अध्याय 31. अक्रोध
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301
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जहाँ चले वश क्रोध का, कर उसका अवरोध ।
अवश क्रोध का क्या किया, क्या न किया उपरोध ॥
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302
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वश न चले जब क्रोध का, तब है क्रोध खराब ।
अगर चले बश फिर वही, सबसे रहा खराब ॥
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303
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किसी व्यक्ति पर भी कभी, क्रोध न कर, जा भूल
।
क्योंकि अनर्थों का वही, क्रोध बनेगा मूल ॥
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304
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हास और उल्लास को, हनन करेगा क्रोध ।
उससे बढ़ कर कौन है, रिपु जो करे विरोध ॥
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305
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रक्षा हित अपनी स्वयं, बचो क्रोध से साफ़ ।
यदि न बचो तो क्रोध ही, तुम्हें करेगा साफ़ ॥
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306
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आश्रित जन का नाश जो, करे क्रोध की आग ।
इष्ट-बन्धु-जन-नाव को, जलायगी वह आग ॥
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307
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मान्य वस्तु सम क्रोध को, जो माने वह जाय ।
हाथ मार ज्यों भूमि पर, चोट से न बच जाय ॥
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308
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अग्निज्वाला जलन ज्यों, किया अनिष्ट यथेष्ट ।
फिर भी यदि संभव हुआ, क्रोध-दमन है
श्रेष्ठ ॥
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309
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जो मन में नहिं लायगा, कभी क्रोध का ख्याल ।
मनचाही सब वस्तुएँ, उसे प्राप्य तत्काल ॥
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310
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जो होते अति क्रोधवश, हैं वे मृतक समान ।
त्यागी हैं जो क्रोध के, त्यक्त-मृत्यु सम
मान ॥
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अध्याय 32. अहिंसा
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311
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तप-प्राप्र धन भी मिले, फिर भी
साधु-सुजान ।
हानि न करना अन्य की, मानें
लक्ष्य महान ॥
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312
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बुरा किया यदि क्रोध से, फिर भी
सधु-सुजान ।
ना करना प्रतिकार ही, मानें
लक्ष्य महान ॥
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313
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‘बुरा किया कारण बिना’, करके यही विचार ।
किया अगर प्रतिकार तो, होगा दुःख
अपार ॥
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314
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बुरा किया तो कर भला, बुरा भला
फिर भूल ।
पानी पानी हो रहा, बस उसको
यह शूल ॥
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315
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माने नहिं पर दुःख को, यदि निज
दुःख समान ।
तो होता क्या लाभ है, रखते तत्वज्ञान
॥
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316
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कोई समझे जब स्वयं, बुरा फलाना
कर्म ।
अन्यों पर उस कर्म को, नहीं करे, यह धर्म
॥
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317
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किसी व्यक्ति को उल्प भी, जो भी
समय अनिष्ट ।
मनपूर्वक करना नहीं, सबसे यही
वरिष्ठ ॥
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318
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जिससे अपना अहित हो, उसका है
दृढ़ ज्ञान ।
फिर अन्यों का अहित क्यों, करता है
नादान ॥
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319
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दिया सबेरे अन्य को, यदि तुमने
संताप ।
वही ताप फिर साँझ को, तुमपर
आवे आप ॥
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320
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जो दुःख देगा अन्य को, स्वयं
करे दुःख-भोग ।
दुःख-वर्जन की चाह से, दुःख न
दें बुध
लोग ॥
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अध्याय 33. वध-निशेध
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321
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धर्म-कृत्य का अर्थ है, प्राणी-वध का
त्याग ।
प्राणी-हनन दिलायगा, सर्व-पाप-फल-भाग ॥
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322
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खाना बाँट क्षुधार्त्त को, पालन कर
सब जीव ।
शास्त्रकार मत में यही, उत्तम
नीति अतीव ॥
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323
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प्राणी-हनन निषेध का, अद्वितीय
है स्थान ।
तदनन्तर ही श्रेष्ठ है, मिथ्या-वर्जन
मान ॥
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324
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लक्षण क्या उस पंथ का, जिसको
कहें सुपंथ ।
जीव-हनन वर्जन करे, जो पथ
वही सुपंथ ॥
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325
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जीवन से भयभीत हो, जो होते
हैं संत ।
वध-भय से वध त्याग दे, उनमें
वही महंत ॥
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326
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हाथ उठावेगा नहीं जीवन-भक्षक
काल ।
उस जीवन पर, जो रहें, वध-निषेध-व्रत-पाल ॥
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327
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प्राण-हानि अपनी हुई, तो भी
हो निज धर्म ।
