Tuesday 21 June 2005

अध्याय 39 से 50




अध्याय 39. महीश महिमा


381
सैन्य राष्ट्र धन मित्रगण, दुर्ग अमात्य षड़ंग ।
राजाओं में सिंह है, जिसके हों ये संग ॥


382
दानशीलता निडरपन, बुद्धि तथा उत्साह ।
इन चारों से पूर्ण हो, स्वभाव से नरनाह ॥


383
धैर्य तथा अविलंबना, विद्या भी हो साथ ।
ये तीनों भू पाल को, कभी न छोड़ें साथ ॥


384
राजधर्म से च्युत न हो, दूर अधर्म निकाल ।
वीरधर्म से च्युत न हो, मानी वही नृपाल ॥


385
कर उपाय धन-वृद्धि का, अर्जन भी कर खूब ।
रक्षण, फिर विनियोग में, सक्षम जो वह भूप ॥


386
दर्शन जिसके सुलभ हैं, और न वचन कठोर ।
ऐसे नृप के राज्य की, शंसा हो बरजोर ॥


387
जो प्रिय वचयुत दान कर, ढिता रक्षण-भार ।
बनता उसके यश सहित, मनचाहा संसार ॥


388
नीति बरत कर भूप जो, करता है जन-रक्ष ।
प्रजा मानती है उसे, ईश तुल्य प्रत्यक्ष ॥


389
जिस नृप में बच कर्ण कटु, शने का संस्कार ।
उसकी छत्रच्छाँह में, टिकता है संसार ॥


       390
प्रजा-सुरक्षण प्रिय वचन, तथा सुशासन दान ।
इन चारों से पूर्ण नृप, महीप-दीप समान ॥

अध्याय 40. शिक्षा


391
सीख सीखने योग्य सब, भ्रम संशय बिन सीख ।
कर उसके अनुसार फिर, योग्य आचरण ठीक ॥


392
अक्षर कहते है जिसे, जिसको कहते आँक ।
दोनों जीवित मनुज के, कहलाते हैं आँख ॥


393
कहलाते हैं नेत्रयुत, जो हैं विद्यावान ।
मुख पर रखते घाव दो, जो है अपढ़ अजान ॥


394
हर्षप्रद होता मिलन, चिन्ताजनक वियोग ।
विद्वज्जन का धर्म है, ऐसा गुण-संयोग ॥


395
धनी समक्ष दरिद्र सम, झुक झुक हो कर दीन ।
शिक्षित बनना श्रेष्ठ है, निकृष्ट विद्याहीन ॥


396
जितना खोदो पुलिन में, उतना नीर-निकास ।
जितना शिक्षित नर बने, उतना बुद्धि-विकास ॥


397
अपना है विद्वान का, कोई पुर या राज ।
फिर क्यों रहता मृत्यु तक, कोई अपढ़ अकाज ॥


398
जो विद्या इक जन्म में, नर से पायी जाय ।
सात जन्म तक भी उसे, करती वही सहाय ॥


399
हर्ष हेतु अपने लिये, वैसे जग हित जान ।
उस विद्या में और रत, होते हैं विद्वान ॥


       400
शिक्षा-धन है मनुज हित, अक्षय और यथेष्ट ।
अन्य सभी संपत्तियाँ, होती हैं नहिं श्रेष्ठ ॥

अध्याय 41. अशिक्षा


401
सभा-मध्य यों बोलना, बिना पढ़े सदग्रन्थ ।
है पासे का खेल ज्यों, बिन चौसर का बंध ॥


402
यों है अपढ़ मनुष्य की, भाषण-पटुता-चाह ।
ज्यों दोनों कुचरहित की, स्त्रीत्व-भोग की चाह ॥


403
अपढ़ लोग भी मानिये, उत्तम गुण का भौन ।
विद्वानों के सामने, यदि साधेंगे मौन ॥


404
बहुत श्रेष्ठ ही क्यों न हो, कभी मूर्ख का ज्ञान ।
विद्वज्जन का तो उसे, नहीं मिलेगा मान ॥


