Tuesday, 21 June 2005

अध्याय 1 से 10


भाग: धर्म- कांड

अध्याय 1. ईश्वर-स्तुति


1
अक्षर सबके आदि में, है अकार का स्थान ।
अखिल लोक का आदि तो, रहा आदि भगवान ॥


2
विद्योपार्जन भी भला, क्या आयेगा काम ।
श्रीपद पर सत्याज्ञ के, यदि नहिं किया प्रणाम ॥


3
हृदय-पद्-गत ईश के, पाद-पद्म जो पाय ।
श्रेयस्कर वरलोक में, चिरजीवी रह जाय ॥


4
राग-द्वेष विहीन के, चरणाश्रित जो लोग ।
दुःख न दे उनको कभी, भव-बाधा का रोग ॥


5
जो रहते हैं ईश के, सत्य भजन में लिप्त ।
अज्ञानाश्रित कर्म दो, उनको करें न लिप्त ॥


6
पंचेन्द्रिय-निग्रह किये, प्रभु का किया विधान ।
धर्म-पंथ के पथिक जो, हों चिर आयुष्मान ॥


7
ईश्वर उपमारहित का, नहीं पदाश्रय-युक्त ।
तो निश्चय संभव नहीं, होना चिन्ता-मुक्त ॥


8
धर्म-सिन्धु करुणेश के, शरणागत है धन्य ।
उसे छोड दुख-सिन्धु को, पारन पाये अन्य ॥


9
निष्क्रिय इन्द्रिय सदृश ही, 'सिर' है केवल नाम ।
अष्टगुणी के चरण पर, यदि नहिं किया प्रणाम ॥


10
भव-सागर विस्तार से, पाते हैं निस्तार ।
ईश-शरण बिन जीव तो, कर नहीं पाये पार ॥

अध्याय 2 . वर्ष- महत्व


11
उचित समय की वृष्टि से, जीवित है संसार ।
मानी जाती है तभी, वृष्टि अमृत की धार ॥


12
आहारी को अति रुचिर‍, अन्नरूप आहार ।
वृष्ति सृष्टि कर फिर स्वयं, बनती है आहार ॥


13
बादल-दल बरसे नहीं, यदि मौसम में चूक ।
जलधि-धिरे भूलोक में, क्षुत से हो आति हूक ॥


14
कर्षक जन से खेत में, हल न चलाया जाय ।
धन-वर्षा-संपत्ति की, कम होती यदि आय ॥


15
वर्षा है ही आति प्रबल, सब को कर बरबाद ।
फिर दुखियों का साथ दे, करे वही आबाद ॥


16
बिना हुए आकाश से, रिमझिम रिमझिम वृष्टि ।
हरि भरी तृण नोक भी, आयेगी नहीं दृष्टि ॥


17
घटा घटा कर जलधि को, यदि न करे फिर दान ।
विस्तृत बड़े समुद्र का, पानी उतरा जान ॥


18
देवाराधन नित्य का, उत्सव सहित अमंद ।
वृष्टि न हो तो भूमि पर, हो जावेगा बंद ॥


19
इस विस्तृत संसार में, दान पुण्य तप कर्म ।
यदि पानी बरसे नहीं, टिकें न दोनों कर्म ॥


20
नीर बिना भूलोक का, ज्यों न चले व्यापार ।
कभी किसी में नहिं टिके, वर्षा बिन आचार ॥

अध्याय 3. सन्यासी- महिमा


21
सदाचार संपन्न जो, यदि यति हों वे श्रेष्ठ ।
धर्मशास्त्र सब मानते, उनकी महिमा श्रेष्ठ ॥


22
यति-महिमा को आंकने, यदि हो कोई यत्न ।
जग में मृत-जन-गणन सम, होता है वह यत्न ॥


23
जन्म-मोक्ष के ज्ञान से, ग्रहण किया सन्यास ।
उनकी महिमा का बहुत, जग में रहा प्रकाश ॥


24
अंकुश से दृढ़ ज्ञान के, इन्द्रिय राखे आप ।
ज्ञानी वह वर लोक का, बीज बनेगा आप ॥


