भाग–१: धर्म- कांड
अध्याय 1. ईश्वर-स्तुति
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1
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अक्षर सबके आदि में, है अकार
का स्थान ।
अखिल लोक का आदि तो, रहा आदि
भगवान ॥
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2
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विद्योपार्जन भी भला, क्या आयेगा
काम ।
श्रीपद पर सत्याज्ञ के, यदि नहिं किया प्रणाम ॥ |
3
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हृदय-पद्म-गत ईश के, पाद-पद्म जो पाय
।
श्रेयस्कर वरलोक में, चिरजीवी रह जाय ॥ |
4
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राग-द्वेष विहीन के, चरणाश्रित
जो लोग ।
दुःख न दे उनको कभी, भव-बाधा का रोग ॥ |
5
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जो रहते हैं ईश के, सत्य भजन
में लिप्त ।
अज्ञानाश्रित कर्म दो, उनको करें न लिप्त ॥ |
6
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पंचेन्द्रिय-निग्रह किये, प्रभु
का किया विधान ।
धर्म-पंथ के पथिक जो, हों चिर आयुष्मान ॥ |
7
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ईश्वर उपमारहित का, नहीं पदाश्रय-युक्त
।
तो निश्चय संभव नहीं, होना चिन्ता-मुक्त ॥ |
8
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धर्म-सिन्धु करुणेश के, शरणागत
है धन्य ।
उसे छोड दुख-सिन्धु को, पार न पाये अन्य ॥ |
9
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निष्क्रिय इन्द्रिय सदृश ही, 'सिर' है केवल
नाम ।
अष्टगुणी के चरण पर, यदि नहिं
किया प्रणाम ॥
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10
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भव-सागर विस्तार से, पाते हैं
निस्तार ।
ईश-शरण बिन जीव तो, कर नहीं
पाये पार ॥
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अध्याय 2 . वर्ष- महत्व
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11
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उचित समय की वृष्टि से, जीवित
है संसार ।
मानी जाती है तभी, वृष्टि
अमृत की धार ॥
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12
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आहारी को अति रुचिर, अन्नरूप
आहार ।
वृष्ति सृष्टि कर फिर स्वयं, बनती है
आहार ॥
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13
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बादल-दल बरसे नहीं, यदि मौसम
में चूक ।
जलधि-धिरे भूलोक में, क्षुत
से हो आति हूक ॥
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14
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कर्षक जन से खेत में, हल न चलाया
जाय ।
धन-वर्षा-संपत्ति की, कम होती
यदि आय ॥
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15
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वर्षा है ही आति प्रबल, सब को
कर बरबाद ।
फिर दुखियों का साथ दे, करे वही
आबाद ॥
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16
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बिना हुए आकाश से, रिमझिम
रिमझिम वृष्टि ।
हरि भरी तृण नोक भी, आयेगी
नहीं दृष्टि ॥
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17
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घटा घटा कर जलधि को, यदि न
करे फिर दान ।
विस्तृत बड़े समुद्र का, पानी उतरा
जान ॥
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18
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देवाराधन नित्य का, उत्सव
सहित अमंद ।
वृष्टि न हो तो भूमि पर, हो जावेगा
बंद ॥
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19
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इस विस्तृत संसार में, दान पुण्य
तप कर्म ।
यदि पानी बरसे नहीं, टिकें
न दोनों कर्म ॥
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20
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नीर बिना भूलोक का, ज्यों
न चले व्यापार ।
कभी किसी में नहिं टिके, वर्षा
बिन आचार ॥
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अध्याय 3. सन्यासी- महिमा
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21
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सदाचार संपन्न जो, यदि यति
हों वे श्रेष्ठ ।
धर्मशास्त्र सब मानते, उनकी महिमा
श्रेष्ठ ॥
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22
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यति-महिमा को आंकने, यदि हो
कोई यत्न ।
जग में मृत-जन-गणन सम, होता है
वह यत्न ॥
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23
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जन्म-मोक्ष के ज्ञान से, ग्रहण
किया सन्यास ।
उनकी महिमा का बहुत, जग में
रहा प्रकाश ॥
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24
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अंकुश से दृढ़ ज्ञान के, इन्द्रिय
राखे आप ।
ज्ञानी वह वर लोक का, बीज बनेगा
आप ॥
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25
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जो है इन्द्रिय-निग्रही, उसकी शक्ति