405
माने यदि कोई अपढ़, बुद्धिमान ही आप ।
मिटे भाव वह जब करें, बुध से वार्त्तालाप ॥


406
जीवित मात्र रहा अपढ़, और न कुछ वह, जान ।
उत्पादक जो ना रही, ऊसर भूमि समान ॥


407
सूक्ष्म बुद्धि जिसकी नहीं, प्रतिभा नहीं अनूप ।
मिट्टी की सुठि मूर्ति सम, उसका खिलता रूप ॥


408
शिक्षित के दारिद्रय से, करती अधिक विपत्ति ।
मूर्ख जनों के पास जो, जमी हुई संपत्ति ॥


       409
उच्छ जाति का क्यों न हो, तो भी अपढ़ अजान ।
नीच किन्तु शिक्षित सदृश, पाता नहिं सम्मान ॥


       410
नर से पशु की जो रहा, तुलना में अति भेद ।
अध्येत सद्ग्रन्थ के, तथा अपढ़ में भेद ॥

अध्याय 42. श्रवण


411
धन धन में तो श्रवण-धन, रहता अधिक प्रधान
सभी धनों में धन वही, पाता शीर्षस्थान


412
कानों को जब ना मिले, श्रवण रूप रस पान
दिया जाय तब पेट को, कुछ भोजन का दान


413
जिनके कानों को मिला, श्रवण रूप में भोग
हवि के भोजी देव सम, भुवि में हैं वे लोग


414
यद्यपि शिक्षित है नहीं, करे श्रवण सविवेक
क्लांत दशा में वह उसे, देगा सहाय टेक


415
फिसलन पर चलते हुए, ज्यों लाठी की टेक
त्यों हैं, चरित्रवान के, मूँह के वच सविवेक


416
श्रवण करो सद्विषय का, जितना ही हो अल्प
अल्प श्रवण भी तो तुम्हें, देगा मान अनल्प


417
जो जन अनुसंधान कर, रहें बहु-श्रुत साथ
यद्यपि भूलें मोहवश, करें जड़ की बात


418
श्रवण श्रवण करके भला, छिद गये जो कान
श्रवण-शक्ति रखते हुए, बहरे कान समान


        419
जिन लोगों को है नहीं, सूक्ष्म श्रवण का ज्ञान
नम्र वचन भी बोलना, उनको दुष्कर जान


        420
जो जाने बिन श्रवण रस, रखता जिह्वा-स्वाद
चाहे जीये या मरे, उससे सुख विषाद

अध्याय 43. बुद्धिमत्ता


421
रक्षा हित कै नाश से, बुद्धिरूप औजार ।
है भी रिपुओं के लिये, दुर्गम दुर्ग आपार ॥


422
मनमाना जाने न दे, पाप-मार्ग से थाम ।
मन को लाना सुपथ पर, रहा बुद्धि का काम ॥


423
चाहे जिससे भी सुनें, कोई भी हो बात ।
तत्व-बोध उस बात का, बुद्धि युक्तता ज्ञात ॥


424
कह प्रभावकर ढंग से, सुगम बना स्वविचार ।
सुधी समझता अन्य के, सूक्ष्म कथन का सार ॥


425
मैत्री उत्तम जगत की, करते हैं धीमान ।
खिल कर सकुचाती नहीं, सुधी-मित्रता बान ॥


426
जैसा लोकाचार है, उसके ही उपयुक्त ।
जो करना है आचारण, वही सुधी के युक्त ॥


427
बुद्धिमान वे हैं जिन्हें, है भविष्य का ज्ञान ।
बुद्धिहीन वे हैं जिन्हें, प्राप्त नहीं वह ज्ञान ॥


