अध्याय 11. कृतज्ञता
|
|
|
|
101
|
उपकृत हुए बिना करे, यदि कोइ उपकार ।
दे कर भू सुर-लोक भी, मुक्त न हो आभार ॥
|
|
|
102
|
अति संकट के समय पर, किया गया उपकार ।
भू से अधिक महान है, यद्यपि अल्पाकार ॥
|
|
|
103
|
स्वार्थरहित कृत मदद का, यदि गुण आंका जाय ।
उदधि-बड़ाई से बड़ा, वह गुण माना जाय ॥
|
|
|
104
|
उपकृति तिल भर ही हुई, तो भी उसे सुजान ।
मानें ऊँचे ताड़ सम, सुफल इसी में जान ॥
|
|
|
105
|
सीमित नहिं, उपकार तक, प्रत्युपकार- प्रमाण ।
जितनी उपकृत-योग्यता,
उतना उसका मान ॥
|
|
|
106
|
निर्दोषों की मित्रता, कभी न जाना भूल ।
आपद-बंधु स्नेह को, कभी न तजना भूल ॥
|
|
|
107
|
जिसने दुःख मिटा दिया, उसका स्नेह स्वभाव ।
सात जन्म तक भी स्मरण, करते महानुभाव ॥
|
|
|
108
|
भला नहीं है भूलना, जो भी हो उपकार ।
भला यही झट भूलना,
कोई भी अपकार ॥
|
|
|
109
|
हत्या सम कोई करे, अगर बड़ी कुछ हानि ।
उसकी इक उपकार-स्मृति,
करे हानि की हानि ॥
|
|
|
110
|
जो भी पातक नर करें, संभव है उद्धार ।
पर है नहीं कृतघ्न का, संभव ही निस्तार ॥
|
अध्याय 12. मध्यस्थता
|
|
|
|
111
|
मध्यस्थता यथेष्ट है, यदि हो यह संस्कार ।
शत्रु मित्र औ’ अन्य से, न्यायोचित व्यवहार ॥
|
|
|
112
|
न्यायनिष्ठ की संपदा, बिना हुए क्षयशील ।
वंश वंश का वह रहे, अवलंबन स्थितिशील ॥
|
|
|
113
|
तजने से निष्पक्षता, जो धन मिले अनन्त ।
भला, भले ही, वह करे तजना उसे तुरन्त ॥
|
|
|
114
|
कोई ईमान्दार है, अथवा बेईमान ।
उन उनके अवशेष से, होती यह पहचान ॥
|
|
|
115
|
संपन्नता विपन्नता, इनका है न अभाव ।
सज्जन का भूषण रहा, न्यायनिष्ठता भाव ॥ |
|
|
116
|
सर्वनाश मेरा हुआ, यों जाने निर्धार ।
चूक न्याय-पथ यदि हुआ, मन में बुरा विचार ॥
|
|
|
117
|
न्यायवान धर्मिष्ठ की, निर्धनता अवलोक ।
मानेगा नहिं हीनता, बुद्धिमान का लोक ॥
|
|
|
118
|
सम रेखा पर हो तुला, ज्यों तोले सामान ।
भूषण महानुभाव का, पक्ष न लेना मान ॥
|
|
|
119
|
कहना सीधा वचन है, मध्यस्थता ज़रूर ।
दृढ़ता से यदि हो गयी, चित्त-वक्रता दूर ॥
|
|
|
120
|
यदि रखते पर माल को, अपना माल समान ।
वणिक करे वाणीज्य तो, वही सही तू जान ॥
|
अध्याय 13. संयम्शीलता
|
|
|
|
121
|
संयम देता मनुज को, अमर लोक का वास ।
झोंक असंयम नरक में, करता सत्यानास ॥
|
|
|
122
|
संयम की रक्षा करो, निधि अनमोल समान ।
श्रेय नहीं है जीव को, उससे अधिक महान ॥
|
|
|
123
|
कोई संयमशील हो, अगर जानकर तत्व ।
संयम पा कर मान्यता, देगा उसे महत्व ॥
|
|
|
124
|
बिना टले निज धर्म से, जो हो संयमशील ।
पर्वत से भी उच्चतर, होगा उसका डील ॥
|
|
|
125
|
संयम उत्तम वस्तु है, जन के लिये अशेष ।
वह भी धनिकों में रहे, तो वह धन सुविशेष ॥
|
|
|
126
|
पंचेन्द्रिय-निग्राह किया, कछुआ सम इस जन्म ।
