Tuesday, 21 June 2005

अध्याय 11 से 20

अध्याय 11. कृतज्ञता


101
उपकृत हुए बिना करे, यदि कोइ उपकार
दे कर भू सुर-लोक भी, मुक्त हो आभार


102
अति संकट के समय पर, किया गया उपकार
भू से अधिक महान है, यद्यपि अल्पाकार

103
स्वार्थरहित कृत मदद का, यदि गुण आंका जाय
उदधि-बड़ाई से बड़ा, वह गुण माना जाय


104
उपकृति तिल भर ही हुई, तो भी उसे सुजान
मानें ऊँचे ताड़ सम, सुफल इसी में जान


105
सीमित नहिं, उपकार तक, प्रत्युपकार- प्रमाण
जितनी उपकृत-योग्यता, उतना उसका मान


106
निर्दोषों की मित्रता, कभी जाना भूल
आपद-बंधु स्नेह को, कभी तजना भूल


107
जिसने दुःख मिटा दिया, उसका स्नेह स्वभाव
सात जन्म तक भी स्मरण, करते महानुभाव


108
भला नहीं है भूलना, जो भी हो उपकार
भला यही झट भूलना, कोई भी अपकार


109
हत्या सम कोई करे, अगर बड़ी कुछ हानि
उसकी इक उपकार-स्मृति, करे हानि की हानि


110
जो भी पातक नर करें, संभव है उद्धार
पर है नहीं कृतघ्न का, संभव ही निस्तार

अध्याय 12. मध्यस्थता


111
मध्यस्थता यथेष्ट है, यदि हो यह संस्कार
शत्रु मित्र अन्य से, न्यायोचित व्यवहार


112
न्यायनिष्ठ की संपदा, बिना हुए क्षयशील
वंश वंश का वह रहे, अवलंबन स्थितिशील


113
तजने से निष्पक्षता, जो धन मिले अनन्त
भला, भले ही, वह करे तजना उसे तुरन्त


114
कोई ईमान्दार है, अथवा बेईमान
उन उनके अवशेष से, होती यह पहचान


115
संपन्नता विपन्नता, इनका है अभाव
सज्जन का भूषण रहा, न्यायनिष्ठता भाव


116
सर्वनाश मेरा हुआ, यों जाने निर्धार
चूक न्याय-पथ यदि हुआ, मन में बुरा विचार


117
न्यायवान धर्मिष्ठ की, निर्धनता अवलोक
मानेगा नहिं हीनता, बुद्धिमान का लोक


118
सम रेखा पर हो तुला, ज्यों तोले सामान
भूषण महानुभाव का, पक्ष लेना मान


119
कहना सीधा वचन है, मध्यस्थता ज़रूर
दृढ़ता से यदि हो गयी, चित्त-वक्रता दूर


120
यदि रखते पर माल को, अपना माल समान
वणिक करे वाणीज्य तो, वही सही तू जान

अध्याय 13. संयम्शीलता


121
संयम देता मनुज को, अमर लोक का वास
झोंक असंयम नरक में, करता सत्यानास


122
संयम की रक्षा करो, निधि अनमोल समान
श्रेय नहीं है जीव को, उससे अधिक महान


123
कोई संयमशील हो, अगर जानकर तत्व
संयम पा कर मान्यता, देगा उसे महत्व


124
बिना टले निज धर्म से, जो हो संयमशील
पर्वत से भी उच्चतर, होगा उसका डील


125
संयम उत्तम वस्तु है, जन के लिये अशेष
वह भी धनिकों में रहे, तो वह धन सुविशेष


126
पंचेन्द्रिय-निग्राह किया, कछुआ सम इस जन्म
तो उससे रक्षा सुदृढ़, होगी सातों जन्म


127
चाहे औरोंको नहीं, रख लें वश में जीभ
शब्द-दोष से हों दुखी, यदि वशी हो जीभ


128
एक बार भी कटुवचन, पहुँचाये यदि कष्ट
सत्कर्मों के सुफल सब, हो जायेंगे नष्ट


129
घाव लगा जो आग से, संभव है भर जाय
चोट लगी यदि जीभ की, कभी मोटी जाय


130
क्रोध दमन कर जो हुआ, पंडित यमी समर्थ
धर्म-देव भी जोहता, बाट भेंट के अर्थ

अध्याय 14. आचारशीलता


131
सदाचार-संपन्नता, देती सब को श्रेय
तब तो प्राणों से अधिक, रक्षणीय वह ज्ञेय


132
सदाचार को यत्न से, रखना सहित विवेक
अनुशीलन से पायगा, वही सहायक एक


133
सदाचार-संपन्नता, है कुलीनता जान
चूके यदि आचार से, नीच जन्म है मान


134
संभव है फिर अध्ययन, भूल गया यदि वेद
आचारच्युत विप्र के, होगा कुल का छेद


135
धन की ज्यों ईर्ष्यालु के, होती नहीं समृद्धि
आचारहीन की नहीं, कुलीनता की वृद्धि


