Monday 20 June 2005

अध्याय 121 से 133



अध्याय 121. स्मरण में एकान्तता-दुःख


1201
स्मरण मात्र से दे सके, अक्षय परमानन्द ।
सो तो मधु से काम है, बढ़ कर मधुर अमन्द ॥


1202
दुख-नाशक उसका स्मरण, जिससे है निज प्रेम ।
जो सुखदायक ही रहा, किसी हाल में प्रेम ॥


1203
छींका ही मैं चाहती, छींक गयी दब साथ ।
स्मरण किया ही चाहते, भूल गये क्या नाथ ॥


1204
उनके दिल में क्या रहा, मेरा भी आवास ।
मेरे दिल में, ओह, है, उनका सदा निवास ॥


1205
निज दिल से मुझको हटा, कर पहरे का साज़ ।
मेरे दिल आते सदा, आती क्या नहिं लाज ॥


1206
मिलन-दिवस की, प्रिय सहित, स्मृति से हूँ सप्राण ।
उस स्मृति के बिन किस तरह, रह सकती सप्राण ॥


1207
मुझे ज्ञात नहिं भूलना, हृदय जलाती याद ।
भूलूँगी मैं भी अगर, जाने क्या हो बाद ॥


1208
कितनी ही स्मृति मैं करूँ, होते नहिं नाराज़ ।
करते हैं प्रिय नाथ तो, इतना बड़ा लिहाज़ ॥


      1209
भिन्न न हम’, जिसने कहा, उसकी निर्दय बान ।
सोच सोच चलते बने, मेरे ये प्रिय प्राण ॥


      1210
बिछुड़ गये संबद्ध रह, जो मेरे प्रिय कांत ।
जब तक देख न लें नयन, डूब न, जय जय चांद ॥

अध्याय 122. स्वप्नावस्था का वर्णन


1211
प्रियतम का जो दूत बन, आया स्वप्नाकार ।
उसका मैं कैसे करूँ, युग्य अतिथि-सत्कार ॥


1212
यदि सुन मेरी प्रार्थना, दृग हों निद्रावान ।
दुख सह बचने की कथा, प्रिय से कहूँ बखान ॥


1213
जाग्रत रहने पर कृपा, करते नहीं सुजान ।
दर्शन देते स्वप्न में, तब तो रखती प्राण ॥


1214
जाग्रति में करते नहीं, नाथ कृपा कर योग ।
खोज स्वप्न ने ला दिया, सो उसमें सुख-भोग ॥


1215
आँखों में जब तक रहे, जाग्रति में सुख-भोग ।
सपने में भी सुख रहा, जब तक दर्शन-योग ॥


1216
यदि न रहे यह जागरण, तो मेरे प्रिय नाथ ।
जो आते हैं स्वप्न में, छोड़ न जावें साथ ॥


1217
कृपा न कर जागरण में, निष्ठुर रहे सुजन ।
पीड़ित करते किसलिये, मुझे स्वप्न में प्राण ॥


1218
गले लगाते नींद में, पर जब पडती जाग ।
तब दिल के अन्दर सुजन, झट जाते हैं भाग ॥


      1219
जाग्रति में अप्राप्त को, कोसेंगी वे वाम ।
जिनके प्रिय ने स्वप्न में, मिल न दिया आराम ॥


      1220
यों कहते प्रिय का मुझे, जाग्रति में नहिं योग ।
सपने में ना देखते, क्या इस पुर के लोग ॥

अध्याय 123.संध्या दर्शन से


1221
तेरी, सांझ, चिरायु हो, तू नहिं संध्याकाल ।
ब्याह हुओं की जान तू, लेता अन्तिम काल ।


1222
तेरी, सांझ, चिरायु हो, तू निष्प्रभ विभ्रान्त ।
मेरे प्रिय के सम निठुर, है क्या तेरा कान्त ॥


1223
कंपित संध्या निष्प्रभा, मुझको बना विरक्त ।
आती है देती मुझे, पीड़ा अति ही सख्त ॥


1224
वध करने के स्थान में, ज्यों आते जल्लाद ।
त्यों आती है सांझ भी, जब रहते नहिं नाथ ॥


1225
मैंने क्या कुछ कर दिया, प्रात: का उपकार ।
वैसे तो क्या कर दिया, संध्या का उपकार ॥


