अध्याय 101. निष्फल धन
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1001
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भर कर घर भर प्रचुर धन, जो करता
नहिं भोग ।
धन के नाते मृतक है, जब है
नहिं उपयोग ॥
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1002
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‘सब होता है अर्थ से’, रख कर ऐसा ज्ञान ।
कंजूसी के मोह से, प्रेत-जन्म हो
मलान ॥
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1003
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लोलुप संग्रह मात्र का, यश का
नहीं विचार ।
ऐसे लोभी का जनम, है पृथ्वी
को भार ॥
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1004
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किसी एक से भी नहीं, किया गया
जो प्यार ।
निज अवशेष स्वरूप वह, किसको
करे विचार ॥
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1005
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जो करते नहिं दान ही, करते भी
नहिं भोग ।
कोटि कोटि धन क्यों न हो, निर्धन
हैं वे लोग ॥
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1006
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योग्य व्यक्ति को कुछ न दे, स्वयं
न करता भोग ।
विपुल संपदा के लिये, इस गुण
का नर रोग ॥
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1007
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कुछ देता नहिं अधन को, ऐसों का
धन जाय ।
क्वाँरी रह अति गुणवती, ज्यों
बूढ़ी हो जाय ॥
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1008
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अप्रिय जन के पास यदि, आश्रित
हो संपत्ति ।
ग्राम-मध्य विष-वृक्ष
ज्यों, पावे फल-संपत्ति ॥
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1009
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प्रेम-भाव तज कर तथा, भाव धर्म
से जन्य ।
आत्म-द्रोह कर जो जमा, धन हथियाते
अन्य ॥
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1010
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उनकी क्षणिक दरिद्रता, जो नामी
धनवान ।
जल से खाली जलद का, है स्वभाव
समान ॥
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अध्याय 102. लज्जाशीलता
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1011
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लज्जित होना कर्म से, लज्जा
रही बतौर ।
सुमुखी कुलांगना-सुलभ, लज्जा
है कुछ और ॥
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1012
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अन्न वस्त्र इत्यादि हैं, सब के
लिये समान ।
सज्जन की है श्रेष्ठता, होना लज्जावान
॥
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1013
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सभी प्राणियों के लिये, आश्रय
तो है देह ।
रखती है गुण-पूर्णता, लज्जा
का शुभ गेह ॥
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1014
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भूषण महानुभाव का, क्या नहिं
लज्जा-भाव ।
उसके बिन गंभीर गति, क्या नहिं
रोग-तनाव ॥
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1015
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लज्जित है, जो देख निज, तथा पराया
दोष ।
उनको कहता है जगत, ‘यह लज्जा
का कोष’ ॥
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1016
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लज्जा को घेरा किये, बिना सुरक्षण-योग ।
चाहेंगे नहिं श्रेष्ठ जन, विस्तृत
जग का भोग ॥
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1017
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लज्जा-पालक त्याग दें, लज्जा
के हित प्राण ।
लज्जा को छोड़ें नहीं, रक्षित
रखने जान ॥
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1018
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अन्यों को लज्जित करे, करते ऐसे
कर्म ।
उससे खुद लज्जित नहीं, तो लज्जित
हो धर्म ॥
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1019
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यदि चूके सिद्धान्त से, तो होगा
कुल नष्ट ।
स्थाई हो निर्लज्जता, तो हों
सब गुण नष्ट ॥
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1020
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कठपुथली में सूत्र से, है जीवन-आभास ।
त्यों है लज्जाहीन में, चैतन्य
का निवास ॥
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अध्याय 103. वंशोत्कर्ष-विधान
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1021
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‘हाथ न खींचूँ कर्म से, जो कुल हित कर्तव्य ।
इसके सम नहिं श्रेष्ठता, यों है
जो मन्तव्य ॥
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1022
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सत् प्रयत्न गंभीर मति, ये दोनों
ही अंश ।
क्रियाशील जब हैं सतत, उन्नत
होता वंश ॥
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1023
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‘कुल को अन्नत में करूँ’, कहता है दृढ बात ।
तो आगे बढ़ कमर कस, दैव बँटावे
हाथ ॥
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1024
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कुल हित जो अविलम्ब ही, हैं प्रयत्न
में चूर ।
अनजाने ही यत्न वह, बने सफलता
पूर ॥
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1025
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कुल अन्नति हित दोष बिन, जिसका
है आचार ।
बन्धु बनाने को उसे, घेर रहा
संसार ॥
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1026
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स्वयं जनित निज वंश का, परिपालन
का मान ।
अपनाना है मनुज को, उत्तम
पौरुष जान ॥
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1027
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महावीर रणक्षेत्र में, ज्यों