428
निर्भयता भेतव्य से, है जड़ता का नाम ।
भय रखना भेतव्य से, रहा सुधी का काम ॥


        429
जो भावी को जान कर, रक्षा करता आप ।
दुःख न दे उस प्राज्ञ को, भयकारी संताप ॥


        430
सब धन से संपन्न हैं, जो होते मतिमान ।
चाहे सब कुछ क्यों न हो, मूर्ख दरिद्र समान ॥

अध्याय 44. दोष-निवारण


431
काम क्रोध मद दोष से, जो होते हैं मुक्त ।
उनकी जो बढ़ती हुई, होती महिमा-युक्त ॥


432
हाथ खींचना दान से, रखना मिथ्या मान ।
नृप का अति दाक्षिण्य भी, मानो दोष अमान ॥


433
निन्दा का डर है जोन्हें, तिलभर निज अपराध ।
होता तो बस ताड़ सम, मानें उसे अगाध ॥


434
बचकर रहना दोष से, लक्ष्य मान अत्यंत ।
परम शत्रु है दोष ही, जो कर देगा अंत ॥


435
दोष उपस्थिति पूर्व ही, किया न जीवन रक्ष ।
तो वह मिटता है यथा, भूसा अग्नि समक्ष ॥


436
दोष-मुक्त कर आपको, बाद पराया दाष ।
जो देखे उस भूप में, हो सकता क्या दोष ॥


437
जो धन में आसक्त है, बिना किये कर्तव्य ।
जमता उसके पास जो, व्यर्थ जाय वह द्रव्य ॥


438
धनासक्ति जो लोभ है, वह है दोष विशेश |
अन्तर्गत उनके नहीं, जितने दोष अशेष ॥


       439
श्रेष्ठ समझ कर आपको, कभी न कर अभिमान ।
चाह न हो उस कर्म की, जो न करे कल्याण ॥


       440
भोगेगा यदि गुप्त रख, मनचाहा सब काम ।
रिपुओं का षड्यंत्र तब, हो जावे बेकाम ॥

अध्याय 45. सत्संग-लाभ


441
ज्ञानवृद्ध जो बन गये, धर्म-सूक्ष्म को जान ।
मैत्री उनकी, ढ़ंग से, पा लो महत्व जान ॥


442
आगत दुःख निवार कर, भावी दुःख से त्राण ।
करते जो, अपना उन्हें, करके आदर-मान ॥


443
दुर्लभ सब में है यही, दुर्लभ भाग्य महान ।
स्वजन बनाना मान से, जो हैं पुरुष महान ॥


444
करना ऐसा आचरण, जिससे पुरुष महान ।
बन जावें आत्मीय जन, उत्तम बल यह जान ॥


445
आँख बना कर सचिव को, ढोता शासन-भार ।
सो नृप चुन ले सचिव को, करके सोच विचार ॥


446
योग्य जनों का बन्धु बन, करता जो व्यवहार ।
उसका कर सकते नहीं, शत्रु लोग अपकार ॥


447
दोष देख कर डाँटने जब हैं मित्र सुयोग्य ।
तब नृप का करने अहित, कौन शत्रु है योग्य ॥


448
डांट-डपटते मित्र की, रक्षा बिन नरकंत ।
शत्रु बिना भी हानिकर, पा जाता है अंत ॥


       449
बिना मूलधन वणिक जन, पावेंगे नहिं लाभ ।
सहचर-आश्रय रहित नृप, करें न स्थिरता लाभ ॥


       450
बहुत जनों की शत्रुता, करने में जो हानि ।
उससे बढ़ सत्संग को, तजने में है हानि ॥

अध्याय 46. कुसंग-वर्जन


451
ओछों से डरना रहा, उत्तम जन की बान ।
गले लगाना बन्धु सम, है ओछों की बान ॥


452
मिट्टी गुणानुसार ज्यों, बदले वारि-स्वभाव ।
संगति से त्यों मनुज का, बदले बुद्धि-स्वभाव ॥


