तो भी
उपज यथेष्ट ।
जिसमें कम होती नहीं, वह राष्ट्रों
में श्रेष्ठ ॥
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737
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कूप सरोवर नद-नदी, इनके पानी
संग ।
सुस्थित पर्वत सुदृढ़ गढ़, बनते राष्ट्र-सुअंग
॥
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738
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प्रचुर उपज, नीरोगता, प्रसन्नता, ऐश्वर्य
।
और सुरक्षा, पाँच हैं, राष्ट्र-अलंकृति
वर्य ॥
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739
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राष्ट्र वही जिसकी उपज, होती है
बिन यत्न ।
राष्ट्र नहीं वह यदि उपज, होती है
कर यत्न ॥
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740
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उपर्युक्त साधन सभी, होते हुए
अपार ।
प्रजा-भूप-सद्भाव बिन, राष्ट्र
रहा बेकार ॥
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अध्याय 75. दुर्ग
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741
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आक्रामक को दुर्ग है, साधन महत्वपूर्ण
।
शरणार्थी-रक्षक वही, जो रिपु-भय से
चूर्ण ॥
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742
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मणि सम जल, मरु भूमि औ’, जंगल घना
पहाड़ ।
कहलाता है दुर्ग वह, जब हो
इनसे आड़ ॥
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743
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उँचा, चौड़ा और दृढ़, अगम्य भी अत्यंत ।
चारों गुणयुत दुर्ग है, यों कहते
हैं ग्रन्थ ॥
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744
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अति विस्तृत होते हुए, रक्षणीय
थल तंग ।
दुर्ग वही जो शत्रु का, करता नष्ट
उमंग ॥
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745
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जो रहता दुर्जेय है, रखता यथेष्ट
अन्न ।
अंतरस्थ टिकते सुलभ, दुर्ग
वही संपन्न ॥
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746
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कहलाता है दुर्ग वह, जो रख
सभी पदार्थ ।
देता संकट काल में, योग्य वीर रक्षार्थ ॥ |
747
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पिल पड़ कर या घेर कर, या करके
छलछिद्र ।
जिसको हथिया ना सके, है वह दुर्ग विचित्र ॥ |
748
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दुर्ग वही यदि चतुर रिपु, घेरा डालें
घोर ।
अंतरस्थ डट कर लडें, पावें जय बरज़ोर ॥ |
749
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शत्रु-नाश हो युद्ध में, ऐसे शस्त्र
प्रयोग ।
करने के साधन जहाँ, है गढ़ वही अमोघ ॥ |
750
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गढ़-रक्षक रण-कार्य में, यदि हैं
नहीं समर्थ ।
अत्युत्तम गढ़ क्यों न हो, होता है वह व्यर्थ ॥ |
अध्याय 76. वित्त-साधन-विधि
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751
|
धन जो देता है बना, नगण्य
को भी गण्य ।
उसे छोड़ कर मनुज को, गण्य वस्तु
नहिं अन्य ॥
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752
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निर्धन लोगो का सभी, करते हैं
अपमान ।
धनवनों का तो सभी, करते हैं
सम्मन ॥
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753
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धनरूपी दीपक अमर, देता हुआ
प्रकाश ।
मनचाहा सब देश चल, करता है
नम-नाश ॥
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754
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पाप-मार्ग को छोड़कर, न्याय
रीति को जान ।
अर्जित धन है सुखद औ’, करता धर्म
प्रदान ॥
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755
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दया और प्रिय भाव से, प्राप्त
नहीं जो वित्त ।
जाने दो उस लाभ को, जमे न
उसपर चित्त ॥
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756
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धन जिसका वारिस नहीं, धन चूँगी
से प्राप्त ।
विजित शत्रु का भेंट-धन, धन हैं
नृप हित आप्त ॥
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757
|
जन्माता है प्रेम जो, दयारूप
शिशु सुष्ट ।
पालित हो धन-धाय से, होता है
बह पुष्ट ॥
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758
|
निज धन रखते हाथ में, करना कोई
कार्य ।
गिरि पर चढ़ गज-समर का, ईक्षण
सदृश विचार्य ॥
|
759
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शत्रु-गर्व को चिरने, तेज शास्त्र
जो सिद्ध ।
धन से बढ़ कर है नहीं, सो संग्रह
कर वित्त ॥
|
760
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धर्म, काम दोनों सुलभ, मिलते
हैं इक साथ ।
न्यायार्जित धन प्रचुर हो, लगता जिसके
हाथ ॥
|
अध्याय 77. सैन्य-माहात्म्य
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761
|