तो उससे रक्षा सुदृढ़, होगी सातों जन्म ॥
|
|
|
127
|
चाहे औरोंको नहीं, रख लें वश में जीभ ।
शब्द-दोष से हों दुखी, यदि न वशी हो जीभ ॥
|
|
|
128
|
एक बार भी कटुवचन,
पहुँचाये यदि कष्ट ।
सत्कर्मों के सुफल सब, हो जायेंगे नष्ट ॥
|
|
|
129
|
घाव लगा जो आग से, संभव है भर जाय ।
चोट लगी यदि जीभ की, कभी न मोटी जाय ॥
|
|
|
130
|
क्रोध दमन कर जो हुआ, पंडित यमी समर्थ ।
धर्म-देव भी जोहता, बाट भेंट के अर्थ ॥ |
अध्याय 14. आचारशीलता
|
|
|
|
131
|
सदाचार-संपन्नता, देती सब को श्रेय ।
तब तो प्राणों से अधिक, रक्षणीय वह ज्ञेय ॥
|
|
|
132
|
सदाचार को यत्न से, रखना सहित विवेक ।
अनुशीलन से पायगा, वही सहायक एक ॥
|
|
|
133
|
सदाचार-संपन्नता, है कुलीनता जान ।
चूके यदि आचार से, नीच जन्म है मान ॥
|
|
|
134
|
संभव है फिर अध्ययन, भूल गया यदि वेद ।
आचारच्युत विप्र के, होगा कुल का छेद ॥ |
|
|
135
|
धन की ज्यों ईर्ष्यालु के, होती नहीं समृद्धि ।
आचारहीन की नहीं, कुलीनता की वृद्धि ॥
|
|
|
136
|
सदाचार दुष्कर समझ, धीर न खींचे हाथ ।
परिभव जो हो जान कर, उसकी च्युति के साथ ॥
|
|
|
137
|
सदाचार से ही रही, महा कीर्ति की प्राप्ति ।
उसकी च्युति से तो रही, आति निन्दा की प्राप्ति ॥
|
|
|
138
|
सदाचार के बीज से, होता सुख उत्पन्न ।
कदाचार से ही सदा, होता मनुज विपन्न ॥
|
|
|
139
|
सदाचारयुत लोग तो, मुख से कर भी भूल ।
कहने को असमर्थ हैं, बुरे वचन प्रतिकूल ॥
|
|
|
140
|
जिनको लोकाचार की, अनुगति का नहिं ज्ञान ।
ज्ञाता हों सब शास्त्र के, जानों उन्हें अजान ॥
|
अध्याय 15. परदार- विरति
|
|
|
|
141
|
परपत्नी-रति-मूढ़ता, है नहिं उनमें जान ।
धर्म-अर्थ के शास्त्र का, जिनको तत्वज्ञान ॥
|
|
|
142
|
धर्म-भ्रष्टों में नही, ऐसा कोई मूढ़ ।
जैसा अन्यद्वार पर, खड़ा रहा जो मूढ़ ॥
|
|
|
143
|
दृढ़ विश्वासी मित्र की, स्त्री से पापाचार ।
जो करता वो मृतक से, भिन्न नहीं है, यार ॥
|
|
|
144
|
क्या होगा उसको अहो, रखते विभव अनेक ।
यदि रति हो पर-दार में, तनिक न बुद्धि विवेक ॥
|
|
|
145
|
पर-पत्नी-रत जो हुआ, सुलभ समझ निश्शंक ।
लगे रहे चिर काल तक, उसपर अमिट कलंक ॥
|
|
|
146
|
पाप, शत्रुता, और भय, निन्दा मिल कर चार ।
ये उसको छोड़ें नहीं, जो करता व्यभिचार ॥
|
|
|
147
|
जो गृहस्थ पर-दार पर, होवे नहिं आसक्त ।
माना जाता है वही, धर्म-कर्म अनुरक्त ॥
|
|
|
148
|
पर-नारी नहिं ताकना, है धीरता महान ।
धर्म मात्र नहिं संत का, सदाचरण भी जान ॥
|
|
|
149
|
सागर-बलयित भूमि पर, कौन भोग्य के योग्य ।
आलिंगन पर- नारि को, जो न करे वह योग्य ॥
|
|
|
150
|
पाप- कर्म चाहे करें, धर्म मार्ग को छोड़ ।
पर-गृहिणी की विरति हो, तो वह गुण बेजोड़ ॥
|
अध्याय 16. क्षमाशीलता
|
|
|
|
151
|
क्षमा क्षमा कर ज्यों धरे, जो खोदेगा फोड़ ।