1226
पीड़ित करना सांझ का, तब था मुझे न ज्ञात ।
गये नहीं थे बिछुड़कर, जब मेरे प्रिय नाथ ॥


1227
काम-रोग तो सुबह को, पा कर कली-लिवास ।
दिन भर मुकुलित, शाम को, पाता पुष्य-विकास ॥


1228
दूत बनी है सांझ का, जो है अनल समान ।
गोप-बाँसुरी है, वही, घातक भी सामान ॥


      1229
जब आवेगी सांझ बढ़, करके मति को घूर्ण ।
सारा पुर मति-घूर्ण हो, दुख से होवे चूर्ण ॥


      1230
भ्रांतिमती इस सांझ में, अब तक बचती जान ।
धन-ग्राहक का स्मरण कर, चली जायगी जान ॥

अध्याय 124. अंगच्छवि-नाश


1231
प्रिय की स्मृति में जो तुझे, दुख दे गये सुदूर ।
रोते नयन सुमन निरख, लज्जित हैं बेनूर ॥


1232
पीले पड़ कर जो नयन, बरस रहे हैं नीर ।
मानों कहते निठुरता, प्रिय की जो बेपीर ॥


1233
जो कंधे फूल रहे, जब था प्रिय-संयोग ।
मानों करते घोषणा, अब है दुसह वियोग ॥


1234
स्वर्ण वलय जाते खिसक, कृश हैं कंधे पीन ।
प्रिय-वियोग से पूर्व की, छवि से हैं वे हीन ॥


1235
वलय सहित सौन्दर्य भी, जिन कंधों को नष्ट ।
निष्ठुर के नैष्ठुर्य को, वे कहते हैं स्पष्ट ॥


1236
स्कंध शिथिल चूड़ी सहित, देख मुझे जो आप ।
कहती हैं उनको निठुर, उससे पाती ताप ॥


1237
यह आक्रान्दन स्कंध का, जो होता है क्षाम ।
सुना निठुर को रे हृदय, पाओ क्यों न सुनाम ॥


1238
आलिंगन के पाश से, शिथिल किये जब हाथ ।
तत्क्षण पीला पड गया, सुकुमारी का माथ ॥


         1239
ज़रा हवा जब घुस गयी, आलिंगन के मध्य ।
मुग्धा के पीले पड़े, शीत बड़े दृग सद्य ॥


         1240
उज्ज्वल माथे से जनित, पीलापन को देख ।
पीलापन को नेत्र के, हुआ दुःख-अतिरेक ॥

अध्याय 125. हृदय से कथन


1241
रोग-शमन हित रे हृदय, जो यह हुआ असाध्य ।
क्या न कहोगे सोच कर, कोई औषध साध्य ॥


1242
हृदय ! जिओ तुम, नाथ तो, करते हैं नहिं प्यार ।
पर तुम होते हो व्यथित, यह मूढ़ता अपार ॥


1243
रे दिल ! बैठे स्मरण कर, क्यों हो दुख में चूर ।
दुःख-रोग के जनक से, स्नेह-स्मरण है दूर ॥


1244
नेत्रों को भी ले चलो, अरे हृदय, यह जान ।
उनके दर्शन के लिये, खाते मेरी जान ॥


1245
यद्यपि हम अनुरक्त हैं, वे हैं नहिं अनुरक्त ।
रे दिल, यों निर्मम समझ, हो सकते क्या त्यक्त ॥


1246
जब प्रिय देते मिलन सुख, गया नहीं तू रूठ ।
दिल, तू जो अब क्रुद्ध है, वह है केवल झूठ ॥


1247
अरे सुदिल, तज काम को, या लज्जा को त्याग ।
मैं तो सह सकती नहीं, इन दोनों की आग ॥


1248
रे मेरे दिल, यों समझ, नहीं दयार्द्र सुजान ।
बिछुड़े के पीछे लगा, चिन्ताग्रस्त अजान ॥


1249
तेरे अन्दर जब रहा, प्रियतम का आवास ।
रे दिल, उनका स्मरण कर, जावे किसके पास ॥


1250
फिर न मिले यों तज दिया, उनको दिल में ठौर ।
देने से मैं खो रही, अभ्यन्तर छवि और ॥

