Monday 20 June 2005

अध्याय 51 से 60



अध्याय 51. परख कर विश्वास करना


501
धर्म-अर्थ औकाम से, मिला प्राण-भय चार ।
इन उपधाओं से परख, विश्वस्त है विचार ॥


502
जो कुलीन निर्दोष हो, निन्दा से भयभीत ।
तथा लजीला हो वही, विश्वस्त है पुनीत ॥


503
ज्ञाता विशिष्ट शास्त्र के, निर्दोष स्वभाव ।
फिर भी परखो तो उन्हें, नहिं अज्ञता-अभाव ॥


504
परख गुणों को फिर परख, दोषों को भी छान ।
उनमें बहुतायत परख, उससे कर पहचान ॥


505
महिमा या लघिमा सही, इनकी करने जाँच ।
नर के निज निज कर्म ही, बनें कसौटी साँच ॥


506
विश्वसनीय न मानिये, बन्धुहीन जो लोग ।
निन्दा से लज्जित न हैं, स्नेह शून्य वे लोग ॥


507
मूर्ख जनों पर प्रेमवश, जो करता विश्वास ।
सभी तरह से वह बने, जड़ता का आवास ।


508
परखे बिन अज्ञात पर, किया अगर विश्वास ।
संतित को चिरकाल तक, लेनी पड़े असाँस ॥


        509
किसी व्यक्ति पर मत करो, परखे बिन विश्वास ।
बेशक सौंपो योग्य यद, करने पर विश्वास ॥


        510
परखे बिन विश्वास भी, करके विश्वास ।
फिर करना सन्देह भी, देते हैं चिर नाश ॥ 

अध्याय 52. परख कर कार्य सौंपना


511
भले-बुरे को परख जो, करता भला पसंद ।
उसके योग्य नियुक्ति को, करना सही प्रबन्ध ॥


512
आय-वृद्धि-साधन बढ़ा, धन-वर्द्धक कर कार्य ।
विघ्न परख जो टालता, वही करे नृप-कार्य ॥


513
प्रेम, बुद्धि, दृढ़-चित्तता, निर्लोभता-सुनीति ।
चारों जिसमें पूर्ण हों, उसपर करो प्रतीति ॥


514
सभी तरह की परख सेयोग्य दिखें जो लोग ।
उनमें कार्य निबाहते, विकृत बने बहु लोग ॥


515
जो करता है धैर्य से, खूब समझ सदुपाय ।
उसे छोड़ प्रिय बन्धु को, कार्य न सौंपा जाय ॥


516
कर्ता का लक्षण परख, परख कर्म की रीति ।
संयोजित कर काल से, सौंपों सहित प्रतीति ॥


517
इस साधन से व्यक्ति यह, कर सकता यह कार्य ।
परिशीलन कर इस तरह, सौंप उसे वह कार्य ॥


518
यदि पाया इक व्यक्ति को, परख कार्य के योग्य ।
तो फिर उसे नियुक्त कर, पदवी देना योग्य ॥


        519
तत्परता-वश कार्य में, हुआ मित्र व्यवहार ।
उसको समझे अन्यता, तो श्री जावे पार ॥


        520
राज-भृत्य यदि विकृत नहिं, विकृत न होगा राज ।
रोज़ परखना चाहिये, नृप को उसका काज ॥

अध्याय 53. बन्धुओं को अपनाना


521
यद्यपि निर्धन हो गये, पहले कृत उपकार ।
कहते रहे बखान कर, केवल नातेदार ॥


522
बन्धु-वर्ग ऐसा मिले, जिसका प्रेम अटूट ।
तो वह दे संपत्ति सब , जिसकी वृद्धि  अटूट ॥


523
मिलनसार जो है नहीं, जीवन उसका व्यर्थ ।
तट बिन विस्तृत ताल ज्यों, भरता जल से व्यर्थ ॥


524
अपने को पाया धनी, तो फल हो यह प्राप्त ।
बन्धु-मंडली घिर रहे, यों रहना बन आप्त ॥