453
मनोजन्य है मनुज का, प्राकृत इन्द्रियज्ञान ।
ऐसा यह  यों नाम तो, संग-जन्य है जान ॥


454
मनोजन्य सा दीखता, भले बुरे का ज्ञान ।
संग-जन्य रहता मगर, नर का ऐसा ज्ञान ॥


455
मन की होना शुद्धता, तथा कर्म की शुद्धि ।
दोनों का अवलंब है, संगति की परिशुद्धि ॥


456
पातें सत्सन्तान हैं, जिनका है मन शुद्ध ।
विफल कर्म होता नहीं, जिनका रंग विशुद्ध ॥


457
मन की शुद्धि मनुष्य को, देती है ऐश्वर्य ।
सत्संगति तो फिर उसे, देती सब यश वर्य ॥


458
शुद्ध चित्तवाले स्वतः, रहते साधु महान ।
सत्संगति फिर भी उन्हें, करती शक्ति प्रदान ॥


       459
चित्त-शुद्धि परलोक का, देती है आनन्द ।
वही शुद्धि सत्संग से होती और बुलन्द ॥


       460
साथी कोई है नहीं, साध- संग से उच्च ।
बढ़ कर कुसंग से नहीं, शत्रु हानिकर तुच्छ ॥

अध्याय 47. सुविचारित कार्य-कुशलता


461
कर विचार व्यय-आय का, करना लाभ-विचार ।
फिर हो प्रवृत्त कार्य में, करके सोच-विचार ॥


462
आप्तों से कर मंत्रणा, करता स्वयं विचार ।
उस कर्मी को है नहीं, कुछ भी असाध्य कार ॥


463
कितना भावी लाभ हो, इसपर दे कर ध्यान ।
पूँजी-नाशक कर्म तो, करते नहिं मतिमान ॥


464
अपयश के आरोप से, जो होते हैं भीत ।
शुरू न करते कर्म वे, स्पष्ट न जिसकी रीत ॥


465
टूट पडे जो शत्रु पर, बिन सोचे सब मर्म ।
शत्रु-गुल्म हित तो बने, क्यारी ज्यों वह कर्म ॥


466
करता अनुचित कर्म तो, होता है नर नष्ट ।
उचित कर्म को छोड़ता, तो भी होता नष्ट ॥


467
होना प्रवृत्त कर्म में, करके सोच-विचार ।
हो कर प्रवृत्त सोच लें’, है यह गलत विचार ॥


468
जो भी साध्य उपाय बिन, किया जायगा यत्न ।
कई समर्थक क्यों न हों, खाली हो वह यत्न ॥


       469
बिन जाने गुण शत्रु का, यदि उसके अनुकूल ।
किया गया सदुपाय तो, उससे भी हो भूल ॥


       470
अनुपयुक्त जो है तुम्हें, जग न करे स्वीकार ।
करना अनिंध कार्य ही, करके सोच-विचार ॥

अध्याय 48. शक्ति का बोध


471
निज बल रिपु-बल कार्य-बल, साथी-बल भी जान ।
सोच-समझ कर चाहिये, करना कार्य निदान ॥


472
साध्य कार्य को समझ कर, समझ कार्य हित ज्ञेय ।
जम कर धावा जो करे, उसको कुछ न अजेय ॥


473
बोध नहीं निज शक्ति का, वश हो कर उत्साह ।
कार्य शुरू कर, बीच में, मिटे कई नरनाह ॥


474
शान्ति-युक्त बरबात बिन, निज बल मान न जान ।
अहम्मन्य भी जो रहे, शीघ्र मिटेगा जान ॥


475
मोर-पंख से ही सही, छकड़ा लादा जाय ।
यदि लादो वह अत्यधिक, अक्ष भग्न हो जाय ॥


476
चढ़ा उच्चतम डाल पर, फिर भी जोश अनंत ।
करके यदि आगे बढ़े, होगा जीवन-अंत ॥


477
निज धन की मात्रा समझ, करो रीती से दान ।
जीने को है क्षेम से, उचित मार्ग वह जान ॥