अध्याय 126. धैर्य-भंग


1251
लाज-चटखनी युक्त है, मनोधैर्य का द्वार ।
खंडन करना है उसे, यह जो काम-कुठार ॥


1252
काम एक निर्दय रहा, जो दिल पर कर राज ।
अर्द्ध रात्रि के समय भी, करवाता है काज ॥


1253
काम छिपाने यत्न तो, मैं करती हूँ जान ।
प्रकट हुआ निर्देश बिन, वह तो छींक समान ॥


1254
कहती थी हूँ धृतिमती’, पर मम काम अपार ।
प्रकट सभी पर अब हुआ, गोपनीयता पार ॥


1255
उनके पीछे जा लगें, जो तज गये सुजान ।
काम-रोगिणी को नहीं, इस बहुमति का ज्ञान ॥


1256
उनके पीछे लग रहूँ, चले गये जो त्याग ।
काम-रोग को यों दिया, यह मेरा बड़भाग ॥


1257
करते ये प्रिय नाथ जब, कामेच्छित सब काज ।
तब यह ज्ञात न था हमें, एक वस्तु है लाज ॥


1258
बहुमायामय चोर के, जो हैं नयमय बैन ।
मेरी धृति को तोड़ने, क्या होते नहिं सैन ॥


      1259
चली गई मैं रूठने, किन्तु हृदय को देख ।
वह प्रवृत्त है मिलन हित, गले लगी, हो एक ॥


      1260
अग्नि-दत्त मज्जा यथा, जिनका दिल द्रवमान ।
उनको प्रिय के पास रह, क्या संभव है मान ॥

अध्याय 127. उनकी उत्कंठा


1261
छू कर गिनते विरह दिन, घिस अंगुलियाँ क्षीण ।
तथा नेत्र भी हो गये, राह देख छवि-हीन ॥


1262
उज्ज्वल भूषण सज्जिते ! यदि मैं भूलूँ आज ।
गिरें बाँह से चुड़ियाँ, खोऊँ छवि-साज ॥


1263
विजय-कामना से चले, साथ लिये उत्साह ।
सो अब भी जीती रही, ‘लौटेंगेयों चाह ॥


1264
प्रेम सहित हैं लौटते, बिछुड़ गये जो नाथ ।
उमड़ रहा यों सोच कर, हृदय खुशी के साथ ॥


1265
प्रियतम को मैं देख लूँ, आँखों से भरपूर ।
फिर पीलापन स्कंध का, हो जायेगा दूर ॥


1266
प्रिय आवें तो एक दिन,यों कर लूँ रसपान ।
जिससे पूरा ही मिटे, दुःखद रोग निदान ॥


1267
नेत्र सदृश प्रिय आ मिलें, तो कर बैठूँ मान ?
या आलिंगन ही करूँ, या दोनों, हे प्राण ॥


1268
क्रियाशील हो युद्ध कर, राजा पावें जीत ।
सपत्नीक हम भोज दें, संध्या हित सप्रीत ॥


      1269
जिसे प्रवासी पुरुष के, प्रत्यागम का सोच ।
एक रोज़ है सात सम, लंबा होता रोज़ ॥


      1270
प्राप्य हुई या प्राप्त ही, या हो भी संयोग ।
हृदय भग्न हो चल बसी, तो क्या हो उपयोग ॥

अध्याय 128. इंगित से बोध


1271
रखने पर भी कर छिपा, मर्यादा को पार ।
हैं तेरे ही नेत्र कुछ, कहने का तैयार ॥


1272
छवि भरती है आँख भर, बाँस सदृश हैं स्कंध ।
मुग्धा में है मूढ़ता, नारी-सुलभ अमंद ॥


1273
अन्दर से ज्यों दीखता, माला-मणि में सूत ।
बाला छवि में दीखता, कुछ संकेत प्रसूत ॥


1274
बद कली में गंध ज्यों, रहती है हो बंद ।
त्यों इंगित इक बंद है, मुग्धा-स्मिति में मंद ॥


1275
बाला ने, चूड़ी-सजी, मुझसे किया दुराव ।
दुःख निवारक इक दवा, रखता है वह हाव ॥


1276
दे कर अतिशय मिलन सुख, देना दुःख निवार ।
स्मारक भावी विरह का, निष्प्रिय व्यवहार ॥


