Monday, 20 June 2005

अध्याय 71 से 80



अध्याय 71. भावज्ञता


701
बिना कहे जो जान ले, मुख-मुद्रा से भाव ।
सदा रहा वह भूमि का, भूषण महानुभाव ॥


702
बिना किसी संदेह के, हृदयस्थित सब बात ।
जो जाने मानो उसे, देव तुल्य साक्षात ॥


703
मनोभाव मुख-भाव से, जो जानता निहार ।
अंगों में कुछ भी दिला, करो उसे स्वीकार ॥


704
बिना कहे भावज्ञ हैं, उनके सम भी लोग ।
आकृति में तो हैं मगर, रहें भिन्न वे लोग ॥


705
यदि नहिं जाना भाव को, मुख-मुद्रा अवलोक ।
अंगों में से आँख का, क्या होगा उपयोग ॥


706
बिम्बित करता स्फटिक ज्यों, निकट वस्तु का रंग ।
मन के अतिशय भाव को, मुख करता बहिरंग ॥


707
मुख से बढ़ कर बोधयुत, है क्या वस्तु विशेष ।
पहले वह बिम्बित करे, प्रसन्नता या द्वेष ॥


708
बीती समझे देखकर, यदि ऐसा नर प्राप्त ।
अभिमुख उसके हो खड़े, रहना है पर्याप्त ॥


        709
बतलायेंगे नेत्र ही, शत्रु-मित्र का भाव ।
अगर मिलें जो जानते, दृग का भिन्न स्वभाव ॥


        710
जो कहते हैं, ‘हम रहे’, सूक्ष्म बुद्धि से धन्य ।
मान-दण्ड उनका रहा, केवल नेत्र, न अन्य ॥

अध्याय 72. सभा-ज्ञान


711
शब्द-शक्ति के ज्ञानयुत, जो हैं पावन लोग ।
समझ सभा को, सोच कर, करना शब्द-प्रयोग ॥


712
शब्दों की शैली समझ, जिनको है अधिकार ।
सभासदों का देख रुख़, बोलें स्पष्ट प्रकार ॥


713
उद्यत हो जो बोलने, सभा-प्रकृति से अज्ञ ।
भाषण में असमर्थ वे, शब्द-रीति से अज्ञ ॥


714
प्राज्ञों के सम्मुख रहो, तुम भी प्राज्ञ सुजान ।
मूर्खों के सम्मुख बनो, चून सफेद समान ॥


715
भले गुणों में है भला, ज्ञानी गुरुजन मध्य ।
आगे बढ़ बोलें नहीं, ऐसा संयम पथ्य ॥


716
विद्वानों के सामने, जिनका विस्तृत ज्ञान ।
जो पा गया कलंक, वह, योग-भ्रष्ट समान ॥


717
निपुण पारखी शब्द के, जो हैं, उनके पास ।
विद्वत्ता शास्त्रज्ञ की, पाती खूब प्रकाश ॥


718
बुद्धिमान के सामने, जो बोलता सुजान ।
क्यारी बढ़ती फसल की, यथा सींचना जान ॥


        719
सज्जन-मण्डल में करें, जो प्रभावकर बात ।
मूर्ख-सभा में भूल भी, करें न कोई बात ॥


        720
यथा उँडेला अमृत है, आंगन में अपवित्र ।
भाषण देना है वहाँ, जहाँ न गण हैं मित्र ॥

अध्याय 73. सभा में निर्भीकता


721
शब्द शक्ति के ज्ञानयुत, जो जन हैं निर्दोष ।
प्राज्ञ-सभा में ढब समझ, करें न शब्द सदोष ॥


722
जो प्रभावकर ढ़ंग से, आर्जित शास्त्र-ज्ञान ।
प्रगटे विज्ञ-समझ, वह, विज्ञों में विद्वान ॥


723
शत्रु-मध्य मरते निडर, मिलते सुलभ अनेक ।
सभा-मध्य भाषण निडर, करते दुर्लभ एक ॥


724
विज्ञ-मध्य स्वज्ञान की, कर प्रभावकर बात ।
अपने से भी विज्ञ से, सीखो विशेष बात ॥