25
जो है इन्द्रिय-निग्रही, उसकी शक्ति अथाह ।
स्वर्गाधीश्वर इन्द्र ही, इसका रहा गवाह ॥


26
करते दुष्कर कर्म हैं, जो हैं साधु महान ।
दुष्कर जो नहिं कर सके, अधम लोक वे जान ॥


27
स्पर्श रूप रस गन्ध औ', शब्द मिला कर पंच ।
समझे इन्के तत्व जो, समझे वही प्रपंच ॥


28
भाषी वचन अमोध की, जो है महिमा सिद्ध ।
गूढ़ मंत्र उनके कहे, जग में करें प्रसिद्ध ॥


29
सद्गुण रूपी अचल पर, जो हैं चढ़े सुजान ।
उनके क्षण का क्रोध भी, सहना दुष्कर जान ॥


30
करते हैं सब जीव से, करुणामय व्यवहार ।
कहलाते हैं तो तभी, साधु दया-आगार ॥

अध्याय 4. धर्म पर आग्रह


31
मोक्षप्रद तो धर्म है, धन दे वही अमेय ।
उससे बढ़ कर जीव को, है क्या कोई श्रेय ॥


32
बढ़ कर कहीं सुधर्म से, अन्य न कुछ भी श्रेय ।
भूला तो उससे बड़ा, और न कुछ अश्रेय ॥


33
यथाशक्ति करना सदा, धर्मयुक्त ही कर्म ।
तन से मन से वचन से, सर्व रीती से धर्म 


34
मन का होना मल रहित, इतना ही है धर्म ।
बाकी सब केवल रहे, ठाट-बाट के कर्म ॥


35
क्रोध लोभ फिर कटुवचन, और जलन ये चार ।
इनसे बच कर जो हुआ, वही धर्म का सार ॥


36
'बाद करें मरते समय', सोच न यों, कर धर्म ।
जान जाय जब छोड़ तन, चिर संगी है धर्म ॥


37
धर्म-कर्म के सुफल का, क्या चाहिये प्रमाण ।
शिविकारूढ़, कहार के, अंतर से तू जान ॥


38
बिना गँवाए व्यर्थ दिन, खूब करो यदि धर्म ।
जन्म-मार्ग को रोकता, शिलारूप वह धर्म ॥


39
धर्म-कर्म से जो हुआ, वही सही सुख-लाभ ।
अन्य कर्म से सुख नहीं, न तो कीर्ति का लाभ ॥


40
करने योग्य मनुष्य के, धर्म-कर्म ही मान ।
निन्दनीय जो कर्म हैं, वर्जनीय ही जान ॥

अध्याय 5. गार्हस्थ्य


41
धर्मशील जो आश्रमी, गृही छोड़ कर तीन ।
स्थिर आश्रयदाता रहा, उनको गृही अदीन ॥


42
उनका रक्षक है गृही, जो होते हैं दीन ।
जो अनाथ हैं, और जो, मृतजन आश्रयहीन ॥


43
पितर देव फिर अतिथि जन, बन्धु स्वयं मिल पाँच ।
इनके प्रति कर्तव्य का, भरण धर्म है साँच ॥


44
पापभीरु हो धन कमा, बाँट यथोचित अंश ।
जो भोगे उस पुरुष का, नष्ट न होगा वंश ॥


45
प्रेम- युक्त गार्हस्थ्य हो, तथा धर्म से पूर्ण ।
तो समझो वह धन्य है, तथा सुफल से पूर्ण ॥


46
धर्म मार्ग पर यदि गृही, चलायगा निज धर्म ।
ग्रहण करे वह किसलिये, फिर अपराश्रम धर्म ॥


47
भरण गृहस्थी धर्म का, जो भी करे गृहस्थ ।
साधकगण के मध्य वह, होता है अग्रस्थ ॥


48
अच्युत रह निज धर्म पर, सबको चला सुराह ।
क्षमाशील गार्हस्थ्य है, तापस्य से अचाह ॥


49
जीवन ही गार्हस्थ्य का, कहलाता है धर्म ।
अच्छा हो यदि वह बना, जन-निन्दा बिन धर्म ॥