525
मधुर वचन जो बोलता, करता भी है दान ।
बन्धुवर्ग के वर्ग से, घिरा रहेगा जान ॥


526
महादान करते हुए, जो है क्रोध-विमुक्त ।
उसके सम भू में नहीं, बन्धुवर्ग से युक्त ॥


527
बिना छिपाये काँव कर, कौआ खाता भोज्य ।
जो हैं उसी स्वभाव के, पाते हैं सब भोग्य ॥


528
सब को सम देखे नहीं, देखे क्षमता एक ।
इस गुण से स्थायी रहें, नृप के बन्धु अनेक ॥


        529
बन्धु बने जो जन रहे, तोड़े यदि बन्धुत्व ।
अनबन का कारण मिटे, तो बनता बन्धुत्व ॥


        530
कारण बिन जो बिछुड़ कर, लौटे कारण साथ ।
साध-पूर्ति कर नृप उसे, परख, मिला के साथ ॥

अध्याय 54. अविस्मृति


531
अमित हर्ष से मस्त हो, रहना असावधान ।
अमित क्रोध से भी अधिक, हानि करेगा जान ॥


532
ज्यों है नित्यदारिद्रता, करती बुद्धि-विनाश ।
त्यों है असावधानता, करती कीर्ति-विनाश ॥


533
जो विस्मृत हैं वे नहीं, यश पाने के योग ।
जग में यों हैं एकमत, शास्त्रकार सब लोग ॥


534
लाभ नहीं है दुर्ग से, उनको जो भयशील ।
वैसे उनको ना भला, जो हैं विस्मृतिशील ॥


535
पहले से रक्षा न की, रह कर असावधान ।
विपदा आने पर रहा, पछताता अज्ञान ॥


536
सब जन से सब काल में, अविस्मरण की बान ।
बरती जाय अचूक तो, उसके है न समान ॥


537
रह कर विस्मृति के बिना, सोच-समझ कर कार्य ।
यदि करता है तो उसे, कुछ नहिं असाध्य कार्य ॥


538
करना श्रद्धा-भाव से, शास्त्रकार-स्तुत काम ।
रहा उपेक्षक, यदि न कर, सात जन्म बेकाम ॥


        539
जब अपने संतोष में, मस्त बनेंगे आप ।
गफलत से जो हैं मिटे, उन्हें विचारो आप ॥


        540
बना रहेगा यदि सदा, लक्ष्य मात्र का ध्यान ।
अपने इच्छित लक्ष्य को, पाना है आसान ॥

अध्याय 55. सुशासन


541
सबसे निर्दाक्षिण्य हो, सोच दोष की रीती ।
उचित दण्ड़ निष्पक्ष रह, देना ही है नीति ॥


542
जीवित हैं ज्यों जीव सब, ताक मेघ की ओर ।
प्रजा ताक कर जी रही, राजदण्ड की ओर ॥


543
ब्राहमण-पोषित वेद औ’, उसमें प्रस्तुत धर्म ।
इनका स्थिर आधार है, राजदण्ड का धर्म ॥


544
प्रजा-पाल जो हो रहा, ढोता शासन-भार ।
पाँव पकड़ उस भूप के, टिकता है संसार ॥


545
है जिस नृप के देश में, शासन सुनीतिपूर्ण ।
साथ मौसिमी वृष्टि के, रहे उपज भी पूर्ण ॥


546
रजा को भाला नहीं, जो देता है जीत ।
राजदण्ड ही दे विजय, यदि उसमें है सीध ॥


547
रक्षा सारे जगत की, करता है नरनाथ ।
उसका रक्षक नीति है, यदि वह चले अबाध ॥


548
न्याय करे नहिं सोच कर, तथा भेंट भी कष्ट ।
ऐसा नृप हो कर पतित, होता खुद ही नष्ट ॥


        549
जन-रक्षण कर शत्रु से, करता पालन-कर्म ।
दोषी को दे दण्ड तो, दोष न, पर नृप-धर्म ॥