अन्यों के प्रिय प्राण का, करें न
नाशक कर्म ॥
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328
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वध-मूलक धन प्राप्ति से, यद्यपि
हो अति प्रेय ।
संत महात्मा को वही, धन निकृष्ट
है ज्ञेय ॥
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329
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प्राणी-हत्या की जिन्हें, निकृष्टता
का भान ।
उनके मत में वधिक जन, हैं चण्डाल
मलान ॥
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330
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जीवन नीच दरिद्र हो, जिसका
रुग्ण शरीर ।
कहते बुथ, उसने किया, प्राण-वियुक्त
शरीर ॥
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अध्याय 34. अनित्यता
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331
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जो है अनित्य वस्तुएँ, नित्य वस्तु सम भाव ।
अल्पबुद्धिवश जो रहा, है यह
नीच स्वभाव ॥
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332
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रंग-भूमि में ज्यो जमे, दर्शक
गण की भीड़ ।
जुड़े प्रचुर संपत्ति त्यों, छँटे यथा
वह भीड़ ॥
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333
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धन की प्रकृति अनित्य है, यदि पावे
ऐश्वर्य ।
तो करना तत्काल ही, नित्य
धर्म सब वर्य ॥
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334
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काल-मान सम भासता, दिन है
आरी-दांत ।
सोचो तो वह आयु को, चीर रहा
दुर्दान्त ॥
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335
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जीभ बंद हो, हिचकियाँ लगने से ही पूर्व
।
चटपट करना चाहिये, जो है
कर्म अपूर्व ॥
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336
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कल जो था, बस, आज तो, प्राप्त
किया पंचत्व ।
पाया है संसार ने, ऐसा बड़ा
महत्व ॥
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337
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अगले क्षण क्या जी रहें, इसका है
नहिं बोध ।
चिंतन कोटिन, अनगिनत, करते रहें
अबोध ॥
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338
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अंडा फूट हुआ अलग, तो पंछी
उड़ जाय ।
वैसा देही-देह का, नाता जाना
जाय ॥
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339
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निद्रा सम ही जानिये, होता है
देहान्त ।
जगना सम है जनन फिर, निद्रा
के उपरान्त ॥
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340
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आत्मा का क्या है नहीं, कोई स्थायी
धाम ।
सो तो रहती देह में, भाड़े का
सा धाम ॥
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अध्याय 35. संन्यास
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341
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ज्यों ज्यों मिटती जायगी, जिस जिसमें
आसक्ति ।
त्यों त्यों तद्गत दुःख
से, मुक्त हो रहा व्यक्ति ॥
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342
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संन्यासी यदि बन गया, यहीं कई
आनन्द ।
संन्यासी बन समय पर, यदि होना
आनन्द ॥
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343
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दृढ़ता से करना दमन, पंचेन्द्रियगत
राग ।
उनके प्रेरक वस्तु सब, करो एकदम
त्याग ॥
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344
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सर्वसंग का त्याग ही, तप का
है गुण-मूल ।
बन्धन फिर तप भंग कर, बने अविद्या-मूल ॥
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345
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भव- बन्धन को काटते, बोझा ही
है देह ।
फिर औरों से तो कहो, क्यों
संबन्ध- सनेह ॥
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346
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अहंकार ममकार को, जिसने
किया समाप्त ।
देवों को अप्राप्य भी, लोक करेगा
प्राप्त ॥
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347
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अनासक्त जो न हुए, पर हैं
अति आसक्त ।
उनको लिपटें दुःख सब, और करें
नहिं त्यक्त ॥
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348
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पूर्ण त्याग से पा चुके, मोक्ष- धाम वे
धन्य ।
भव- बाधा के जाल में, फँसें
मोह- वश अन्य ॥
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349
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मिटते ही आसक्ति के, होगी भव
से मुक्ति ।
बनी रहेगी अन्यथा, अनित्यता
की भुक्ति ॥
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350
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वीतराग के राग में, हो तेरा
अनुराग ।
सुदृढ़ उसी में रागना, जिससे
पाय विराग ॥
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अध्याय 36. तत्वज्ञान
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351
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मिथ्या में जब सत्य का, होता भ्रम
से भान ।
देता है भव-दुःख को, भ्रममूलक
वह ज्ञान ।
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352
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मोह-मुक्त हो पा गये, निर्मल
तत्वज्ञान ।
भव-तम को वह दूर कर, दे आनन्द
महान ॥
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353
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जिसने संशय-मुक्त हो, पाया ज्ञान-प्रदीप
।
उसको पृथ्वी से अधिक, रहता मोक्ष
समीप ॥
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354