50
इस जग में है जो गृही, धर्मनिष्ठ मतिमान ।
देवगणों में स्वर्ग के, पावेगा सम्मान ॥

अध्याय 6. सहधर्मिणी


51
गृहिणी-गुण-गण प्राप्त कर, पुरुष-आय अनुसार ।
जो गृह-व्यय करती वही, सहधर्मिणी सुचार ॥


52
गुण-गण गृहणी में न हो, गृह्य-कर्म के अर्थ ।
सुसंपन्न तो क्यों न हो, गृह-जीवन है व्यर्थ ॥


53
गृहिणी रही सुधर्मिणी, तो क्या रहा अभाव ।
गृहिणी नहीं सुधर्मिणी, किसका नहीं अभाव ॥


54
स्त्री से बढ़ कर श्रेष्ठ ही, क्या है पाने योग्य ।
यदि हो पातिव्रत्य की, दृढ़ता उसमें योग्य ॥


55
पूजे सती न देव को, पूज जगे निज कंत ।
उसके कहने पर बरस’, बरसे मेघ तुरंत ॥


56
रक्षा करे सतीत्व की, पोषण करती कांत ।
गृह का यश भी जो रखे, स्त्री है वह अश्रांत ॥


57
परकोटा पहरा दिया, इनसे क्या हो रक्ष ।
स्त्री हित पातिव्रत्य ही, होगा उत्तम रक्ष ॥


58
यदि पाती है नारियाँ, पति पूजा कर शान ।
तो उनका सुरधाम में, होता है बहुमान ॥


59
जिसकी पत्नी को नहीं, घर के यश का मान ।
नहिं निन्दक के सामने, गति शार्दूल समान ॥


60
गृह का जयमंगल कहें, गृहिणी की गुण-खान ।
उनका सद्भूषण कहें, पाना सत्सन्तान ॥

अध्याय 7. संतान-लाभ


61
बुद्धिमान सन्तान से, बढ़ कर विभव सुयोग्य ।
हम तो मानेंगे नहीं, हैं पाने के योग्य ॥


62
सात जन्म तक भी उसे, छू नहिं सकता ताप ।
यदि पावे संतान जो, शीलवान निष्पाप ॥


63
निज संतान-सुकर्म से, स्वयं धन्य हों जान ।
अपना अर्थ सुधी कहें, है अपनी संतान ॥


64
नन्हे निज संतान के, हाथ विलोड़ा भात ।
देवों के भी अमृत का, स्वाद करेगा मात ॥


65
निज शिशु अंग-स्पर्श से, तन को है सुख-लाभ ।
टूटी- फूटी बात से, श्रुति को है सुख-लाभ ॥


66
मुरली-नाद मधुर कहें, सुमधुर वीणा-गान ।
तुतलाना संतान का, जो न सुना निज कान ॥


67
पिता करे उपकार यह, जिससे निज संतान ।
पंडित-सभा-समाज में, पावे अग्रस्थान ॥


68
विद्यार्जन संतान का, अपने को दे तोष ।
उससे बढ़ सब जगत को, देगा वह संतोष ॥


69
पुत्र जनन पर जो हुआ, उससे बढ़ आनन्द ।
माँ को हो जब वह सुने, महापुरुष निज नन्द ॥


70
पुत्र पिता का यह करे, बदले में उपकार ।
`
धन्य धन्य इसके पिता’, यही कहे संसार ॥

अध्याय 8. प्रेम-भाव


71
अर्गल है क्या जो रखे, प्रेमी उर में प्यार ।
घोषण करती साफ़ ही, तुच्छ नयन-जल-धार ॥


72
प्रेम-शून्य जन स्वार्थरत, साधें सब निज काम ।
प्रेमी अन्यों के लिये, त्यागें हड्डी-चाम ॥


73
सिद्ध हुआ प्रिय जीव का, जो तन से संयोग ।
मिलन-यत्न-फल प्रेम से, कहते हैं बुध लोग ॥


74
मिलनसार के भाव को, जनन करेगा प्रेम ।
वह मैत्री को जन्म दे, जो है उत्तम क्षेम ॥


75
इहलौकिक सुख भोगते, निश्रेयस का योग ।
प्रेमपूर्ण गार्हस्थ्य का, फल मानें बुध लोग ॥