हैं जिम्मेदार ।
त्यों है सुयोग्य व्यक्ति पर, निज कुटुंब
का भार ॥
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1028
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कुल-पालक का है नहीं, कोई अवसर
खास ।
आलसवश मानी बने, तो होता
है नाश ॥
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1029
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जो होने देता नहीं, निज कुटुंब
में दोष ।
उसका बने शरीर क्या, दुख-दर्दों
का कोष ॥
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1030
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योग्य व्यक्ति कुल में नहीं, जो थामेगा
टेक ।
जड़ में विपदा काटते, गिर जाये
कुल नेक ॥
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अध्याय 104. कृषि
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1031
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कृषि-अधीन ही जग रहा, रह अन्यों
में घुर्ण ।
सो कृषि सबसे श्रेष्ठ है, यद्यपि
है श्रमपूर्ण ॥
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1032
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जो कृषि की क्षमता बिना, करते धंधे
अन्य ।
कृषक सभी को वहन कर, जगत-धुरी सम
गण्य ॥
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1033
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जो जीवित हैं हल चला, उनका जीवन
धन्य ।
झुक कर खा पी कर चलें, उनके पीचे
अन्य ॥
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1034
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निज नृप छत्रच्छाँह में, कई छत्रपति
शान ।
छाया में पल धान की, लाते सौम्य
किसान ॥
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1035
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निज कर से हल जोत कर, खाना जिन्हें
स्वभाव ।
माँगें नहिं, जो माँगता, देंगे
बिना दुराव ॥
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1036
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हाथ खिँचा यदि कृषक का, उनकी भी
नहिं टेक ।
जो ऐसे कहते रहे ‘हम हैं
निस्पृह एक’ ॥
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1037
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एक सेर की सूख यदि, पाव सेर
हो धूल ।
मुट्ठी भर भी खाद बिन, होगी फ़सल
अतूल ॥
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1038
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खेत जोतने से अधिक, खाद डालना
श्रेष्ठ ।
बाद निराकर सींचना, फिर भी
रक्षण श्रेष्ठ ॥
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1039
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चल कर यदि देखे नहीं, मालिक
दे कर ध्यान ।
गृहिणी जैसी रूठ कर, भूमि करेगी
मान ॥
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1040
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‘हम दरिद्र हैं’
यों करे, सुस्ती में आलाप ।
भूमि रूप देवी उसे, देख हँसेगी
आप ॥
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अध्याय 105. दरिद्रता
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1041
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यदि पूछो दारिद्र्य सम, दुःखद
कौन महान ।
तो दुःखद दारिद्र्य सम, दारिद्रता
ही जान ॥
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1042
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निर्धनता की पापिनी, यदि रहती
है साथ ।
लोक तथा परलोक से, धोना होगा
हाथ ॥
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1043
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निर्धनता के नाम से, जो है
आशा-पाश ।
कुलीनता, यश का करे, एक साथ ही नाश ॥
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1044
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निर्धनता पैदा करे, कुलीन
में भी ढील ।
जिसके वश वह कह उठे, हीन वचन
अश्लील ॥
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1045
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निर्धनता के रूप में, जो है
दुख का हाल ।
उसमें होती है उपज, कई तरह
की साल ॥
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1046
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यद्यपि अनुसंधान कर, कहे तत्व
का अर्थ ।
फिर भी प्रवचन दिन का, हो जाता
है व्यर्थ ॥
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1047
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जिस दरिद्र का धर्म से, कुछ भी
न अभिप्राय ।
जननी से भी अन्य सम, वह तो
देखा जाय ॥
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1048
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कंगाली जो कर चुकी, कल मेरा
संहार ।
अयोगी क्या आज भी, करने उसी
प्रकार ॥
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1049
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अन्तराल में आग के, सोना भी
है साध्य ।
आँख झपकना भी ज़रा, दारिद
में नहिं साध्य ॥
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1050
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भोग्य-हीन रह, दिन का, लेना नहिं
सन्यास ।
माँड-नमक का यम बने, करने हित
है नाश ॥
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अध्याय 106. याचना
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1051
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याचन करने योग्य हों, तो माँगना
ज़रूर ।
उनका गोपन-दोष हो, तेरा कुछ
न कसूर ॥
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1052
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यचित चीज़ें यदि मिलें, बिना दिये
दुख-द्वन्द ।
याचन करना मनुज को, देता है
आनन्द ॥
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1053
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खुला हृदय रखते हुए, जो मानेंगे
मान ।
उनके सम्मुख जा खड़े, याचन में
भी शान ॥
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1054