        550
यथा निराता खेत को, रखने फसल किसान ।
मृत्यु-दण्ड नृप का उन्हें, जो हैं दुष्ट महान ॥

अध्याय 56. क्रूर-शासन


551
हत्यारे से भी अधिक, वह राजा है क्रूर ।
जो जन को हैरान कर, करे पाप भरपूर ॥


552
भाला ले कर हो खड़े, डाकू की ज्यों माँग ।
राजदण्डयुत की रही, त्यों भिक्षा की माँग ॥


553
दिन दिन नीति विचार कर, नृप न करे यदि राज ।
ह्रासोन्मुख होता रहे, दिन दिन उसका राज ॥


554
नीतिहीन शासन करे, बिन सोचे नरनाथ ।
तो वह प्रजा व वित्त को, खो बैठे इक साथ ॥


555
उतपीड़ित जन रो पड़े, जब वेदना अपार ।
श्री का नाशक शास्त्र है, क्या न नेत्र-जल-धार ॥


556
नीतिपूर्ण शासन रखे, नृप का वश चिरकाल ।
नीति न हो तो, भूप का, यश न रहे सब काल ॥


557
अनावृष्टि से दुःख जो, पाती भूमि अतीव ।
दयावृष्टि बिन भूप की, पाते हैं सब जिव ॥


558
अति दुःखद है सधनता, रहने से धनहीन ।
यदि अन्यायी राज के, रहना पड़े अधीन ॥


        559
यदि राजा शासन करे, राजधर्म से चूक ।
पानी बरसेगा नहीं, ऋतु में बादल चूक ॥


        560
षटकर्मी को स्मृति नहीं, दूध न देगी गाय ।
यदि जन-रक्षक भूप से, रक्षा की नहिं जाय ॥

अध्याय 57. भयकारी कर्म करना


561
भूप वही जो दोष का, करके उचित विचार ।
योग्य दण्ड से इस तरह, फिर नहिं हो वह कार ॥


562
राजश्री चिरकाल यदि, रखना चाहें साथ ।
दिखा दण्ड की उग्रता, करना मृदु आघात ॥


563
यदि भयकारी कर्म कर, करे प्रजा को त्रस्त ।
निश्चय जल्दी कूर वह, हो जावेगा अस्त ॥


564
जिस नृप की दुष्कीर्ति हो, ‘राजा है अति क्रूर
अल्प आयु हो जल्द वह, होगा नष्ट ज़रूर ॥


565
अप्रसन्न जिसका वदन, भेंट नहीं आसान ।
ज्यों अपार धन भूत-वश, उसका धन भी जान ॥


566
कटु भाषी यदि हो तथा, दया-दृष्टि से हीन ।
विपुल विभव नृप का मिटे, तत्क्षण हो स्थितिहीन ॥


567
कटु भाषण नृप का तथा, देना दण्ड अमान ।
शत्रु-दमन की शक्ति को, घिसती रेती जान ॥


568
सचिवों की न सलाह ले, फिर होने पर कष्ट ।
आग-बबूला नृप हुआ, तो श्री होगी नष्ट ॥


569
दुर्ग बनाया यदि नहीं, रक्षा के अनुरूप ।
युद्ध छिड़ा तो हकबका, शीघ्र मिटे वह भूप ॥


570
मूर्खों को मंत्री रखे, यदि शासक बहु क्रूर ।
उनसे औनहिं भूमि को, भार रूप भरपूर ॥

अध्याय 58.दया-दृष्टि


571
करुणा रूपी सोहती, सुषमा रही अपार ।
नृप में उसके राजते, टिकता है संसार ॥


572
करुणा से है चल रहा, सांसारिक व्यवहार ।
जो नर उससे रहित है, केवल भू का भार ॥


573
मेल न हो तो गान से, तान करे क्या काम ।
दया न हो तो दृष्टि में, दृग आये क्या काम ॥


574
करुणा कलित नयन नहीं, समुचित सीमाबद्ध ।
तो क्या आवें काम वे, मुख से रह संबन्ध ॥