निन्दक को करना क्षमा, है सुधर्म बेजोड़ ॥ |
|
|
152
|
अच्छा है सब काल में, सहना अत्याचार ।
फिर तो उसको भूलना, उससे श्रेष्ठ विचार ॥ |
|
|
153
|
दारिद में दारिद्रय है, अतिथि-निवारण-बान ।
सहन मूर्ख की मूर्खता, बल में भी बल जान ॥ |
|
|
154
|
अगर सर्व-गुण-पूर्णता, तुमको छोड़ न जाय ।
क्षमा-भाव का आचरण, किया लगन से जाय ॥ |
|
|
155
|
प्रतिकारी को जगत तो, माने नहीं पदार्थ ।
क्षमशील को वह रखे, स्वर्ण समान पदार्थ ॥ |
|
|
156
|
प्रतिकारी का हो मज़ा, एक दिवस में अन्त ।
क्षमाशीला को कीर्ति है, लोक-अंत पर्यन्त ॥ |
|
|
157
|
यद्यपि कोई आपसे, करता अनुचित कर्म ।
अच्छा उस पर कर दया, करना नहीं अधर्म ॥ |
|
|
158
|
अहंकार से ज़्यादती, यदि तेरे विपरीत ।
करता कोई तो उसे, क्षमा-भाव से जीत ॥ |
|
|
159
|
संन्यासी से आधिक हैं, ऐसे गृही पवित्र ।
सहन करें जो नीच के, कटुक वचन अपवित्र ॥ |
|
|
160
|
अनशन हो जो तप करें, यद्यपि साधु महान ।
पर-कटुवचन-सहिष्णु के, पीछे पावें स्थान ॥ |
अध्याय 17. अनसूयता
|
|
|
|
161
|
जलन- रहित निज मन रहे ऐसी उत्तम बान ।
अपनावें हर एक नर, धर्म आचरण मान ॥
|
|
|
162
|
सबसे ऐसा भाव हो, जो है ईर्ष्या-
मुक्त ।
तो उसके सम है नहीं, भाग्य श्रेष्ठता युक्त ॥
|
|
|
163
|
धर्म- अर्थ के लाभ की, जिसकी हैं नहीं चाह ।
पर-समृद्धि से खुश न हो, करता है वह डाह ॥
|
|
|
164
|
पाप- कर्म से हानियाँ, जो होती है जान ।
ईर्ष्यावश करते नहीं, पाप- कर्म धीमान ॥
|
|
|
165
|
शत्रु न भी हो ईर्ष्यु का, करने को कुछ हानि ।
जलन मात्र पर्याप्त है, करने को अति हानि ॥
|
|
|
166
|
दान देख कर जो जले, उसे सहित परिवार ।
रोटी कपडे को तरस, मिटते लगे न बार ॥
|
|
|
167
|
जलनेवाले से स्वयं, जल कर रमा अदीन ।
अपनी ज्येष्ठा के उसे , करती वही अधीन ॥
|
|
|
168
|
ईर्ष्या जो है पापिनी, करके श्री का नाश ।
नरक-अग्नि में झोंक कर, करती सत्यानास ॥
|
|
|
169
|
जब होती ईर्ष्यालु की, धन की वृद्धि अपार ।
तथा हानि भी साधु की, तो करना सुविचार ॥
|
|
|
170
|
सुख-समृद्धि उनकी नहीं, जो हों ईर्ष्यायुक्त ।
सुख-समृद्धि की इति नहीं, जो हों ईर्ष्यामुक्त ॥
|
अध्याय 18. निर्लोभता
|
|
|
|
171
|
न्याय-बुद्धि को छोड़ कर, यदि हो पर-धन-लोभ ।
हो कर नाश कुटुम्ब का, होगा दोषारोप ॥
|
|
|
172
|
न्याय-पक्ष के त्याग से, जिनको होती लाज ।
लोभित पर-धन-लाभ से, करते नहीं अकाज ॥
|
|
|
173
|
नश्वर सुख के लोभ में, वे न करें दुष्कृत्य ।
जिनको इच्छा हो रही, पाने को सुख नित्य ॥
|
|
|
174
|
जो हैं इन्द्रियजित तथा, ज्ञानी भी अकलंक ।
दारिदवश भी लालची, होते नहीं अशंक ॥
|
|
|
175
|
तीखे विस्तृत ज्ञान से, क्या होगा उपकार ।
लालचवश सबसे करें, अनुचित व्यवहार ॥
|
|
|
176
|
ईश-कृपा की चाह से, जो न धर्म से भ्रष्ट ।