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वशीभूत मन हो गया, हुई धारणा
सिद्ध ।
फिर भी तत्वज्ञान बिन, फल होगा
नहिं सिद्ध ॥
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355
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किसी तरह भी क्यों नहीं, भासे अमुक
पदार्थ ।
तथ्य-बोध उस वस्तु का, जानो ज्ञान
पथार्थ ॥
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356
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जिसने पाया श्रवण से, यहीं तत्व
का ज्ञान ।
मोक्ष-मार्ग में अग्रसर, होता वह
धीमान ॥
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357
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उपदेशों को मनन कर, सत्य-बोध हो
जाय ।
पुनर्जन्म की तो उन्हें, चिन्ता
नहिं रह जाय ॥
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358
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जन्म-मूल अज्ञान है, उसके निवारणार्थ
।
मोक्ष-मूल परमार्थ का, दर्शन
ज्ञान पथार्थ ॥
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359
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जगदाश्रय को समझ यदि, बनो स्वयं
निर्लिप्त ।
नाशक भावी दुःख सब, करें कभी
नहिं लिप्त ॥
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360
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काम क्रोध औ’ मोह का न हो नाम का योग ।
तीनों के मिटते, मिटे, कर्म-फलों का
रोग ॥
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अध्याय 37. तृष्णा का उ़न्मूलन
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361
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सर्व जीव को सर्वदा, तृष्णा-बीज अचूक
।
पैदा करता है वही, जन्म-मरण की
हूक ॥
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362
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जन्म-नाश की चाह हो, यदि होनी
है चाह ।
चाह-नाश की चाह से, पूरी हो
वह चाह ॥
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363
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तृष्णा-त्याग सदृश नहीं, यहाँ श्रेष्ठ
धन-धाम ।
स्वर्ग-धाम में भी नहीं, उसके सम
धन-धाम ॥
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364
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चाह गई तो है वही, पवित्रता
या मुक्ति ।
करो सत्य की चाह तो, होगी चाह-विमुक्ति
॥
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365
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कहलाते वे मुक्त हैं, जो हैं
तृष्णा-मुक्त ।
सब प्रकार से, अन्य सब, उतने नहीं
विमुक्त ॥
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366
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तृष्णा से डरते बचे, है यह
धर्म महान ।
न तो फँसाये जाल में, पा कर
असावधान ॥
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367
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तृष्णा को यदि कर दिया, पूरा नष्ट
समूल ।
धर्म-कर्म सब आ मिले, इच्छा
के अनुकूल ॥
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368
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तृष्णा-त्यागी को कभी, होगा ही
नहिं दुःख ।
तृष्णा के वश यदि पड़े, होगा दुःख पर दुःख ॥
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369
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तृष्णा का यदि नाश हो, जो है
दुःख कराल ।
इस जीवन में भी मनुज, पावे सुख
चिरकाल ॥
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370
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तृष्णा को त्यागो अगर, जिसकी
कभी न तुष्टि ।
वही दशा दे मुक्ति जो, रही सदा
सन्तुष्टि ॥
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अध्याय 38. प्रारब्ध
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371
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अर्थ-वृद्धि के भाग्य से, हो आलस्य-अभाव ।
अर्थ-नाश के भाग्य से, हो आलस्य
स्वभाव ॥
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372
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अर्थ-क्षयकर भाग्य तो, करे बुद्धि
को मन्द ।
अर्थ-वृद्धिकर भाग्य तो, करे विशाल
अमन्द ॥
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373
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गूढ़ शास्त्र सीखें बहुत, फिर भी
अपना भाग्य ।
मन्द बुद्धि का हो अगर, हावी मांद्य
अभाग्य ॥
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374
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जगत-प्रकृति है नियतिवश, दो प्रकार
से भिन्न ।
श्रीयुत होना एक है, ज्ञान-प्राप्ति
है भिन्न ॥
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375
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धन अर्जन करत समय, विधिवश
यह हो जाय ।
बुरा बनेगा सब भला, बुरा भला
बन जाय ॥
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376
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कठिन यत्न भी ना रखे, जो न रहा
निज भाग ।
निकाले नहीं निकलता, जो है
अपने भाग ॥
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377
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भाग्य-विद्यायक के किये, बिना भाग्य
का योग ।
कोटि चयन के बाद भी, दुर्लभ
है सुख-भोग ॥
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378
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दुःख बदे जो हैं उन्हें, यदि न
दिलावें दैव ।
सुख से वंचित दीन सब, बनें विरक्त
तदैव ॥
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379
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रमता है सुख-भोग में, फल दे
जब सत्कर्म ।
गड़बड़ करना किसलिये, फल दे
जब दुष्कर्म ॥
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380
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बढ़ कर भी प्रारब्ध से, क्या है
शक्ति महान ।
जयी वही उसपर अगर, चाल चलावे
आन ॥
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