अध्याय 39. महीश महिमा
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381
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सैन्य राष्ट्र धन मित्रगण, दुर्ग
अमात्य षड़ंग ।
राजाओं में सिंह है, जिसके
हों ये संग ॥
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382
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दानशीलता निडरपन, बुद्धि
तथा उत्साह ।
इन चारों से पूर्ण हो, स्वभाव
से नरनाह ॥
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383
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धैर्य तथा अविलंबना, विद्या
भी हो साथ ।
ये तीनों भू पाल को, कभी न
छोड़ें साथ ॥
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384
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राजधर्म से च्युत न हो, दूर अधर्म
निकाल ।
वीरधर्म से च्युत न हो, मानी वही
नृपाल ॥
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385
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कर उपाय धन-वृद्धि का, अर्जन
भी कर खूब ।
रक्षण, फिर विनियोग में, सक्षम
जो वह भूप ॥
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386
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दर्शन जिसके सुलभ हैं, और न वचन
कठोर ।
ऐसे नृप के राज्य की, शंसा हो
बरजोर ॥
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387
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जो प्रिय वचयुत दान कर, ढिता रक्षण-भार ।
बनता उसके यश सहित, मनचाहा
संसार ॥
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388
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नीति बरत कर भूप जो, करता है
जन-रक्ष ।
प्रजा मानती है उसे, ईश तुल्य
प्रत्यक्ष ॥
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389
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जिस नृप में बच कर्ण कटु, शने का
संस्कार ।
उसकी छत्रच्छाँह में, टिकता
है संसार ॥
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390
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प्रजा-सुरक्षण प्रिय वचन, तथा सुशासन
दान ।
इन चारों से पूर्ण नृप, महीप-दीप समान
॥
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अध्याय 40. शिक्षा
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391
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सीख सीखने योग्य सब, भ्रम संशय
बिन सीख ।
कर उसके अनुसार फिर, योग्य
आचरण ठीक ॥
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392
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अक्षर कहते है जिसे, जिसको
कहते आँक ।
दोनों जीवित मनुज के, कहलाते
हैं आँख ॥
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393
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कहलाते हैं नेत्रयुत, जो हैं
विद्यावान ।
मुख पर रखते घाव दो, जो है
अपढ़ अजान ॥
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394
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हर्षप्रद होता मिलन, चिन्ताजनक
वियोग ।
विद्वज्जन का धर्म है, ऐसा गुण-संयोग
॥
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395
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धनी समक्ष दरिद्र सम, झुक झुक
हो कर दीन ।
शिक्षित बनना श्रेष्ठ है, निकृष्ट
विद्याहीन ॥
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396
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जितना खोदो पुलिन में, उतना नीर-निकास
।
जितना शिक्षित नर बने, उतना बुद्धि-विकास
॥
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397
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अपना है विद्वान का, कोई पुर
या राज ।
फिर क्यों रहता मृत्यु तक, कोई अपढ़
अकाज ॥
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398
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जो विद्या इक जन्म में, नर से
पायी जाय ।
सात जन्म तक भी उसे, करती वही
सहाय ॥
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399
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हर्ष हेतु अपने लिये, वैसे जग
हित जान ।
उस विद्या में और रत, होते हैं
विद्वान ॥
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400
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शिक्षा-धन है मनुज हित, अक्षय
और यथेष्ट ।