575
आभूषण है नेत्र का, करुणा का सद्भाव ।
उसके बिन जाने उसे, केवल मुख पर घाव ॥


576
रहने पर भी आँख के, जिसके है नहिं आँख ।
यथा ईख भू में लगी, जिसके भी हैं आँख ॥


577
आँखहीन ही हैं मनुज, यदि न आँख का भाव ।
आँखयुक्त में आँख का, होता भी न अभाव ॥


578
हानि बिना निज धर्म की, करुणा का व्यवहार ।
जो कर सकता है उसे, जग पर है अधिकार ॥


        579
अपनी क्षति भी जो करे, उसपर करुणा-भाव ।
धारण कर, करना क्षमा, नृप का श्रेष्ठ स्वभाव ॥


        580
देख मिलाते गरल भी, खा जाते वह भोग ।
वाँछनीय दाक्षिण्य के, इच्छुक हैं जो लोग ॥

अध्याय 59. गुप्तचर-व्यवस्था


581
जो अपने चर हैं तथा, नीतिशास्त्र विख्यात ।
ये दोनों निज नेत्र हैं, नृप को होना ज्ञात ॥


582
सब पर जो जो घटित हों, सब बातें सब काल ।
राजधर्म है जानना, चारों से तत्काल ॥


583
बात चरों से जानते, आशय का नहिं ज्ञान ।
तो उस नृप की विजय का, मार्ग नहीं है आन ॥


584
राजकर्मचारी, स्वजन, तथा शत्रु जो वाम ।
सब के सब को परखना, रहा गुप्तचर-काम ॥


585
रूप देख कर शक न हो, आँख हुई, निर्भीक ।
कहीं कहे नहिं मर्म को, सक्षम वह चर ठीक ॥


586
साधु वेष में घुस चले, पता लगाते मर्म ।
फिर कुछ भी हो चुप रहे, यही गुप्तचर-कर्म ॥


587
भेद लगाने में चतुर, फिर जो बातें ज्ञात ।
उनमें संशयरहित हो, वही भेदिया ख्यात ॥


588
पता लगा कर भेद का, लाया यदि इक चार ।
भेद लगा फिर अन्य से, तुलना कर स्वीकार ॥


        589
चर चर को जाने नहीं, यों कर शासन-कर्म ।
सत्य मान, जब तीन चर, कहें एक सा मर्म ॥


        590
खुले आम जासूस का, करना मत सम्मान ।
अगर किया तो भेद को, प्रकट किया खुद जान ॥

अध्याय 60. उत्साहयुक्तता


591
धनी कहाने योग्य है, यदि हो धन उत्साह ।
उसके बिन यदि अन्य धन, हो तो क्या परवाह ॥


592
एक स्वत्व उत्साह है, स्थायी स्वत्व ज़रूर ।
अस्थायी रह अन्य धन, हो जायेंगे दूर ॥


593
रहता जिनके हाथ में, उमंग का स्थिर वित्त ।
वित्त गयाकहते हुए, ना हों अधीर-चित्त ॥


594
जिस उत्साही पुरुष का, अचल रहे उत्साह ।
वित्त चले उसके यहाँ, पूछ-ताछ कर राह ॥


595
जलज-नाल उतनी बड़ी, जितनी जल की थाह ।
नर होता उतना बड़ा, जितना हो उत्साह ॥


596
जो विचार मन में उठें, सब हों उच्च विचार ।
यद्यपि सिद्ध न उच्चता, विफल न वे सुविचार ॥


597
दुर्गति में भी उद्यमी, होते नहीं अधीर ।
घायल भी शर-राशि से, गज रहता है धीर ॥


598
हम तो हैं इस जगत में, दानी महा धुरीण
कर सकते नहिं गर्व यों, जो हैं जोश-विहीन ॥


        599
यद्यपि विशालकाय है, तथा तेज़ हैं दांत ।
डरता है गज बाघ से, होने पर आक्रांत ॥


        600
सच्ची शक्ति मनुष्य की, है उत्साह अपार ।
उसके बिन नर वृक्ष सम, केवल नर आकार ॥

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