136
सदाचार दुष्कर समझ, धीर खींचे हाथ
परिभव जो हो जान कर, उसकी च्युति के साथ


137
सदाचार से ही रही, महा कीर्ति की प्राप्ति
उसकी च्युति से तो रही, आति निन्दा की प्राप्ति


138
सदाचार के बीज से, होता सुख उत्पन्न
कदाचार से ही सदा, होता मनुज विपन्न


139
सदाचारयुत लोग तो, मुख से कर भी भूल
कहने को असमर्थ हैं, बुरे वचन प्रतिकूल


140
जिनको लोकाचार की, अनुगति का नहिं ज्ञान
ज्ञाता हों सब शास्त्र के, जानों उन्हें अजान

अध्याय 15. परदार- विरति


141
परपत्नी-रति-मूढ़ता, है नहिं उनमें जान
धर्म-अर्थ के शास्त्र का, जिनको तत्वज्ञान


142
धर्म-भ्रष्टों में नही, ऐसा कोई मूढ़
जैसा अन्यद्वार पर, खड़ा रहा जो मूढ़


143
दृढ़ विश्वासी मित्र की, स्त्री से पापाचार
जो करता वो मृतक से, भिन्न नहीं है, यार


144
क्या होगा उसको अहो, रखते विभव अनेक
यदि रति हो पर-दार में, तनिक बुद्धि विवेक


145
पर-पत्नी-रत जो हुआ, सुलभ समझ निश्शंक
लगे रहे चिर काल तक, उसपर अमिट कलंक


146
पाप, शत्रुता, और भय, निन्दा मिल कर चार
ये उसको छोड़ें नहीं, जो करता व्यभिचार


147
जो गृहस्थ पर-दार पर, होवे नहिं आसक्त
माना जाता है वही, धर्म-कर्म अनुरक्त


148
पर-नारी नहिं ताकना, है धीरता महान
धर्म मात्र नहिं संत का, सदाचरण भी जान


149
सागर-बलयित भूमि पर, कौन भोग्य के योग्य
आलिंगन पर- नारि को, जो करे वह योग्य


150
पाप- कर्म चाहे करें, धर्म मार्ग को छोड़
पर-गृहिणी की विरति हो, तो वह गुण बेजोड़

अध्याय 16. क्षमाशीलता


151
क्षमा क्षमा कर ज्यों धरे, जो खोदेगा फोड़
निन्दक को करना क्षमा, है सुधर्म बेजोड़


152
अच्छा है सब काल में, सहना अत्याचार
फिर तो उसको भूलना, उससे श्रेष्ठ विचार


153
दारिद में दारिद्रय है, अतिथि-निवारण-बान
सहन मूर्ख की मूर्खता, बल में भी बल जान


154
अगर सर्व-गुण-पूर्णता, तुमको छोड़ जाय
क्षमा-भाव का आचरण, किया लगन से जाय


155
प्रतिकारी को जगत तो, माने नहीं पदार्थ
क्षमशील को वह रखे, स्वर्ण समान पदार्थ


156
प्रतिकारी का हो मज़ा, एक दिवस में अन्त
क्षमाशीला को कीर्ति है, लोक-अंत पर्यन्त


157
यद्यपि कोई आपसे, करता अनुचित कर्म
अच्छा उस पर कर दया, करना नहीं अधर्म


158
अहंकार से ज़्यादती, यदि तेरे विपरीत
करता कोई तो उसे, क्षमा-भाव से जीत


159
संन्यासी से आधिक हैं, ऐसे गृही पवित्र
सहन करें जो नीच के, कटुक वचन अपवित्र


160
अनशन हो जो तप करें, यद्यपि साधु महान
पर-कटुवचन-सहिष्णु के, पीछे पावें स्थान

अध्याय 17. अनसूयता


161
जलन- रहित निज मन रहे ऐसी उत्तम बान
अपनावें हर एक नर, धर्म आचरण मान


162
सबसे ऐसा भाव हो, जो है ईर्ष्या- मुक्त
तो उसके सम है नहीं, भाग्य श्रेष्ठता युक्त


163
धर्म- अर्थ के लाभ की, जिसकी हैं नहीं चाह
पर-समृद्धि से खुश हो, करता है वह डाह


164
पाप- कर्म से हानियाँ, जो होती है जान
ईर्ष्यावश करते नहीं, पाप- कर्म धीमान


165
शत्रु भी हो ईर्ष्यु का, करने को कुछ हानि
जलन मात्र पर्याप्त है, करने को अति हानि