अथाह ।
स्वर्गाधीश्वर इन्द्र ही, इसका रहा
गवाह ॥
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26
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करते दुष्कर कर्म हैं, जो हैं
साधु महान ।
दुष्कर जो नहिं कर सके, अधम लोक
वे जान ॥
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27
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स्पर्श रूप रस गन्ध औ', शब्द मिला
कर पंच ।
समझे इन्के तत्व जो, समझे वही
प्रपंच ॥
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28
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भाषी वचन अमोध की, जो है
महिमा सिद्ध ।
गूढ़ मंत्र उनके कहे, जग में
करें प्रसिद्ध ॥
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29
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सद्गुण रूपी अचल पर, जो हैं
चढ़े सुजान ।
उनके क्षण का क्रोध भी, सहना दुष्कर
जान ॥
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30
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करते हैं सब जीव से, करुणामय
व्यवहार ।
कहलाते हैं तो तभी, साधु दया-आगार ॥
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अध्याय 4. धर्म पर आग्रह
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31
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मोक्षप्रद तो धर्म है, धन दे
वही अमेय ।
उससे बढ़ कर जीव को, है क्या
कोई श्रेय ॥
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32
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बढ़ कर कहीं सुधर्म से, अन्य न
कुछ भी श्रेय ।
भूला तो उससे बड़ा, और न कुछ
अश्रेय ॥
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33
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यथाशक्ति करना सदा, धर्मयुक्त
ही कर्म ।
तन से मन से वचन से, सर्व रीती
से धर्म
।
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34
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मन का होना मल रहित, इतना ही
है धर्म ।
बाकी सब केवल रहे, ठाट-बाट के
कर्म ॥
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35
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क्रोध लोभ फिर कटुवचन, और जलन
ये चार ।
इनसे बच कर जो हुआ, वही धर्म
का सार ॥
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36
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'बाद करें मरते समय', सोच न यों, कर धर्म ।
जान जाय जब छोड़ तन, चिर संगी
है धर्म ॥
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37
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धर्म-कर्म के सुफल का, क्या चाहिये
प्रमाण ।
शिविकारूढ़, कहार के, अंतर से
तू जान ॥
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38
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बिना गँवाए व्यर्थ दिन, खूब करो
यदि धर्म ।
जन्म-मार्ग को रोकता, शिलारूप
वह धर्म ॥
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39
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धर्म-कर्म से जो हुआ, वही सही
सुख-लाभ ।
अन्य कर्म से सुख नहीं, न तो कीर्ति
का लाभ ॥
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40
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करने योग्य मनुष्य के, धर्म-कर्म ही
मान ।
निन्दनीय जो कर्म हैं, वर्जनीय
ही जान ॥
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अध्याय 5. गार्हस्थ्य
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41
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धर्मशील जो आश्रमी, गृही छोड़
कर तीन ।
स्थिर आश्रयदाता रहा, उनको गृही अदीन ॥ |
42
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उनका रक्षक है गृही, जो होते
हैं दीन ।
जो अनाथ हैं, और जो, मृतजन आश्रयहीन ॥ |
43
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पितर देव फिर अतिथि जन, बन्धु
स्वयं मिल पाँच ।
इनके प्रति कर्तव्य का, भरण धर्म
है साँच ॥
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44
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पापभीरु हो धन कमा, बाँट यथोचित
अंश ।
जो भोगे उस पुरुष का, नष्ट न होगा वंश ॥ |
45
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प्रेम- युक्त गार्हस्थ्य हो, तथा धर्म
से पूर्ण ।
तो समझो वह धन्य है, तथा सुफल से पूर्ण ॥ |
46
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धर्म मार्ग पर यदि गृही, चलायगा
निज धर्म ।
ग्रहण करे वह किसलिये, फिर अपराश्रम धर्म ॥ |
47
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भरण गृहस्थी धर्म का, जो भी
करे गृहस्थ ।
साधकगण के मध्य वह, होता है अग्रस्थ ॥ |
48
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अच्युत रह निज धर्म पर, सबको चला
सुराह ।
क्षमाशील गार्हस्थ्य है, तापस्य से अचाह ॥ |
49
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जीवन ही गार्हस्थ्य का, कहलाता
है धर्म ।
अच्छा हो यदि वह बना, जन-निन्दा बिन धर्म ॥ |
50
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इस जग में है जो गृही, धर्मनिष्ठ
मतिमान ।