सब अंगों से युक्त हो, क्षत से
जो निर्भीक ।
जयी सैन्य है भूप के, ऐश्वर्यों
में नीक ॥
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762
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छोटा फिर भी विपद में, निर्भय
सहना चोट ।
यह साहस संभव नहीं, मूल सैन्य
को छोड़ ॥
|
763
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चूहे-शत्रु समुद्र सम, गरजें
तो क्या कष्ट ।
सर्पराज फुफकारते, होते हैं
सब नष्ट ॥
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764
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अविनाशी रहते हुए, छल का
हो न शिकार ।
पुश्तैनी साहस जहाँ, वही सैन्य
निर्धार ॥
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765
|
क्रोधिक हो यम आ भिड़े, फिर भी
हो कर एक ।
जो समर्थ मुठ-भेड़ में, सैन्य
वही है नेक ॥
|
766
|
शौर्य, मान, विश्वस्तता, करना सद्व्यवहार
।
ये ही सेना के लिये, रक्षक
गुण हैं चार ॥
|
767
|
चढ़ आने पर शत्रु के, व्यूह
समझ रच व्यूह ।
रोक चढ़ाई खुद चढ़े, यही सैन्य
की रूह ॥
|
768
|
यद्यपि संहारक तथा, सहन शक्ति
से हीन ।
तड़क-भड़क से पायगी, सेना नाम
धुरीण ॥
|
769
|
लगातार करना घृणा, क्षय होना
औ’ दैन्य ।
जिसमें ये होते नहीं, पाता जय
वह सैन्य ॥
|
770
|
रखने पर भी सैन्य में, अगणित
स्थायी वीर ।
स्थायी वह रहता नहीं, बिन सेनापति
धीर ॥
|
अध्याय 78. सैन्य-साहस
|
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771
|
डटे रहो मत शत्रुओ, मेरे अधिप
समक्ष ।
डट कर कई शिला हुए, मेरे अधिप
समक्ष ॥
|
772
|
वन में शश पर जो लगा, धरने से
वह बाण ।
गज पर चूके भाल को, धरने में
है मान ॥
|
773
|
निर्दय साहस को कहें, महा धीरता
सार ।
संकट में उपकार है, उसकी तीक्षण
धार ॥
|
774
|
कर-भाला गज पर चला, फिरा खोजते
अन्य ।
खींच भाल छाती लगा, हर्षित
हुआ सुधन्य ॥
|
775
|
क्रुद्ध नेत्र यदि देख कर, रिपु का
भाल-प्रहार ।
झपकेंगे तो क्या नहीं, वह वीरों
को हार ॥
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776
|
‘गहरा घाव लगा नहीं’, ऐसे दिन सब व्यर्थ ।
बीते निज दिन गणन कर, यों मानता
समर्थ ॥
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777
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जग व्यापी यश चाहते, प्राणों
की नहिं चाह ।
ऐसों का धरना कड़ा, शोभाकर
है, वाह ॥
|
778
|
प्राण-भय-रहित वीर
जो, जब छिड़ता है युद्ध ।
साहस खो कर ना रुकें, नृप भी
रोकें क्रुद्ध ॥
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779
|
प्रण रखने हित प्राण भी, छोड़ेंगे
जो चण्ड ।
कौन उन्हें प्रण-भंग का, दे सकता
है दण्ड़ ॥
|
780
|
दृग भर आये भूप के, सुन जिसका
देहांत ।
ग्रहण योग्य है माँग कर, उसका जैसा
अंत ॥
|
अध्याय 79. मैत्री
|
|
781
|
करने को मैत्री सदृश, कृति है
कौन महान ।
दुर्लभ-रक्षक शत्रु से, उसके कौन
समान ॥
|
782
|
प्राज्ञ मित्रता यों बढ़े, यथा दूज
का चाँद ।
मूर्ख मित्रता यों घटे, ज्यों
पूनो के बाद ॥
|
783
|
करते करते अध्ययन्, अधिक सुखद
ज्यों ग्रन्थ ।
परिचय बढ़ बढ़ सुजन की, मैत्री
दे आनन्द ॥
|
784
|
हँसी-खेल करना नहीं, मैत्री
का उपकार ।
आगे बढ़ अति देख कर, करना है
फटकार ॥
|
785
|
परिचय औ’ संपर्क की, नहीं ज़रूरत
यार ।
देता है भावैक्य ही, मैत्री
का अधिकार ॥
|
786
|
केवल मुख खिल जाय तो, मैत्री
कहा न जाय ।
सही मित्रता है वही, जिससे
जी खिल जाय ॥
|
787
|
चला सुपथ पर मित्र को, हटा कुपथ
से दूर ।
सह सकती दुख विपद में, मैत्री
वही ज़रूर ॥
|
788
|
ज्यों धोती के खिसकते, थाम उसे
ले हस्त ।
मित्र वही जो दुःख हो, तो झट
कर दे पस्त ॥
|
789
|
यथा शक्ति सब काल में, भेद बिना
उपकार ।
करने की क्षमता सुदृढ़, है मैत्री-दरबार
॥
|
790
|
‘ऐसे ये मेरे लिये’, ‘मैं हूँ इनका यार’ ।
मैत्री की महिमा गयी, यों करते
उपचार ॥
|
अध्याय 80. मैत्री की परख
|
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791
|
जाँचे बिन मैत्री सदृश, हानि नहीं
है अन्य ।
मित्र बना तो छूट नहीं, जिसमें
वह सौजन्य ॥
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792
|
परख परख कर जो नहीं, किया गया
सौहार्द ।
मरण दिलाता अन्त में, यों, करता वह
आर्त ॥
|
793
|
गुण को कुल को दोष को, जितने
बन्धु अनल्प ।
उन सब को भी परख कर, कर मैत्री
का कल्प ॥
|
794
|
जो लज्जित बदनाम से, रहते हैं
कुलवान ।
कर लो उनकी मित्रता, कर भी
मूल्य-प्रदान ॥
|
795
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झिड़की दे कर या रुला, समझावे
व्यवहार ।
ऐसे समर्थ को परख, मैत्री
कर स्वीकार ॥
|
796
|
होने पर भी विपद के, बड़ा लाभ
है एक ।
मित्र-खेत सब मापता, मान-दंड वह
एक ॥
|
797
|
मूर्खों के सौहार्द से, बच कर
तजना साफ़ ।
इसको ही नर के लिये, कहा गया
है लाभ ॥
|
798
|
ऐसे कर्म न सोचिये, जिनसे
घटे उमंग ।
मित्र न हो जो दुख में, छोड़ जायगा
संग ॥
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799
|
विपद समय जो बन्धु जन, साथ छोड़
दें आप ।
मरण समय भी वह स्मरण, दिल को
देगा ताप ॥
|
800
|
निर्मल चरित्रवान की, मैत्री
लेना जोड़ ।
कुछ दे सही अयोग्य की, मैत्री
देना छोड़ ॥
|
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