725
सभा-मध्य निर्भीक हो, उत्तर देने ठीक ।
शब्द-शास्त्र, फिर ध्यान से, तर्क-शास्त्र भी सीख ॥


726
निडर नहीं हैं जो उन्हें, खाँडे से क्या काम ।
सभा-भीरु जो हैं उन्हें, पोथी से क्या काम ॥


727
सभा-भीरु को प्राप्त है, जो भी शास्त्र-ज्ञान ।
कायर-कर रण-भूमि में, तीक्षण खड्ग समान ॥


728
रह कर भी बहु शास्त्रविद, है ही नहिं उपयोग ।
विज्ञ-सभा पर असर कर, कह न सके जो लोग ॥


        729
जो होते भयभीत हैं, विज्ञ-सभा के बीच ।
रखते शास्त्रज्ञान भी, अनपढ़ से हैं नीच ॥


        730
जो प्रभावकर ढ़ंग से, कह न सका निज ज्ञान ।
सभा-भीरु वह मृतक सम, यद्यपि है सप्राण ॥

अध्याय 74. राष्ट्र


731
अक्षय उपज सुयोग्य जन, ह्रासहीन धनवान ।
मिल कर रहते हैं जहाँ, है वह राष्ट्र महान ॥


732
अति धन से कमनीय बन, नाशहीनता युक्त ।
प्रचुर उपज होती जहाँ, राष्ट्र वही है उक्त ॥


733
एक साथ जब आ पड़ें, तब भी सह सब भार ।
देता जो राजस्व सब, है वह राष्ट्र अपार ॥


734
भूख अपार न है जहाँ, रोग निरंतर है न ।
और न नाशक शत्रु भी, श्रेष्ठ राष्ट्र की सैन ॥


735
होते नहीं, विभिन्न दल, नाशक अंतर-वैर ।
नृप-कंटक खूनी नहीं, वही राष्ट्र है, ख़ैर ॥


736
नाश न होता, यदि हुआ, तो भी उपज यथेष्ट ।
जिसमें कम होती नहीं, वह राष्ट्रों में श्रेष्ठ ॥


737
कूप सरोवर नद-नदी, इनके पानी संग ।
सुस्थित पर्वत सुदृढ़ गढ़, बनते राष्ट्र-सुअंग ॥


738
प्रचुर उपज, नीरोगता, प्रसन्नता, ऐश्वर्य ।
और सुरक्षा, पाँच हैं, राष्ट्र-अलंकृति वर्य ॥


        739
राष्ट्र वही जिसकी उपज, होती है बिन यत्न ।
राष्ट्र नहीं वह यदि उपज, होती है कर यत्न ॥


        740
उपर्युक्त साधन सभी, होते हुए अपार ।
प्रजा-भूप-सद्भाव बिन, राष्ट्र रहा बेकार ॥

अध्याय 75. दुर्ग


741
आक्रामक को दुर्ग है, साधन महत्वपूर्ण ।
शरणार्थी-रक्षक वही, जो रिपु-भय से चूर्ण ॥


742
मणि सम जल, मरु भूमि औ’, जंगल घना पहाड़ ।
कहलाता है दुर्ग वह, जब हो इनसे आड़ ॥


743
उँचा, चौड़ा और दृढ़, अगम्य भी अत्यंत ।
चारों गुणयुत दुर्ग है, यों कहते हैं ग्रन्थ ॥


744
अति विस्तृत होते हुए, रक्षणीय थल तंग ।
दुर्ग वही जो शत्रु का, करता नष्ट उमंग ॥


745
जो रहता दुर्जेय है, रखता यथेष्ट अन्न ।
अंतरस्थ टिकते सुलभ, दुर्ग वही संपन्न ॥


746
कहलाता है दुर्ग वह, जो रख सभी पदार्थ ।
देता संकट काल में, योग्य वीर रक्षार्थ ॥


747
पिल पड़ कर या घेर कर, या करके छलछिद्र ।
जिसको हथिया ना सके, है वह दुर्ग विचित्र ॥


748
दुर्ग वही यदि चतुर रिपु, घेरा डालें घोर ।
अंतरस्थ डट कर लडें, पावें जय बरज़ोर ॥