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जिन्हें स्वप्न में भी ‘नहीं’, कहने की
नहिं बान ।
उनसे याचन भी रहा, देना ही
सम जान ॥
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1055
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सम्मुख होने मात्र से, बिना किये
इनकार ।
दाता हैं जग में, तभी, याचन है
स्वीकार ॥
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1056
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उन्हें देख जिनको नहीं, ‘ना’, कह सहना
कष्ट ।
दुःख सभी दारिद्र्य के, एक साथ
हों नष्ट ॥
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1057
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बिना किये अवहेलना, देते जन
को देख ।
मन ही मन आनन्द से, रहा हर्ष-अतिरेक
॥
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1058
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शीतल थलयुत विपुल जग, यदि हो
याचक-हीन ।
कठपुथली सम वह रहे, चलती सूत्राधीन
॥
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1059
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जब कि प्रतिग्रह चाहते, मिलें
न याचक लोग ।
दाताओं को क्या मिले, यश पाने
का योग ॥
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1060
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याचक को तो चाहिये, ग्रहण
करे अक्रोध ।
निज दरिद्रता-दुःख ही, करे उसे
यह बोध ॥
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अध्याय 107. याचना-भय
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1061
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जो न छिपा कर, प्रेम
से, करते दान यथेष्ट ।
उनसे भी नहिं माँगना, कोटि गुना
है श्रेष्ठ ॥
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1062
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यदि विधि की करतार ने, भीख माँग
नर खाय ।
मारा मारा फिर वही, नष्ट-भ्रष्ट
हो जाय ॥
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1063
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‘निर्धनता के दुःख को, करें माँग कर दूर’ ।
इस विचार से क्रूरतर, और न है
कुछ क्रूर ॥
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1064
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दारिदवश भी याचना, जिसे नहीं
स्वीकार ।
भरने उसके पूर्ण-गुण, काफी नहिं
संसार ॥
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1065
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पका माँड ही क्यों न हो, निर्मल
नीर समान ।
खाने से श्रम से कमा, बढ़ कर
मधुर न जान ॥
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1066
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यद्यपि माँगे गाय हित, पानी का
ही दान ।
याचन से बदतर नहीं, जिह्वा
को अपमान ॥
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1067
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याचक सबसे याचना, यही कि
जो भर स्वाँग ।
याचन करने पर न दें, उनसे कभी
न माँग ॥
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1068
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याचन रूपी नाव यदि, जो रक्षा
बिन नग्न ।
गोपन की चट्टान से, टकराये
तो भग्न ॥
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1069
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दिल गलता है, ख्याल कर, याचन का
बदहाल ।
गले बिना ही नष्ट हो, गोपन का
कर ख्याल ॥
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1070
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‘नहीं’ शब्द सुन जायगी, याचक जन की जान ।
गोपन करते मनुज के, कहाँ छिपेंगे
प्राण ॥
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अध्याय 108. नीचता
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1071
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हैं मनुष्य के सदृश ही, नीच लोग
भी दृश्य ।
हमने तो देखा नहीं, ऐसा जो
सादृश्य ॥
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1072
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चिन्ता धर्माधर्म की, नहीं हृदय
के बीच ।
सो बढ़ कर धर्मज्ञ से, भाग्यवान
हैं नीच ॥
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1073
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नीच लोग हैं देव सम, क्योंकि
निरंकुश जीव ।
वे भी करते आचरण, मनमानी
बिन सींव ॥
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1074
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मनमौजी ऐसा मिले, जो अपने
से खर्व ।
तो उससे बढ़ खुद समझ, नीच करेगा
गर्व ॥
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1075
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नीचों के आचार का, भय ही
है आधार ।
भय बिन भी कुछ तो रहे, यदि हो
लाभ-विचार ॥
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1076
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नीच मनुज ऐसा रहा, जैसा पिटता
ढोल ।
स्वयं सुने जो भेद हैं, ढो अन्यों
को खोल ॥
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1077
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गाल-तोड़ घूँसा बिना, जो फैलाये
हाथ ।
झाडेंगे नहिं अधम जन, निज झूठा
भी हाथ ॥
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1078
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सज्जन प्रार्थन मात्र से, देते हैं
फल-दान ।
नीच निचोड़ों ईख सम, तो देते
रस-पान ॥
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1079
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खाते पीते पहनते, देख पराया
तोष ।
छिद्रान्वेषण-चतुर जो, नीच निकाले
दोष ॥
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1080
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नीच लोग किस योग्य हों, आयेंगे
क्या काम ।
संकट हो तो झट स्वयं, बिक कर
बनें गुलाम ॥
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