देवगणों में स्वर्ग के, पावेगा सम्मान ॥ |
अध्याय 6. सहधर्मिणी
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51
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गृहिणी-गुण-गण प्राप्त
कर, पुरुष-आय अनुसार ।
जो गृह-व्यय करती वही, सहधर्मिणी
सुचार ॥
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52
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गुण-गण गृहणी में न हो, गृह्य-कर्म के
अर्थ ।
सुसंपन्न तो क्यों न हो, गृह-जीवन है
व्यर्थ ॥
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53
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गृहिणी रही सुधर्मिणी, तो क्या
रहा अभाव ।
गृहिणी नहीं सुधर्मिणी, किसका
नहीं अभाव ॥
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54
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स्त्री से बढ़ कर श्रेष्ठ ही, क्या है
पाने योग्य ।
यदि हो पातिव्रत्य की, दृढ़ता
उसमें योग्य ॥
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55
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पूजे सती न देव को, पूज जगे
निज कंत ।
उसके कहने पर ‘बरस’, बरसे मेघ
तुरंत ॥
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56
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रक्षा करे सतीत्व की, पोषण करती
कांत ।
गृह का यश भी जो रखे, स्त्री
है वह अश्रांत ॥
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57
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परकोटा पहरा दिया, इनसे क्या
हो रक्ष ।
स्त्री हित पातिव्रत्य ही, होगा उत्तम
रक्ष ॥
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58
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यदि पाती है नारियाँ, पति पूजा
कर शान ।
तो उनका सुरधाम में, होता है
बहुमान ॥
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59
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जिसकी पत्नी को नहीं, घर के
यश का मान ।
नहिं निन्दक के सामने, गति शार्दूल
समान ॥
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60
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गृह का जयमंगल कहें, गृहिणी
की गुण-खान ।
उनका सद्भूषण कहें, पाना सत्सन्तान
॥
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अध्याय 7. संतान-लाभ
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61
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बुद्धिमान सन्तान से, बढ़ कर
विभव सुयोग्य ।
हम तो मानेंगे नहीं, हैं पाने
के योग्य ॥
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62
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सात जन्म तक भी उसे, छू नहिं
सकता ताप ।
यदि पावे संतान जो, शीलवान
निष्पाप ॥
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63
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निज संतान-सुकर्म से, स्वयं
धन्य हों जान ।
अपना अर्थ सुधी कहें, है अपनी
संतान ॥
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64
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नन्हे निज संतान के, हाथ विलोड़ा
भात ।
देवों के भी अमृत का, स्वाद
करेगा मात ॥
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65
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निज शिशु अंग-स्पर्श
से, तन को है सुख-लाभ ।
टूटी- फूटी बात से, श्रुति को है सुख-लाभ ॥
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66
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मुरली-नाद मधुर कहें, सुमधुर
वीणा-गान ।
तुतलाना संतान का, जो न सुना
निज कान ॥
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67
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पिता करे उपकार यह, जिससे
निज संतान ।
पंडित-सभा-समाज में, पावे अग्रस्थान
॥
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68
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विद्यार्जन संतान का, अपने को
दे तोष ।
उससे बढ़ सब जगत को, देगा वह
संतोष ॥
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69
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पुत्र जनन पर जो हुआ, उससे बढ़
आनन्द ।
माँ को हो जब वह सुने, महापुरुष निज नन्द ॥ |
70
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पुत्र पिता का यह करे, बदले में
उपकार ।
`धन्य धन्य इसके पिता’, यही कहे संसार ॥ |
अध्याय 8. प्रेम-भाव
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71
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अर्गल है क्या जो रखे, प्रेमी
उर में प्यार ।
घोषण करती साफ़ ही, तुच्छ
नयन-जल-धार ॥
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72
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प्रेम-शून्य जन स्वार्थरत, साधें
सब निज काम ।
प्रेमी अन्यों के लिये, त्यागें
हड्डी-चाम ॥
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73
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सिद्ध हुआ प्रिय जीव का, जो तन
से संयोग ।
मिलन-यत्न-फल प्रेम से, कहते हैं बुध लोग ॥
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74