1277
नायक शीतल घाट का, बिछुड़ जाय यह बात ।
मेरे पहले हो गयी, इन वलयों को ज्ञात ॥


1278
कल ही गये वियुक्त कर, मेरे प्यारे नाथ ।
पीलापन तन को लिये, बीत गये दिन सात ॥


      1279
वलय देख फिर स्कंध भी, तथा देख निज पाँव ।
यों उसने इंगित किया, साथ गमन का भाव ॥


      1280
काम-रोग को प्रगट कर, नयनों से कर सैन ।
याचन करना तो रहा, स्त्रीत्व-लब्ध गुण स्त्रैण ॥

अध्याय 129. मिलन-उत्कंठा


1281
मुद होना स्मृति मात्र से, दर्शन से उल्लास ।
ये गुण नहीं शराब में, रहे काम के पास ॥


1282
यदि आवेगा काम तो, बढ़ कर ताड़ समान ।
तिल भर भी नहिं चाहिये, करना प्रिय से मान ॥


1283
यद्यपि मनमानी करें, बिन आदर की सैन ।
प्रियतम को देखे बिना, नयनों को नहिं चैन ॥


1284
गयी रूठने री सखी, करके मान-विचार ।
मेरा दिल वह भूल कर, मिलने को तैयार ॥


1285
कूँची को नहिं देखते, यथा आंजते अक्ष ।
उनकी भूल न देखती, जब हैं नाथ समक्ष ॥


1286
जब प्रिय को मैं देखती, नहीं देखती दोष ।
ना देखूँ तो देखती, कुछ न छोड़ कर दोष ॥


1287
कूदे यथा प्रवाह में, बाढ़ बहाती जान ।
निष्फलता को जान कर, क्या हो करते मान ॥


1288
निन्दाप्रद दुख क्यों न दे, मद्यप को ज्यों पान ।
त्यों है, वंचक रे, हमें, तेरी छाती जान ॥


         1289
मृदुतर हो कर सुमन से, जो रहता है काम ।
बिरले जन को प्राप्त है, उसका शुभ परिणाम ॥


         1290
उत्कंठित मुझसे अधिक, रही मिलन हित बाल ।
मान दिखा कर नयन से, गले लगी तत्काल ॥

अध्याय 130. हृदय से रूठना


1291
उनका दिल उनका रहा, देते उनका साथ ।
उसे देख भी, हृदय तू, क्यों नहिं मेरे साथ ॥


1292
प्रिय को निर्मम देख भी, ‘वे नहिं हो नाराज़
यों विचार कर तू चला, रे दिल, उनके पास ॥


1293
रे दिल, जो हैं कष्ट में, उनके हैं नहिं इष्ट ।
सो क्या उनका पिछलगा, बना यथा निज इष्ट ॥


1294
रे दिल तू तो रूठ कर, बाद न ले सुख-स्वाद ।
तुझसे कौन करे अभी, तत्सम्बन्धी बात ॥


1295
न मिल तो भय, या मिले, तो भेतव्य वियोग ।
मेरा दिल है चिर दुखी, वियोग या संयोग ॥


1296
विरह दशा में अलग रह, जब करती थी याद ।
मानों मेरा दिल मुझे, खाता था रह साथ ॥


1297
मूढ हृदय बहुमति रहित, नहीं भूलता नाथ ।
मैं भूली निज लाज भी, पड़ कर इसके साथ ॥


1298
नाथ-उपेक्षा निंद्य है, यों करके सुविचार ।
करता उनका गुण-स्मरण, यह दिल जीवन-प्यार ॥


         1299
संकट होने पर मदद, कौन करेगा हाय ।
जब कि निजी दिल आपना, करता नहीं सहाय ॥


         1300
बन्धु बनें नहिं अन्य जन, है यह सहज, विचार ।
जब अपना दिल ही नहीं, बनता नातेदार ॥

अध्याय 131. मान


1301
आलिंगन करना नहीं, ठहरो करके मान ।
देखें हम उनको ज़रा, सहते ताप अमान ॥


1302
ज्यों भोजन में नमक हो, प्रणय-कलह त्यों जान ।
ज़रा बढ़ाओ तो उसे, ज्यादा नमक समान ॥


1303
अगर मना कर ना मिलो, जो करती है मान ।
तो वह, दुखिया को यथा, देना दुख महान ॥


1304
उसे मनाया यदि नहीं, जो कर बैठी मान ।
सूखी वल्ली का यथा, मूल काटना जान ॥


1305
कुसुम-नेत्रयुत प्रियतमा, रूठे अगर यथेष्ट ।
शोभा देती सुजन को, जिनके गुण हैं श्रेष्ठ ॥