166
दान देख कर जो जले, उसे सहित परिवार
रोटी कपडे को तरस, मिटते लगे बार


167
जलनेवाले से स्वयं, जल कर रमा अदीन
अपनी ज्येष्ठा के उसे , करती वही अधीन


168
ईर्ष्या जो है पापिनी, करके श्री का नाश
नरक-अग्नि में झोंक कर, करती सत्यानास


169
जब होती ईर्ष्यालु की, धन की वृद्धि अपार
तथा हानि भी साधु की, तो करना सुविचार


170
सुख-समृद्धि उनकी नहीं, जो हों ईर्ष्यायुक्त
सुख-समृद्धि की इति नहीं, जो हों ईर्ष्यामुक्त

अध्याय 18. निर्लोभता


171
न्याय-बुद्धि को छोड़ कर, यदि हो पर-धन-लोभ
हो कर नाश कुटुम्ब का, होगा दोषारोप


172
न्याय-पक्ष के त्याग से, जिनको होती लाज
लोभित पर-धन-लाभ से, करते नहीं अकाज


173
नश्वर सुख के लोभ में, वे करें दुष्कृत्य
जिनको इच्छा हो रही, पाने को सुख नित्य


174
जो हैं इन्द्रियजित तथा, ज्ञानी भी अकलंक
दारिदवश भी लालची, होते नहीं अशंक


175
तीखे विस्तृत ज्ञान से, क्या होगा उपकार
लालचवश सबसे करें, अनुचित व्यवहार


176
ईश-कृपा की चाह से, जो धर्म से भ्रष्ट
दुष्ट-कर्म धन-लोभ से, सोचे तो वह नष्ट


177
चाहो मत संपत्ति को, लालच से उत्पन्न
उसका फल होता नहीं कभी सुगुण-संपन्न


178
निज धन का क्षय हो नहीं, इसका क्या सदुपाय
अन्यों की संपत्ति का, लोभ किया नहिं जाय


179
निर्लोभता ग्रहण करें, धर्म मान धीमान
श्री पहुँचे उनके यहाँ, युक्त काल थल जान


180
अविचारी के लोभ से, होगा उसका अन्त
लोभ- हीनता- विभव से, होगी विजय अनन्त

अध्याय 19. अपिशुनता


181
नाम लेगा धर्म का, करे अधर्मिक काम
फिर भी अच्छा यदि वही, पाये अपिशुन नाम


182
नास्तिवाद कर धर्म प्रति, करता पाप अखण्ड
उससे बदतर पिशुनता, सम्मुख हँस पाखण्ड


183
चुगली खा कर क्या जिया, चापलूस हो साथ
भला, मृत्यु हो, तो लगे, शास्त्र- उक्त फल हाथ


184
कोई मूँह पर ही कहे, यद्यपि निर्दय बात
कहो पीठ पीछे नहीं, जो सुचिंतित बात


185
प्रवचन-लीन सुधर्म के, हृदय धर्म से हीन
भण्डा इसका फोड़ दे, पैशुन्य ही मलीन


186
परदूषक यदि तू बना, तुझमें हैं जो दोष
उनमें चुन सबसे बुरे, वह करता है घोष


187
जो करते नहिं मित्रता, मधुर वचन हँस बोल
अलग करावें बन्धु को, परोक्ष में कटु बोल


188
मित्रों के भी दोष का, घोषण जिनका धर्म
जाने अन्यों के प्रति, क्या क्या करें कुकर्म


189
क्षमाशीलता धर्म है, यों करके सुविचार
क्या ढोती है भूमि भी, चुगलखोर का भार


190
परछिद्रानवेषण सदृश, यदि देखे निज दोष
ति अविनाशी जीव का, क्यों हो दुख से शोष

अध्याय 20. वृथालाप-निषेध


191
बहु जन सुन करते घृणा, यों जो करे प्रलाप
सर्व जनों का वह बने, उपहासास्पद आप


192
बुद्धिमान जनवृन्द केसम्मुख किया प्रलाप
अप्रिय करनी मित्र प्रति, करने से अति पाप


193
लम्बी-चौड़ी बात जो, होती अर्थ-विहीन
घोषित करती है वही, वक्ता नीति-विहीन


194
संस्कृत नहीं, निरर्थ हैं, सभा मध्य हैं उक्त
करते ऐसे शब्द हैं, सुगुण नीति-वियुक्त


195
निब्फल शब्द अगर कहे, कोई चरित्रवान
हो जावे उससे अलग, कीर्ति तथा सम्मान


196
जिसको निब्फल शब्द में, रहती है आसक्ति
कह ना तू उसको मनुज, कहना थोथा व्यक्ति


197
कहें भले ही साधुजन, कहीं अनय के शब्द
मगर इसी में है भला, कहें निब्फल शब्द


198
उत्तम फल की परख का, जिनमें होगा ज्ञान
महा प्रयोजन रहित वच, बोलेंगे नहिं जान


199
तत्वज्ञानी पुरुष जो, माया-भ्रम से मुक्त
विस्मृति से भी ना कहें, वच जो अर्थ-वियुक्त


200
कहना ऐसा शब्द ही, जिससे होवे लाभ
कहना मत ऐसा वचन, जिससे कुछ नहिं लाभ

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