अन्य सभी संपत्तियाँ, होती हैं
नहिं श्रेष्ठ ॥
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अध्याय 41. अशिक्षा
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401
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सभा-मध्य यों बोलना, बिना पढ़े
सदग्रन्थ ।
है पासे का खेल ज्यों, बिन चौसर
का बंध ॥
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402
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यों है अपढ़ मनुष्य की, भाषण-पटुता-चाह ।
ज्यों दोनों कुचरहित की, स्त्रीत्व-भोग की
चाह ॥
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403
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अपढ़ लोग भी मानिये, उत्तम
गुण का भौन ।
विद्वानों के सामने, यदि साधेंगे
मौन ॥
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404
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बहुत श्रेष्ठ ही क्यों न हो, कभी मूर्ख
का ज्ञान ।
विद्वज्जन का तो उसे, नहीं मिलेगा
मान ॥
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405
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माने यदि कोई अपढ़, बुद्धिमान
ही आप ।
मिटे भाव वह जब करें, बुध से
वार्त्तालाप ॥
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406
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जीवित मात्र रहा अपढ़, और न कुछ
वह, जान ।
उत्पादक जो ना रही, ऊसर भूमि
समान ॥
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407
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सूक्ष्म बुद्धि जिसकी नहीं, प्रतिभा
नहीं अनूप ।
मिट्टी की सुठि मूर्ति सम, उसका खिलता
रूप ॥
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408
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शिक्षित के दारिद्रय से, करती अधिक
विपत्ति ।
मूर्ख जनों के पास जो, जमी हुई
संपत्ति ॥
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409
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उच्छ जाति का क्यों न हो, तो भी
अपढ़ अजान ।
नीच किन्तु शिक्षित सदृश, पाता नहिं
सम्मान ॥
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410
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नर से पशु की जो रहा, तुलना
में अति भेद ।
अध्येत सद्ग्रन्थ के, तथा अपढ़
में भेद ॥
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अध्याय 42. श्रवण
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411
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धन धन में तो श्रवण-धन, रहता अधिक प्रधान ।
सभी धनों में धन वही, पाता शीर्षस्थान ॥
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412
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कानों को जब ना मिले, श्रवण रूप रस पान ।
दिया जाय तब पेट को, कुछ भोजन का दान ॥
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413
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जिनके कानों को मिला, श्रवण रूप में भोग ।
हवि के भोजी देव सम, भुवि में हैं वे लोग ॥
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414
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यद्यपि शिक्षित है नहीं, करे श्रवण सविवेक ।
क्लांत दशा में वह उसे, देगा सहाय टेक ॥
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415
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फिसलन पर चलते हुए, ज्यों लाठी की टेक ।
त्यों हैं, चरित्रवान के, मूँह के वच सविवेक ॥
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416
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श्रवण करो सद्विषय का, जितना ही हो अल्प ।
अल्प श्रवण भी तो तुम्हें, देगा मान अनल्प ॥
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417
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जो जन अनुसंधान कर, रहें बहु-श्रुत साथ ।
यद्यपि भूलें मोहवश, करें न जड़ की बात ॥
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418
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श्रवण श्रवण करके भला, छिद न गये जो कान ।
श्रवण-शक्ति रखते हुए, बहरे कान समान ॥
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419
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जिन लोगों को है नहीं, सूक्ष्म श्रवण का ज्ञान ।
नम्र वचन भी बोलना, उनको दुष्कर जान ॥