1306
प्रणय-कलह यदि नहिं हुआ, और न थोड़ा मान ।
कच्चा या अति पक्व सम, काम-भोग-फल जान ॥


1307
क्या न बढ़ेगा मिलन-सुख’, यों है शंका-भाव ।
प्रणय-कलह में इसलिये, रहता दुखद स्वभाव ॥


1308
पीड़ित हैयों समझती, प्रिया नहीं रह जाय ।
तो सहने से वेदना, क्या ही फल हो जाय ॥


         1309
छाया के नीचे रहा, तो है सुमधुर नीर ।
प्रिय से हो तो मधुर है, प्रणय कलह-तासीर ॥


         1310
सूख गयी जो मान से, और रही बिन छोह ।
मिलनेच्छा उससे रहा, मेरे दिल का मोह ॥

अध्याय 132. मान की सूक्ष्मता


1311
सभी स्त्रियाँ सम भाव से, करतीं दृग से भोग ।
रे विट् तेरे वक्ष से, मैं न करूँ संयोग ॥


1312
हम बैठी थीं मान कर, छींक गये तब नाथ ।
यों विचार चिर जीवकह, हम कर लेंगी बात ॥


1313
धरूँ डाल का फूल तो, यों होती नाराज़ ।
दर्शनार्थ औनारि से, करते हैं यह साज ॥


1314
सब से बढ़’, मैंने कहा, ‘हम करते हैं प्यार
किस किस सेकहती हुई, लगी रुठने यार ॥


1315
यों कहने पर- हम नहीं, ‘बिछुड़ेंगे इस जन्म
भर लायी दृग, सोच यह, क्या हो अगले जन्म ॥


1316
स्मरण कियामैंने कहा, तो क्यों बैठे भूल ।
यों कह मिले बिना रही, पकड़ मान का तूल ॥


1317
छींका तो, कह शुभ वचन, तभी बदल दी बात ।
कौन स्मरण कर छींक दी’, कह रोयी सविषाद ॥


1318
छींक दबाता मैं रहा, रोयी कह यह बैन ।
अपनी जो करती स्मरण, उसे छिपाते हैं न ॥


         1319
अगर मनाऊँ तो सही, यों कह होती रुष्ट ।
करते होंगे अन्य को, इसी तरह से तुष्ट ॥


         1320
देखूँ यदि मैं मुग्ध हो, यों कह करती रार ।
देख रहे हैं आप सब, दिल में किसे विचार ॥

अध्याय 133. मान का आनन्द


1321
यद्यपि उनकी भूल नहिं, उनका प्रणय-विधान ।
प्रेरित करता है मुझे, करने के हित मान ॥


1322
मान जनित लघु दुःख से, यद्यपि प्रिय का प्रेम ।
मुरझा जाता है ज़रा, फिर भी पाता क्षेम ॥


1323
मिट्टी-पानी मिलन सम, जिस प्रिय का संपर्क ।
उनसे होते कलह से, बढ़ कर है क्या स्वर्ग ॥


1324
मिलन साध्य कर, बिछुड़ने, देता नहिं जो मान ।
उससे आविर्भूत हो, हृत्स्फोटक सामान ॥


1325
यद्यपि प्रिय निर्दोष है, मृदुल प्रिया का स्कंध ।
छूट रहे जब मिलन से, तब है इक आनन्द ॥


1326
खाने से, खाया हुआ, पचना सुखकर जान ।
काम-भोग हित मिलन से, अधिक सुखद है मान ॥


1327
प्रणय-कलह में जो विजित, उसे रहा जय योग ।
वह तो जाना जायगा, जब होगा संयोग ॥


1328
स्वेद-जनक सुललाट पर, मिलन जन्य आनन्द ।
प्रणय-कलह कर क्या मिले, फिर वह हमें अमन्द ॥


         1329
रत्नाभरण सजी प्रिया, करे और भी मान ।
करें मनौती हम यथा, बढ़े रात्रि का मान ॥


         1330
रहा काम का मधुर रस, प्रणय-कलह अवगाह ।
फिर उसका है मधुर रस, मधुर मिलन सोत्साह ॥


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