478
तंग रहा तो कुछ नहीं, धन आने का मार्ग ।
यदि विस्तृत भी ना रहा, धन जाने का मार्ग ॥


       479
निज धन की सीमा समझ, यदि न किया निर्वाह ।
जीवन समृद्ध भासता, हो जायगा तबाह ॥


       480
लोकोपकारिता हुई, धन-सीमा नहिं जान ।
तो सीमा संपत्ति की, शीघ्र मिटेगी जान ॥

अध्याय 49. समय का बोध


481
दिन में उल्लू पर विजय, पा लेता है काक ।
नृप जिगीषु को चाहिये, उचित समय की ताक ॥


482
लगना जो है कार्य में, अवसर को पहचान ।
श्री को जाने से जकड़, रखती रस्सी जान ॥


483
है क्या कार्य असाध्य भी, यदि अवसर को जान ।
समिचित साधन के सहित, करता कार्य सुजान ॥


484
चाहे तो भूलोक भी, आ जायेगा हाथ ।
समय समझ कर यदि करे, युक्त स्थान के साथ ॥


485
जिनको निश्चित रूप से, विश्व-विजय की चाह ।
उचित समय की ताक में, वें हैं बेपरवाह ॥


486
रहता है यों सिकुड़ नृप, रखते हुए बिसात ।
ज्यों मेढ़ा पीछे हटे, करने को आघात ॥


487
रूठते न झट प्रगट कर, रिपु-अति से नरनाह ।
पर कुढ़ते हैं वे सुधी, देख समय की राह ॥


488
रिपु को असमय देख कर, सिर पर ढो संभाल ।
सिर के बल गिर वह मिटे, आते अन्तिम काल ॥


        489
दुर्लभ अवसर यदि मिले, उसको खोने पूर्व ।
करना कार्य उसी समय, जो दुष्कर था पूर्व ॥


       490
बक सम रहना सिकुड़ कर, जब करना नहिं वार ।
चोंच-मार उसकी यथा, पा कर समय, प्रहार ॥

अध्याय 50. स्थान का बोध


491
कोई काम न कर शुरू, तथा न कर उपहास ।
जब तक रिपु को घेरने, स्थल की है नहिं आस ॥


492
शत्रु-भाव से पुष्ट औ’, जो हों अति बलवान ।
उनको भी गढ़-रक्ष तो, बहु फल करे प्रदान ॥


493
निर्बल भी बन कर सबल, पावें जय-सम्मान ।
यदि रिपु पर धावा करें, ख़ोज सुरक्षित स्थान ॥


494
रिपु निज विजय विचार से, धो बैठेंगे हाथ ।
स्थान समझ यदि कार्य में, जुड़ते दृढ नरनाथ ॥


495
गहरे जल में मगर की, अन्यों पर हो जीत ।
जल से बाहर अन्य सब, पावें जय विपरीत ॥


496
भारी रथ दृढ चक्रयुत, चले न सागर पार ।
सागरगामी नाव भी, चले न भू पर तार ॥


497
निर्भय के अतिरिक्त तो, चाहिये न सहकार ।
उचित जगह पर यदि करें, खूब सोच कर कार ॥


498
यदि पाता लघु-सैन्य-युत, आश्रय स्थल अनुकूल ।
उसपर चढ़ बहु-सैन्य युत, होगा नष्ट समूल ॥


       499
सदृढ़ दुर्ग साधन बड़ा, है नहिं रिपु के पास ।
फिर भी उसके क्षेत्र में, भिड़ना व्यर्थ प्रयास ॥


       500
जिस निर्भय गजराज के, दन्तलग्न बरछैत ।
गीदड़ भी मारे उसे, जब दलदल में कैंद ॥

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