        749
शत्रु-नाश हो युद्ध में, ऐसे शस्त्र प्रयोग ।
करने के साधन जहाँ, है गढ़ वही अमोघ ॥


        750
गढ़-रक्षक रण-कार्य में, यदि हैं नहीं समर्थ ।
अत्युत्तम गढ़ क्यों न हो, होता है वह व्यर्थ ॥

अध्याय 76. वित्त-साधन-विधि


751
धन जो देता है बना, नगण्य को भी गण्य ।
उसे छोड़ कर मनुज को, गण्य वस्तु नहिं अन्य ॥


752
निर्धन लोगो का सभी, करते हैं अपमान ।
धनवनों का तो सभी, करते हैं सम्मन ॥


753
धनरूपी दीपक अमर, देता हुआ प्रकाश ।
मनचाहा सब देश चल, करता है नम-नाश ॥


754
पाप-मार्ग को छोड़कर, न्याय रीति को जान ।
अर्जित धन है सुखद औ’, करता धर्म प्रदान ॥


755
दया और प्रिय भाव से, प्राप्त नहीं जो वित्त ।
जाने दो उस लाभ को, जमे न उसपर चित्त ॥


756
धन जिसका वारिस नहीं, धन चूँगी से प्राप्त ।
विजित शत्रु का भेंट-धन, धन हैं नृप हित आप्त ॥


757
जन्माता है प्रेम जो, दयारूप शिशु सुष्ट ।
पालित हो धन-धाय से, होता है बह पुष्ट ॥


758
निज धन रखते हाथ में, करना कोई कार्य ।
गिरि पर चढ़ गज-समर का, ईक्षण सदृश विचार्य ॥


        759
शत्रु-गर्व को चिरने, तेज शास्त्र जो सिद्ध ।
धन से बढ़ कर है नहीं, सो संग्रह कर वित्त ॥


        760
धर्म, काम दोनों सुलभ, मिलते हैं इक साथ ।
न्यायार्जित धन प्रचुर हो, लगता जिसके हाथ ॥

अध्याय 77. सैन्य-माहात्म्य


761
सब अंगों से युक्त हो, क्षत से जो निर्भीक ।
जयी सैन्य है भूप के, ऐश्वर्यों में नीक ॥


762
छोटा फिर भी विपद में, निर्भय सहना चोट ।
यह साहस संभव नहीं, मूल सैन्य को छोड़ ॥


763
चूहे-शत्रु समुद्र सम, गरजें तो क्या कष्ट ।
सर्पराज फुफकारते, होते हैं सब नष्ट ॥


764
अविनाशी रहते हुए, छल का हो न शिकार ।
पुश्तैनी साहस जहाँ, वही सैन्य निर्धार ॥


765
क्रोधिक हो यम आ भिड़े, फिर भी हो कर एक ।
जो समर्थ मुठ-भेड़ में, सैन्य वही है नेक ॥


766
शौर्य, मान, विश्वस्तता, करना सद्व्यवहार ।
ये ही सेना के लिये, रक्षक गुण हैं चार ॥


767
चढ़ आने पर शत्रु के, व्यूह समझ रच व्यूह ।
रोक चढ़ाई खुद चढ़े, यही सैन्य की रूह ॥


768
यद्यपि संहारक तथा, सहन शक्ति से हीन ।
तड़क-भड़क से पायगी, सेना नाम धुरीण ॥


        769
लगातार करना घृणा, क्षय होना औदैन्य ।
जिसमें ये होते नहीं, पाता जय वह सैन्य ॥


        770
रखने पर भी सैन्य में, अगणित स्थायी वीर ।
स्थायी वह रहता नहीं, बिन सेनापति धीर ॥

अध्याय 78. सैन्य-साहस


771
डटे रहो मत शत्रुओ, मेरे अधिप समक्ष ।
डट कर कई शिला हुए, मेरे अधिप समक्ष ॥


772
वन में शश पर जो लगा, धरने से वह बाण ।
गज पर चूके भाल को, धरने में है मान ॥


773
निर्दय साहस को कहें, महा धीरता सार ।
संकट में उपकार है, उसकी तीक्षण धार ॥


774
कर-भाला गज पर चला, फिरा खोजते अन्य ।
खींच भाल छाती लगा, हर्षित हुआ सुधन्य ॥


775
क्रुद्ध नेत्र यदि देख कर, रिपु का भाल-प्रहार ।
झपकेंगे तो क्या नहीं, वह वीरों को हार ॥