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420
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जो जाने बिन श्रवण रस, रखता जिह्वा-स्वाद ।
चाहे जीये या मरे, उससे सुख न विषाद ॥
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अध्याय 43. बुद्धिमत्ता
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421
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रक्षा हित कै नाश से, बुद्धिरूप
औजार ।
है भी रिपुओं के लिये, दुर्गम
दुर्ग आपार ॥
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422
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मनमाना जाने न दे, पाप-मार्ग
से थाम ।
मन को लाना सुपथ पर, रहा बुद्धि
का काम ॥
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423
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चाहे जिससे भी सुनें, कोई भी
हो बात ।
तत्व-बोध उस बात का, बुद्धि
युक्तता ज्ञात ॥
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424
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कह प्रभावकर ढंग से, सुगम बना
स्वविचार ।
सुधी समझता अन्य के, सूक्ष्म
कथन का सार ॥
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425
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मैत्री उत्तम जगत की, करते हैं
धीमान ।
खिल कर सकुचाती नहीं, सुधी-मित्रता
बान ॥
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426
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जैसा लोकाचार है, उसके ही
उपयुक्त ।
जो करना है आचारण, वही सुधी
के युक्त ॥
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427
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बुद्धिमान वे हैं जिन्हें, है भविष्य
का ज्ञान ।
बुद्धिहीन वे हैं जिन्हें, प्राप्त
नहीं वह ज्ञान ॥
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428
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निर्भयता भेतव्य से, है जड़ता
का नाम ।
भय रखना भेतव्य से, रहा सुधी
का काम ॥
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429
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जो भावी को जान कर, रक्षा
करता आप ।
दुःख न दे उस प्राज्ञ को, भयकारी
संताप ॥
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430
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सब धन से संपन्न हैं, जो होते
मतिमान ।
चाहे सब कुछ क्यों न हो, मूर्ख
दरिद्र समान ॥
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अध्याय 44. दोष-निवारण
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431
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काम क्रोध मद दोष से, जो होते
हैं मुक्त ।
उनकी जो बढ़ती हुई, होती महिमा-युक्त
॥
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432
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हाथ खींचना दान से, रखना मिथ्या
मान ।
नृप का अति दाक्षिण्य भी, मानो दोष
अमान ॥
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433
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निन्दा का डर है जोन्हें, तिलभर
निज अपराध ।
होता तो बस ताड़ सम, मानें
उसे अगाध ॥
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434
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बचकर रहना दोष से, लक्ष्य
मान अत्यंत ।
परम शत्रु है दोष ही, जो कर
देगा अंत ॥
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435
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दोष उपस्थिति पूर्व ही, किया न
जीवन रक्ष ।
तो वह मिटता है यथा, भूसा अग्नि
समक्ष ॥
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436
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दोष-मुक्त कर आपको, बाद पराया
दाष ।
जो देखे उस भूप में, हो सकता
क्या दोष ॥
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437
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जो धन में आसक्त है, बिना किये
कर्तव्य ।
जमता उसके पास जो, व्यर्थ
जाय वह द्रव्य ॥
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438
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धनासक्ति जो लोभ है, वह है
दोष विशेश |
अन्तर्गत उनके नहीं, जितने
दोष अशेष ॥
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439
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श्रेष्ठ समझ कर आपको, कभी न