दुष्ट-कर्म धन-लोभ से, सोचे तो वह नष्ट ॥
|
|
|
177
|
चाहो मत संपत्ति को, लालच से उत्पन्न ।
उसका फल होता नहीं कभी सुगुण-संपन्न ॥
|
|
|
178
|
निज धन का क्षय हो नहीं, इसका क्या सदुपाय ।
अन्यों की संपत्ति का, लोभ किया नहिं जाय ॥
|
|
|
179
|
निर्लोभता ग्रहण करें, धर्म मान धीमान ।
श्री पहुँचे उनके यहाँ, युक्त काल थल जान ॥
|
|
|
180
|
अविचारी के लोभ से, होगा उसका अन्त ।
लोभ- हीनता- विभव से, होगी विजय अनन्त ॥
|
अध्याय 19. अपिशुनता
|
|
|
|
181
|
नाम न लेगा धर्म का, करे अधर्मिक काम ।
फिर भी अच्छा यदि वही, पाये अपिशुन नाम ॥
|
|
|
182
|
नास्तिवाद कर धर्म प्रति, करता पाप अखण्ड ।
उससे बदतर पिशुनता, सम्मुख हँस पाखण्ड ॥
|
|
|
183
|
चुगली खा कर क्या जिया, चापलूस हो साथ ।
भला, मृत्यु हो, तो लगे, शास्त्र-
उक्त फल हाथ ॥
|
|
|
184
|
कोई मूँह पर ही कहे, यद्यपि निर्दय बात ।
कहो पीठ पीछे नहीं, जो न सुचिंतित बात ॥
|
|
|
185
|
प्रवचन-लीन सुधर्म के, हृदय धर्म से हीन ।
भण्डा इसका फोड़ दे, पैशुन्य ही मलीन ॥ |
|
|
186
|
परदूषक यदि तू बना, तुझमें हैं जो दोष ।
उनमें चुन सबसे बुरे, वह करता है घोष ॥
|
|
|
187
|
जो करते नहिं मित्रता, मधुर वचन हँस बोल ।
अलग करावें बन्धु को, परोक्ष में कटु बोल ॥
|
|
|
188
|
मित्रों के भी दोष का, घोषण जिनका धर्म ।
जाने अन्यों के प्रति, क्या क्या करें कुकर्म ॥
|
|
|
189
|
क्षमाशीलता धर्म है, यों करके सुविचार ।
क्या ढोती है भूमि भी, चुगलखोर का भार ॥
|
|
|
190
|
परछिद्रानवेषण सदृश, यदि देखे निज दोष ।
ति अविनाशी जीव का, क्यों हो दुख से शोष ॥
|
अध्याय 20. वृथालाप-निषेध
|
|
|
|
191
|
बहु जन सुन करते घृणा, यों जो करे प्रलाप ।
सर्व जनों का वह बने, उपहासास्पद आप ॥
|
|
|
192
|
बुद्धिमान जनवृन्द के, सम्मुख किया प्रलाप ।
अप्रिय करनी मित्र प्रति, करने से अति पाप ॥
|
|
|
193
|
लम्बी-चौड़ी बात जो, होती अर्थ-विहीन ।
घोषित करती है वही, वक्ता नीति-विहीन ॥
|
|
|
194
|
संस्कृत नहीं, निरर्थ हैं, सभा मध्य हैं उक्त ।
करते ऐसे शब्द हैं, सुगुण व नीति-वियुक्त ॥
|
|
|
195
|
निब्फल शब्द अगर कहे, कोई चरित्रवान ।
हो जावे उससे अलग, कीर्ति तथा सम्मान ॥
|
|
|
196
|
जिसको निब्फल शब्द में, रहती है आसक्ति ।
कह ना तू उसको मनुज, कहना थोथा व्यक्ति ॥
|
|
|
197
|
कहें भले ही साधुजन, कहीं अनय के शब्द ।
मगर इसी में है भला, कहें न निब्फल शब्द ॥
|
|
|
198
|
उत्तम फल की परख का, जिनमें होगा ज्ञान ।
महा प्रयोजन रहित वच, बोलेंगे नहिं जान ॥
|
|
|
199
|
तत्वज्ञानी पुरुष जो, माया-भ्रम से मुक्त ।
विस्मृति से भी ना कहें, वच जो अर्थ-वियुक्त ॥
|
|
|
200
|
कहना ऐसा शब्द ही, जिससे होवे लाभ ।
कहना मत ऐसा वचन, जिससे कुछ नहिं लाभ ॥
|
No comments:
Post a Comment