776
गहरा घाव लगा नहीं’, ऐसे दिन सब व्यर्थ ।
बीते निज दिन गणन कर, यों मानता समर्थ ॥


777
जग व्यापी यश चाहते, प्राणों की नहिं चाह ।
ऐसों का धरना कड़ा, शोभाकर है, वाह ॥


778
प्राण-भय-रहित वीर जो, जब छिड़ता है युद्ध ।
साहस खो कर ना रुकें, नृप भी रोकें क्रुद्ध ॥


        779
प्रण रखने हित प्राण भी, छोड़ेंगे जो चण्ड ।
कौन उन्हें प्रण-भंग का, दे सकता है दण्ड़ ॥


        780
दृग भर आये भूप के, सुन जिसका देहांत ।
ग्रहण योग्य है माँग कर, उसका जैसा अंत ॥

अध्याय 79. मैत्री


781
करने को मैत्री सदृश, कृति है कौन महान ।
दुर्लभ-रक्षक शत्रु से, उसके कौन समान ॥


782
प्राज्ञ मित्रता यों बढ़े, यथा दूज का चाँद ।
मूर्ख मित्रता यों घटे, ज्यों पूनो के बाद ॥


783
करते करते अध्ययन्, अधिक सुखद ज्यों ग्रन्थ ।
परिचय बढ़ बढ़ सुजन की, मैत्री दे आनन्द ॥


784
हँसी-खेल करना नहीं, मैत्री का उपकार ।
आगे बढ़ अति देख कर, करना है फटकार ॥


785
परिचय औसंपर्क की, नहीं ज़रूरत यार ।
देता है भावैक्य ही, मैत्री का अधिकार ॥


786
केवल मुख खिल जाय तो, मैत्री कहा न जाय ।
सही मित्रता है वही, जिससे जी खिल जाय ॥


787
चला सुपथ पर मित्र को, हटा कुपथ से दूर ।
सह सकती दुख विपद में, मैत्री वही ज़रूर ॥


788
ज्यों धोती के खिसकते, थाम उसे ले हस्त ।
मित्र वही जो दुःख हो, तो झट कर दे पस्त ॥


        789
यथा शक्ति सब काल में, भेद बिना उपकार ।
करने की क्षमता सुदृढ़, है मैत्री-दरबार ॥


        790
ऐसे ये मेरे लिये’, ‘मैं हूँ इनका यार
मैत्री की महिमा गयी, यों करते उपचार ॥

अध्याय 80. मैत्री की परख


791
जाँचे बिन मैत्री सदृश, हानि नहीं है अन्य ।
मित्र बना तो छूट नहीं, जिसमें वह सौजन्य ॥


792
परख परख कर जो नहीं, किया गया सौहार्द ।
मरण दिलाता अन्त में, यों, करता वह आर्त ॥


793
गुण को कुल को दोष को, जितने बन्धु अनल्प ।
उन सब को भी परख कर, कर मैत्री का कल्प ॥


794
जो लज्जित बदनाम से, रहते हैं कुलवान ।
कर लो उनकी मित्रता, कर भी मूल्य-प्रदान ॥


795
झिड़की दे कर या रुला, समझावे व्यवहार ।
ऐसे समर्थ को परख, मैत्री कर स्वीकार ॥


796
होने पर भी विपद के, बड़ा लाभ है एक ।
मित्र-खेत सब मापता, मान-दंड वह एक ॥


797
मूर्खों के सौहार्द से, बच कर तजना साफ़ ।
इसको ही नर के लिये, कहा गया है लाभ ॥


798
ऐसे कर्म न सोचिये, जिनसे घटे उमंग ।
मित्र न हो जो दुख में, छोड़ जायगा संग ॥


        799
विपद समय जो बन्धु जन, साथ छोड़ दें आप ।
मरण समय भी वह स्मरण, दिल को देगा ताप ॥


        800
निर्मल चरित्रवान की, मैत्री लेना जोड़ ।
कुछ दे सही अयोग्य की, मैत्री देना छोड़ ॥

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