कर अभिमान ।
चाह न हो उस कर्म की, जो न करे
कल्याण ॥
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440
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भोगेगा यदि गुप्त रख, मनचाहा
सब काम ।
रिपुओं का षड्यंत्र
तब, हो जावे बेकाम ॥
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अध्याय 45. सत्संग-लाभ
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441
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ज्ञानवृद्ध जो बन गये, धर्म-सूक्ष्म
को जान ।
मैत्री उनकी, ढ़ंग से, पा लो
महत्व जान ॥
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442
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आगत दुःख निवार कर, भावी दुःख
से त्राण ।
करते जो, अपना उन्हें, करके आदर-मान ॥
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443
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दुर्लभ सब में है यही, दुर्लभ
भाग्य महान ।
स्वजन बनाना मान से, जो हैं
पुरुष महान ॥
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444
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करना ऐसा आचरण, जिससे
पुरुष महान ।
बन जावें आत्मीय जन, उत्तम
बल यह जान ॥
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445
|
आँख बना कर सचिव को, ढोता शासन-भार ।
सो नृप चुन ले सचिव को, करके सोच
विचार ॥
|
446
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योग्य जनों का बन्धु बन, करता जो
व्यवहार ।
उसका कर सकते नहीं, शत्रु
लोग अपकार ॥
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447
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दोष देख कर डाँटने जब हैं मित्र सुयोग्य ।
तब नृप का करने अहित, कौन शत्रु
है योग्य ॥
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448
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डांट-डपटते मित्र की, रक्षा
बिन नरकंत ।
शत्रु बिना भी हानिकर, पा जाता
है अंत ॥
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449
|
बिना मूलधन वणिक जन, पावेंगे
नहिं लाभ ।
सहचर-आश्रय रहित नृप, करें न
स्थिरता लाभ ॥
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450
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बहुत जनों की शत्रुता, करने में
जो हानि ।
उससे बढ़ सत्संग को, तजने में
है हानि ॥
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अध्याय 46. कुसंग-वर्जन
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451
|
ओछों से डरना रहा, उत्तम
जन की बान ।
गले लगाना बन्धु सम, है ओछों
की बान ॥
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452
|
मिट्टी गुणानुसार ज्यों, बदले वारि-स्वभाव
।
संगति से त्यों मनुज का, बदले बुद्धि-स्वभाव
॥
|
453
|
मनोजन्य है मनुज का, प्राकृत
इन्द्रियज्ञान ।
ऐसा यह यों नाम तो, संग-जन्य है
जान ॥
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454
|
मनोजन्य सा दीखता, भले बुरे
का ज्ञान ।
संग-जन्य रहता मगर, नर का
ऐसा ज्ञान ॥
|
455
|
मन की होना शुद्धता, तथा कर्म
की शुद्धि ।
दोनों का अवलंब है, संगति
की परिशुद्धि ॥
|
456
|
पातें सत्सन्तान हैं, जिनका
है मन शुद्ध ।
विफल कर्म होता नहीं, जिनका
रंग विशुद्ध ॥
|
457
|
मन की शुद्धि मनुष्य को, देती है
ऐश्वर्य ।
सत्संगति तो फिर उसे, देती सब
यश वर्य ॥
|
458
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शुद्ध चित्तवाले स्वतः, रहते साधु
महान ।
सत्संगति फिर भी उन्हें, करती शक्ति
प्रदान ॥
|
459
|
चित्त-शुद्धि परलोक का, देती है
आनन्द ।
वही शुद्धि सत्संग से होती और बुलन्द ॥
|
460
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साथी कोई है नहीं, साध- संग से
उच्च ।
बढ़ कर कुसंग से नहीं, शत्रु
हानिकर तुच्छ ॥
|
अध्याय 47. सुविचारित कार्य-कुशलता
|
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461
|
कर विचार व्यय-आय का, करना लाभ-विचार
।
फिर हो प्रवृत्त कार्य में, करके सोच-विचार
॥
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462
|
आप्तों से कर मंत्रणा, करता स्वयं
विचार ।
उस कर्मी को है नहीं, कुछ भी
असाध्य कार ॥
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463
|
कितना भावी लाभ हो, इसपर दे
कर ध्यान ।
पूँजी-नाशक कर्म तो, करते नहिं
मतिमान ॥
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464
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अपयश के आरोप से, जो होते