76
साथी केवल धर्म का, मानें  प्रेम, अजान ।
त्राण करे वह प्रेम ही, अधर्म से भी जान ॥


77
कीड़े अस्थिविहीन को, झुलसेगा ज्यों धर्म ।
प्राणी प्रेम विहीन को, भस्म करेगा धर्म ॥


78
नीरस तरु मरु भूमि पर, क्या हो किसलय-युक्त ।
गृही जीव वैसा समझ, प्रेम-रहित मन-युक्त ॥


79
प्रेम देह में यदि नहीं, बन भातर का अंग ।
क्या फल हो यदि पास हों, सब बाहर के अंग ॥


80
प्रेम-मार्ग पर जो चले, देह वही सप्राण ।
चर्म-लपेटी अस्थि है, प्रेम-हीन की मान ॥

अध्याय 9. अतिथि-सत्कार


81
योग-क्षेम निबाह कर, चला रहा घर-बार ।
आदर करके अतिथि का, करने को उपकार ॥


82
बाहर ठहरा अतिथि को, अन्दर बैठे आप ।
देवामृत का क्यों न हो, भोजन करना पाप ॥


83
दिन दिन आये अतिथि का, करता जो सत्कार ।
वह जीवन दारिद्रय का, बनता नहीं शिकार ॥


84
मुख प्रसन्न हो जो करे, योग्य अतिथि-सत्कार ।
उसके घर में इन्दिरा, करती सदा बहार ॥


85
खिला पिला कर अतिथि को, अन्नशेष जो खाय ।
ऐसों के भी खेत को, काहे बोया जाया ॥


86
प्राप्त अतिथि को पूज कर, और अतिथि को देख ।
जो रहता, वह स्वर्ग का, अतिथि बनेगा नेक ॥


87
अतिथि-यज्ञ के सुफल की, महिमा का नहिं मान ।
जितना अतिथि महान है, उतना ही वह मान ॥


88
'कठिन यत्न से जो जुड़ा, सब धन हुआ समाप्त'
यों रोवें, जिनको नहीं, अतिथि-यज्ञ-फल प्राप्त ॥


89
निर्धनता संपत्ति में, अतिथि-उपेक्षा जान ।
मूर्ख जनों में मूर्ख यह, पायी जाती बान ॥


90
सूंघा अनिच्चपुष्प को, तो वह मुरझा जाय ।
मुँह फुला कर ताकते, सूख अतिथि-मुख जाय ॥

अध्याय 10. मधुर-भाषण


91
जो मूँह से तत्वज्ञ के, हो कर निर्गत शब्द ।
प्रेम-सिक्त निष्कपट हैं, मधुर वचन वे शब्द ॥


92
मन प्रसन्न हो कर सही, करने से भी दान ।
मुख प्रसन्न भाषी मधुर, होना उत्तम मान ॥


93
ले कर मुख में सौम्यता, देखा भर प्रिय भाव ।
बिला हृद्‍गत मृदु वचन, यही धर्म का भाव ॥


94
दुख-वर्धक दारिद्र्य भी, छोड़ जायगा साथ ।
सुख-वर्धक प्रिय वचन यदि, बोले सब के साथ ॥


95
मृदुभाषी होना तथा, नम्र-भाव से युक्त ।
सच्चे भूषण मनुज के, अन्य नहीं है उक्त ॥


96
होगा ह्रास अधर्म का, सुधर्म का उत्थान ।
चुन चुन कर यदि शुभ वचन, कहे मधुरता-सान ॥


97
मधुर शब्द संस्कारयुत, पर को कर वरदान ।
वक्ता को नय-नीति दे, करता पुण्य प्रदान ॥


98
ओछापन से रहित जो, मीठा वचन प्रयोग ।
लोक तथा परलोक में, देता है सुख-भोग ॥


99
मधुर वचन का मधुर फल, जो भोगे खुद आप ।
कटुक वचन फिर क्यों कहे, जो देता संताप ॥


100
रहते सुमधुर वचन के, कटु कहने की बान ।
यों ही पक्का छोड़ फल, कच्चा ग्रहण समान ॥

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