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मिलनसार के भाव को, जनन करेगा
प्रेम ।
वह मैत्री को जन्म दे, जो है
उत्तम क्षेम ॥
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75
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इहलौकिक सुख भोगते, निश्रेयस
का योग ।
प्रेमपूर्ण गार्हस्थ्य का, फल मानें
बुध लोग ॥
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76
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साथी केवल धर्म का, मानें प्रेम, अजान ।
त्राण करे वह प्रेम ही, अधर्म से भी जान ॥ |
77
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कीड़े अस्थिविहीन को, झुलसेगा
ज्यों धर्म ।
प्राणी प्रेम विहीन को, भस्म करेगा धर्म ॥ |
78
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नीरस तरु मरु भूमि पर, क्या हो
किसलय-युक्त ।
गृही जीव वैसा समझ, प्रेम-रहित मन-युक्त ॥ |
79
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प्रेम देह में यदि नहीं, बन भातर
का अंग ।
क्या फल हो यदि पास हों, सब बाहर के अंग ॥ |
80
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प्रेम-मार्ग पर जो चले, देह वही
सप्राण ।
चर्म-लपेटी अस्थि है, प्रेम-हीन की मान ॥ |
अध्याय 9. अतिथि-सत्कार
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81
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योग-क्षेम निबाह कर, चला रहा
घर-बार ।
आदर करके अतिथि का, करने को उपकार ॥ |
82
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बाहर ठहरा अतिथि को, अन्दर
बैठे आप ।
देवामृत का क्यों न हो, भोजन करना पाप ॥ |
83
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दिन दिन आये अतिथि का, करता जो
सत्कार ।
वह जीवन दारिद्रय का, बनता नहीं शिकार ॥ |
84
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मुख प्रसन्न हो जो करे, योग्य
अतिथि-सत्कार ।
उसके घर में इन्दिरा, करती सदा बहार ॥ |
85
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खिला पिला कर अतिथि को, अन्नशेष
जो खाय ।
ऐसों के भी खेत को, काहे बोया जाया ॥ |
86
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प्राप्त अतिथि को पूज कर, और अतिथि
को देख ।
जो रहता, वह स्वर्ग का, अतिथि
बनेगा नेक ॥
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87
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अतिथि-यज्ञ के सुफल की, महिमा
का नहिं मान ।
जितना अतिथि महान है, उतना ही
वह मान ॥
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88
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'कठिन यत्न से जो जुड़ा, सब धन हुआ समाप्त' ।
यों रोवें, जिनको नहीं, अतिथि-यज्ञ-फल प्राप्त
॥
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89
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निर्धनता संपत्ति में, अतिथि-उपेक्षा
जान ।
मूर्ख जनों में मूर्ख यह, पायी जाती
बान ॥
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90
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सूंघा ‘अनिच्च’ पुष्प
को, तो वह मुरझा जाय ।
मुँह फुला कर ताकते, सूख अतिथि-मुख जाय
॥
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अध्याय 10. मधुर-भाषण
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91
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जो
मूँह से तत्वज्ञ के, हो कर निर्गत शब्द ।
प्रेम-सिक्त निष्कपट हैं, मधुर वचन वे शब्द ॥ |
92
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मन
प्रसन्न हो कर सही, करने से भी दान ।
मुख प्रसन्न भाषी मधुर, होना उत्तम मान ॥ |
93
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ले
कर मुख में सौम्यता, देखा भर प्रिय भाव ।
बिला हृद्गत मृदु वचन, यही धर्म का भाव ॥ |
94
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दुख-वर्धक
दारिद्र्य भी, छोड़ जायगा साथ ।
सुख-वर्धक प्रिय वचन यदि, बोले सब के साथ ॥ |
95
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मृदुभाषी
होना तथा, नम्र-भाव से युक्त ।
सच्चे भूषण मनुज के, अन्य नहीं है उक्त ॥ |
96
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होगा
ह्रास अधर्म का, सुधर्म का उत्थान ।
चुन
चुन कर यदि शुभ वचन, कहे मधुरता-सान ॥
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97
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मधुर
शब्द संस्कारयुत, पर को कर वरदान ।
वक्ता
को नय-नीति दे, करता पुण्य प्रदान ॥
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98
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ओछापन
से रहित जो, मीठा वचन प्रयोग ।
लोक
तथा परलोक में, देता है सुख-भोग ॥
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99
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मधुर
वचन का मधुर फल, जो भोगे खुद आप ।
कटुक
वचन फिर क्यों कहे, जो देता संताप ॥
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100
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रहते
सुमधुर वचन के, कटु कहने की बान ।
यों
ही पक्का छोड़ फल, कच्चा ग्रहण समान ॥
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