हैं भीत ।
शुरू न करते कर्म वे, स्पष्ट
न जिसकी रीत ॥
|
465
|
टूट पडे जो शत्रु पर, बिन सोचे
सब मर्म ।
शत्रु-गुल्म हित तो बने, क्यारी
ज्यों वह कर्म ॥
|
466
|
करता अनुचित कर्म तो, होता है
नर नष्ट ।
उचित कर्म को छोड़ता, तो भी
होता नष्ट ॥
|
467
|
होना प्रवृत्त कर्म में, करके सोच-विचार
।
‘हो कर प्रवृत्त सोच लें’, है यह गलत विचार ॥
|
468
|
जो भी साध्य उपाय बिन, किया जायगा
यत्न ।
कई समर्थक क्यों न हों, खाली हो
वह यत्न ॥
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469
|
बिन जाने गुण शत्रु का, यदि उसके
अनुकूल ।
किया गया सदुपाय तो, उससे भी
हो भूल ॥
|
470
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अनुपयुक्त जो है तुम्हें, जग न करे
स्वीकार ।
करना अनिंध कार्य ही, करके सोच-विचार
॥
|
अध्याय 48. शक्ति का बोध
|
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471
|
निज बल रिपु-बल कार्य-बल, साथी-बल भी
जान ।
सोच-समझ कर चाहिये, करना कार्य
निदान ॥
|
472
|
साध्य कार्य को समझ कर, समझ कार्य
हित ज्ञेय ।
जम कर धावा जो करे, उसको कुछ
न अजेय ॥
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473
|
बोध नहीं निज शक्ति का, वश हो
कर उत्साह ।
कार्य शुरू कर, बीच में, मिटे कई नरनाह ॥ |
474
|
शान्ति-युक्त बरबात बिन, निज बल
मान न जान ।
अहम्मन्य भी जो रहे, शीघ्र
मिटेगा जान ॥
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475
|
मोर-पंख से ही सही, छकड़ा लादा
जाय ।
यदि लादो वह अत्यधिक, अक्ष भग्न
हो जाय ॥
|
476
|
चढ़ा उच्चतम डाल पर, फिर भी
जोश अनंत ।
करके यदि आगे बढ़े, होगा जीवन-अंत ॥
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477
|
निज धन की मात्रा समझ, करो रीती
से दान ।
जीने को है क्षेम से, उचित मार्ग
वह जान ॥
|
478
|
तंग रहा तो कुछ नहीं, धन आने
का मार्ग ।
यदि विस्तृत भी ना रहा, धन जाने
का मार्ग ॥
|
479
|
निज धन की सीमा समझ, यदि न
किया निर्वाह ।
जीवन समृद्ध भासता, हो जायगा
तबाह ॥
|
480
|
लोकोपकारिता हुई, धन-सीमा नहिं
जान ।
तो सीमा संपत्ति की, शीघ्र
मिटेगी जान ॥
|
अध्याय 49. समय का बोध
|
|
481
|
दिन में उल्लू पर विजय, पा लेता
है काक ।
नृप जिगीषु को चाहिये, उचित समय
की ताक ॥
|
482
|
लगना जो है कार्य में, अवसर को
पहचान ।
श्री को जाने से जकड़, रखती रस्सी
जान ॥
|
483
|
है क्या कार्य असाध्य भी, यदि अवसर
को जान ।
समिचित साधन के सहित, करता कार्य
सुजान ॥
|
484
|
चाहे तो भूलोक भी, आ जायेगा
हाथ ।
समय समझ कर यदि करे, युक्त
स्थान के साथ ॥
|
485
|
जिनको निश्चित रूप से, विश्व-विजय की
चाह ।
उचित समय की ताक में, वें हैं
बेपरवाह ॥
|
486
|
रहता है यों सिकुड़ नृप, रखते हुए
बिसात ।
ज्यों मेढ़ा पीछे हटे, करने को
आघात ॥
|
487
|
रूठते न झट प्रगट कर, रिपु-अति से
नरनाह ।
पर कुढ़ते हैं वे सुधी, देख समय
की राह ॥
|
488
|
रिपु को असमय देख कर, सिर पर
ढो संभाल ।
सिर के बल गिर वह मिटे, आते अन्तिम
काल ॥
|
489
|
दुर्लभ अवसर यदि मिले, उसको खोने
पूर्व ।
करना कार्य उसी समय, जो दुष्कर
था पूर्व ॥
|
490
|
बक सम रहना सिकुड़ कर, जब करना
नहिं वार ।
चोंच-मार उसकी यथा, पा कर
समय, प्रहार ॥
|
अध्याय 50. स्थान का बोध
|
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491
|
कोई काम न कर शुरू, तथा न
कर उपहास ।
जब तक रिपु को घेरने, स्थल की
है नहिं आस ॥
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492
|
शत्रु-भाव से पुष्ट औ’, जो हों
अति बलवान ।
उनको भी गढ़-रक्ष तो, बहु फल
करे प्रदान ॥
|
493
|
निर्बल भी बन कर सबल, पावें
जय-सम्मान ।
यदि रिपु पर धावा करें, ख़ोज सुरक्षित
स्थान ॥
|
494
|
रिपु निज विजय विचार से, धो बैठेंगे
हाथ ।
स्थान समझ यदि कार्य में, जुड़ते
दृढ नरनाथ ॥
|
495
|
गहरे जल में मगर की, अन्यों
पर हो जीत ।
जल से बाहर अन्य सब, पावें
जय विपरीत ॥
|
496
|
भारी रथ दृढ चक्रयुत, चले न
सागर पार ।
सागरगामी नाव भी, चले न
भू पर तार ॥
|
497
|
निर्भय के अतिरिक्त तो, चाहिये
न सहकार ।
उचित जगह पर यदि करें, खूब सोच
कर कार ॥
|
498
|
यदि पाता लघु-सैन्य-युत, आश्रय
स्थल अनुकूल ।
उसपर चढ़ बहु-सैन्य युत, होगा नष्ट
समूल ॥
|
499
|
सदृढ़ दुर्ग साधन बड़ा, है नहिं
रिपु के पास ।
फिर भी उसके क्षेत्र में, भिड़ना
व्यर्थ प्रयास ॥
|
500
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जिस निर्भय गजराज के, दन्तलग्न
बरछैत ।
गीदड़ भी मारे उसे, जब दलदल
में कैंद ॥
|
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